जनवरी २०१०
संत जन
कहते हैं भीतर ही परमात्मा है. यदि ऐसा है तो क्यों नहीं हर कोई अपने भीतर जाकर
सुख राशि को खोज लेता ? हर कोई भीतर जाना नहीं सीखता, बाहर ही उसे इस तरह बांधे
रहता है कि कोई भीतर है भी इसका भी उसे भरोसा नहीं होता. दिन-रात जो बाहर ही रहता
है उसे पता ही नहीं चलता कि उसके भीतर भी एक आकाश है जहाँ सूरज उगता है वह अपने
भीतर के हिरण्यमय कोष से अनजान ही रह जाता है. भीतर की दुनिया उसे दूर की,
रहस्यमयी सी प्रतीत होती है जबकि बाहर से उसका दिनरात का नाता होता है.
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