Monday, December 28, 2020

नया वर्ष शुभ हो सबके हित

 इस वर्ष को समाप्त होने में मात्र दो दिन और चंद घंटे ही बाकी हैं, फिर पल भर को पर्दा गिरेगा,  विदा होगा वर्तमान वर्ष और आगत वर्ष मंच पर कदम धरेगा. खुशामदीद कह कर कुछ लोग नाचेंगे, कुछ  उठायेंगे खुशी का जाम और दुआ करेंगे कि उनकी  जिंदगी में रोशनी आए। कुछ नए वादे किए जाएंगे खुद से, लोग एक दूजे को  मुबारकबाद देगें। नए का स्वागत हो यह रीत है दुनिया की। आने वाला वक्त खुशहाली का सबब बने, यह सबकी चाहत है. फिजायें महक उठें, हर कोई तरक्की करे. न हो खौफ कोई महामारी का, उसका नाम भी न बचे. जाते हुए उस नामुराद को साथ ले जाए, यही तो सब के दिल की पुकार है।  जाते हुए मुसाफिर से यही गुजारिश करते हैं सभी कि सुकून से जी सकें जो जिंदा  हैं. जो चले गए, गम उनके अपनों को न सताये। नया साल भी एक दिन बाद ही पुराना हो जाता है और जीवन अपने उसी पुराने क्रम से चलने लगता है। हर साल हम नए वर्ष से कितनी उम्मीदें बांधते हैं, कुछ ख्वाब पूरे होते हैं कुछ खो जाते हैं, फिर हम उन्हें भूल ही जाते हैं। 2020 ने चाहे कितनी ही मायूसी से दो-चार कराया हो आदमी को, पर एक बात अवश्य हुई है कि सभी को   जिंदगी की अहमियत का पता चल गया है, किसी भी पल छिन सकती हैं श्वासें, यह अहसास जिंदा रहे हो तो हर पल की कदर की जा सकती है। इसलिए अच्छा तो यही है, न करें कोई वायदे, न लें या दें कोई वचन, बस हर दिन को परमात्मा का एक तोहफा कुबूल करके उसे जितना हो सके सजगता से गुजारें। सत्संग यानि सत्य का संग न छोड़ें, साधना अर्थात योग-प्राणायाम को नियमित करें, सेवा अर्थात किसी न किसी रूप में अपना शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग अन्यों के लिए निस्वार्थ भाव से हो और स्वाध्याय यानि स्वयं को पढ़ें, शास्त्र या किसी न किसी श्रेष्ठ साहित्य को नियमित पढ़ें। सेवा, सत्संग, साधना और स्वाध्याय के चार स्तंभों पर टिका जीवन का भवन किसी भी आपदा का सामना अविचलित रहकर कर सकता है। 


Tuesday, December 22, 2020

बने साक्षी जो हर पल का

 जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों जिस पृष्ठभूमि पर घटते हैं वह एक रस अवस्था है.  बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था तीनों को जो कोई एक अनुभव करता है वह इन तीनों से परे है. भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक इन तीनों प्रकार के दुखों का जो साक्षी है वह इनसे परे है. मन, बुद्धि और संस्कार इन तीनों के भी परे है, सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से भी वह अतीत है. यह सब हम शास्त्रों में पढ़ते हैं किन्तु इस पर कभी चिंतन नहीं करते. जागते हुए जो संसार हम देखते हैं वह स्वप्न और नींद में विलीन हो जाता है, स्वप्न में जो दुनिया दिखाई देती है वह आँख खुलते ही गायब हो जाती है, और गहरी नींद में तो व्यक्ति को यह भी ज्ञान नहीं रहता कि वह कौन है ? लेकिन हमारे भीतर कोई एक है जो पीछे रहकर सब देखता रहता है. जो कुछ हम जाग कर करते हैं, या स्वप्न में या नींद गहरी थी या हल्की, वह सब जानता है. बचपन से लेकर वर्तमान की स्मृतियों को जो अनुभव कर रहा है वह मन तो रोज बदल जाता है पर कोई इसके पीछे है जो कभी नहीं बदलता. आज तक न जाने कितने सुख दुःख के पल जीवन में आये, जो इनसे प्रभावित नहीं हुआ वह चैतन्य ही गुणातीत है. ध्यान में जब मन व बुद्धि शांत हो जाते हैं, तब जो केवल अपने होने मात्र का अनुभव होता है, वह उसी के कारण होता है. वह अनुभव शांति और आनंद से मन को भर देता है. इसीलिए हर धर्म में ध्यान को इतनी महत्ता दी गयी है.

Thursday, December 17, 2020

भक्ति करे कोई सूरमा

 भक्त कहता है हम मरुथल सा रूखा-सूखा दिल लेकर तेरे द्वार पर आये थे, देखते ही देखते तूने वहाँ हरियाली के अंबार लगा दिए। तेरा नाम भर सुना था, तुझे जानते भी नहीं थे पर जो  खाली दामन साथ लाये थे, उसे भर दिया. जो दिखाई नहीं देते पर जिनकी चमक से मन में ज्योति छा गयी है, वैसे मधुर भावों के अनेक हीरे-मोती तू लुटाता है. दो बूँद ही प्रेम की इस उर ने चाही थी पर कितना कृपालु है तू कि प्रेम के  दरिया बहा दिए. कितने विकारों से भरा था मन, अहंकार के हाथी पर चढ़ कर आया था, पर तू पावन करने वाला है. सारे संबंध  तुझसे ही पनपे हैं, तू पिता बनकर पालता है, माँ बनकर संवारता है, गुरू बनकर राह दिखाता है, मित्र बनकर स्नेह लुटाता है, भाई या बहन बनकर जीवन पथ को सुंदर बनाता है. यह सारी सृष्टि तुझसे ही उपजी है. भक्त को किसी दर्शन, किसी वाद, ता किसी शास्त्र की आवश्यकता नहीं है, उसे समाधि भी नहीं साधनी है, उसे तो भीतर उमड़ते उस प्रेम को एक दिशा देनी है, उस अनंत पर लुटाना है. प्रेम का आदान-प्रदान ही एकमात्र वह कृत्य है जो उसे अस्तित्त्व से जोड़ता है. 


Tuesday, December 15, 2020

सब कुछ भीतर बाहिर नाहीं

 मानवीयता  के सारे उपकरण जन्मजात मानव को मिले हैं, उसके भीतर ही हैं पर जैसे कोई अपना धन कहीं रखकर भूल जाये वैसे ही हम उन्हें भुला बैठे हैं. मानवीय भावनाएं प्रेम, आनंद, सुख, शांति, करुणा, पवित्रता, सत्विकता आदि खोजने तो जाना नहीं है, ये हरेक के भीतर हैं, नानक कहते हैं सबके भीतर वे हैं कोई घर इनसे खाली नहीं है. एक उंगली के सहारे ही हृदय की वीणा झंकृत हो सकती है. नन्हा बालक या बालिका जिन असीम सम्भावनाओं के साथ इस जग में आते हैं, जरा सा सहारा मिले तो वे खिल कर ऊपर आ सकती हैं। किन्तु आज के मानव  के पास फुरसत ही नहीं है, वह अपनी ही धुन में चल जा रहा है। समय की निधि चुकती जाती है और जीवन संध्या निकट आ जाती है। संत कहते हैं हर देह में शक्ति के केंद्र हैं, जिन्हें योग और ध्यान से जगाया जा सकता है। मानसिक, दैहिक और आत्मिक शक्ति के द्वारा ही कोरोना जैसी आपदाओं का हम सामना कर सकते हैं। 


Saturday, December 12, 2020

नित नूतन से जुड़ जाये मन

राम के मन की समता का, सत्याग्रह हेतु बापू की अदम्य शक्ति का, बुद्ध की करुणा का, कृष्ण की मोहनी मुस्कान का, नानक की वाणी का और अनेकानेक सन्तों, महापुरुषों के अपार स्नेह का  स्रोत एक ही तो है. वही एक जिसका बखान वेदों ने गाया है. वह व्यक्त हो सकता है केवल मानवीय मस्तिष्क द्वारा. सन्त कहते हैं, जब कोई अंतर को निष्काम बना लेता है तो  उस स्रोत से जुड़ जाता है. दुनियावी संस्कार जब इच्छा जगाते हैं तो यह संपर्क टूट-टूट जाता है. संस्कार पूर्व कर्म का फल हैं. हम जो भी करते हैं संस्कारों से प्रेरित होकर ही करते हैं. वह सभी अतीत का फल है. मन अतीत है जो भविष्य के स्वप्न दिखाता है पर स्वयं ही उसी फसल को काटकर उसके बीज गिराता चलता है. इस स्थिति में भविष्य कैसे भिन्न होगा अतीत से ? वही-वही मानव नित्य दोहराये जाता है. चेतना नित नई है. वह नए पथ सुझाती है. जब पुराने सभी आग्रह और मान्यताएं झर जाती हैं तब नए कोंपल निकलते हैं. जब पुरानी इमारत ढह जाती है तो ही नए का निर्माण होता है. जब मन अतीत से मुक्त होता है तब वह मन नहीं रहता चैतन्य मात्र रह जाता है. उस क्षण में करुणा का सागर बह जाता है, प्रेम का दीप जल जाता है. सत्य की मशाल जगमगा उठती है. सन्त ऐसे ही बहता है भीतर से जैसे पोली बंसी हवा को बहाती है संगीत बद्ध करके. वह अस्तित्त्व से भर जाता है ऐसे जैसे कोई खाली पात्र भरता जाता है वर्षा के जल से, और अनंत उसे भरता ही चला जाता है.   

 

Tuesday, December 8, 2020

कर्मण्येवाधिकारस्ते

 फल की कामना को रखकर किया गया कर्म अस्तित्त्व के लिए नहीं होता, जबकि साधक  अस्तित्त्व के साथ अभिन्नता का अनुभव करना चाहता है. यदि उसका स्वार्थ अभी भी शेष है तो साधना का लक्ष्य अभी दूर है. जो किंचित मात्र भी मन को बचाकर रखना चाहता है, वह अहंकार का पोषण ही कर रहा है. उसे दुःख का  भागी होना ही पड़ेगा. दुःख आत्मा से दूर ले जाता है, सहजता ही आनंद है. जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारना तथा किसी मान की चाह या प्राप्ति के लिए कुछ करना या करने की इच्छा रखना सहजता के पद से नीचे उतर जाने जैसा ही है। जो भाव दशा मन में आती है और उतर जाती है वह नश्वर है। आकाश की भांति अनंत और सागर की भांति गहरे स्थायी भाव में टिकना ही साधना है। 


Tuesday, December 1, 2020

जब पावनता की ओर मुड़े मन

 जब हम जीवन को आदर और सम्मान से देखते हैं, एक पवित्रता का भाव मन में उसके प्रति जगाते हैं तो ही जीवन की विशालता का अनुभव कर पाते हैं। जब हमारे पूर्वजों ने नदियों को पवित्र माना, दूर्वा, तुलसी, बेल, पीपल आदि को पवित्र मानकर उन्हें सम्मान दिया तब इन वस्तुओं ने अपने गुणों से उन्हें लाभान्वित किया। धरती पूज्य है, आकाश आदि पंच तत्व सभी पावन हैं, जब हम यह शब्दों से ही नहीं मानते, हृदय से महसूस करते हैं तब  प्रकृति हमारे लिए माँ के समान सुख देने वाली प्रतीत होती है। जिस अंतर को जगत में  कुछ भी सम्मान के योग्य नहीं लगता, वह संकीर्ण मनोवृत्ति का शिकार हो जाता है। ऐसा जीवन रसहीन हो जाता है, उत्साह और उमंग के लिए उसे किसी न किसी साधन की आवश्यकता होती है। यदि जीवन में कोई खोज न हो केवल जीवन निर्वाह के सिवा जीवन का क्या अर्थ रह जाता है। जो व्यक्ति जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूर्ण कर चुका है, ऐसे में उसके जीवन में एक खालीपन भर जाता है। संभव है यह प्रकृति द्वारा ही आयोजित किया गया हो, वह हरेक को एक उच्च लक्ष्य की ओर अग्रसर कर रही है। मानव मस्तिष्क को अपनी पूर्णता की ओर ले जा रही है। 

Sunday, November 29, 2020

एक सजगता ऐसी भी हो

 जब मन में मान्यताओं व पूर्व धारणाओं की दीवार गिर जाती है, तब सत्य सम्मुख होता है. उस समय जो क्रिया शक्ति जगती है वह कर्ता विहीन होती है. जैसे हवा बहती है पर कोई बहाता नहीं ! जब शब्दों की आड़ में हम अपने अज्ञान को छिपा लेते हैं तब ज्ञान ही बन्धन बन जाता है. एक निर्विचार स्थिति ऐसी होती है जैसे अचानक घोर अँधेरे में कोई बिजली कौंध जाये, उस एक क्षण में सब कुछ एक साथ दिखाई पड़ता है. उसी में टिके रहने की कला ध्यान है. उस अखण्ड शांति का स्पर्श मन व बुद्धि की चंचलता को मिटाता है, उन्हें शुद्ध करता है. वही भीतरी संगम है, वही कैलाश है और वही अमृत का कुंभ है. इस योग से एक ऐसी सजगता का जन्म होता है, जो बस अपने आप में है, वह किसी वस्तु विशेष के प्रति नहीं है. इस तरह साधक का मन जिस खालीपन का अनुभव करता है उसमें कोई बोझ नहीं रहता. 


Wednesday, November 25, 2020

मुक्त हुआ है जो प्रमाद से

बुद्ध कहते हैं, प्रमाद मृत्यु है। प्रमाद अर्थात जानते हुए भी कि यह अनुचित है उससे छूटने का प्रयास न करना और जानते हुए भी कि यह सही है, उसे न करना। हम सभी जानते हैं रात्रि में जल्दी सोना और सुबह जल्दी उठना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, सात्विक और हल्का भोजन, स्वाध्याय, सेवा, सत्संग, नियमित व्यायाम और ध्यान; शारीरिक और मानसिक आरोग्य के लिए जरूरी है, पर क्या इसका पालन करते हैं। मृत्यु के क्षण में जब देह जड़ हो जाती है और चेतन शक्ति बाहर से उसे जरा सा भी हिला नहीं पाती, तब उसे वे पल स्मरण हो आते हैं जब जीवित रहते हुए इस देह को हिलाया जा सकता था, तब श्रम से बचते रहे। जब पैरों में दौड़ने की ताकत थी, हाथों में काम करने की शक्ति थी, मन में चिंतन का बल था, अब यह देह पत्थर की हो गई है, पर उस वक्त जब देह में स्पंदन था, मन को कितनी बार पत्थर सा नहीं बना लिया था, जिससे कोमल भाव झर सकते थे, जिससे मैत्री और करुणा के गीत फूट सकते थे, उससे द्वेष और रोष को उगने दिया था। मृत्यु के बाद वह सब याद आता है जो करना शेष रह जाता है, जो अभी किया जा सकता है, उस सबके प्रति जागना ही प्रमाद से मुक्त होना है। 

Monday, November 23, 2020

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है

 संत कहते हैं, ‘इच्छा, क्रिया और ज्ञान’ आत्मा में ये तीनों शक्तियां हैं. इन तीनों से योग का घनिष्ठ संबंध है. सफलता तब मिलती है जब ये तीनों एक साथ प्रकट होती हैं. कुछ करने की भावना या मात्र इच्छा होना ही पर्याप्त नहीं है, इसे क्रिया के क्षेत्र में उजागर करने की आवश्यकता है. जब हम चाहते हैं कि हमारी इच्छा पूरी हो, ज्ञान और क्रिया शक्ति की भी आवश्यकता है. हर एक में क्रिया शक्ति मौजूद है, हमें इसे समुचित रूप से प्रवाहित करने की जरूरत है अन्यथा यह मन और देह में बेचैनी बढ़ाती है। दिल की धड़कन बढ़ जाती है, कुछ लोग मेज थपकते हैं, कुछ पैर हिलाते हैं, जो उनके भीतर की बेचैनी को ही दिखाता है. जब हम योग साधना और ध्यान करते हैं तभी कर्म और सेवा के क्षेत्र में सफल होते हैं. क्रिया जब ज्ञान  से संयुक्त होती है तब प्रसन्नता सहज ही मिलती है। योग से प्राप्त सजगता और सतर्कता का उपयोग किसी और का दोष ढूंढने में इस्तेमाल न करना कर्म की शक्ति को बढ़ाता है। यदि हम इस का निरीक्षण नहीं करते हैं, जीवन में आलस्य और जड़ता छा जाती  है. जब कर्म का आदर नहीं होता, जीवन में प्रमाद छा जाता है, इच्छाएं पूरी नहीं होती हैं. सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता है। जब हम ध्यान की स्थिति में विचारों से परे जाते हैं, इच्छा से ज्ञान की ओर, फिर कार्य करना सरल हो जाता है. जो इच्छा, ज्ञान में परिवर्तित हो जाती है, और क्रिया में फलित होती है, उसी से विकास होता है. 


Wednesday, November 18, 2020

लक्ष्य यदि कोई हो मन का

 

कृष्ण हमारी आत्मा हैं और अष्टधा प्रकृति ही मानो उनकी आठ पटरानियाँ हैं। रानियाँ यदि कृष्ण के अनुकूल रहेंगी तो स्वयं भी सुखी होंगी और अन्यों को भी उनसे कोई कष्ट नहीं होगा। इसी तरह मन, बुद्धि, अहंकार और पंच तत्व ये आठों यदि आत्मा के अनुकूल आचरण करेंगे तो देह भी स्वस्थ रहेगी और जगत कल्याण में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। मन से संयुक्त हुईं सभी इंद्रियाँ ऊर्जा का उपयोग ही करती हैं, मन यदि संसार की ओर ही दृष्टि बनाए रखता है तो अपनी ऊर्जा का ह्रास करता है. बुद्धि यदि व्यर्थ के वाद-विवाद में अथवा चिंता में लगी रहती है तब भी ऊर्जा का अपव्यय होता है। जैसे घर में यदि कमाने वाला एक हो और उपयोग करने वाले अनेक तथा सभी खर्चीले हों तो काम कैसे चलेगा. मन को ध्यानस्थ होने के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता है, तब ऊर्जा का संचयन भी होता है. यदि दिवास्वप्नों में या इधर-उधर के कामों में वह उसे बिखेर देता है तो मन कभी पूर्णता का अनुभव नहीं कर पाता. उसे यदि एक दिशा मिल जाए तबही वह संतुष्टि का अनुभव कर सकता है, वरना जो ऊर्जा हम नित्य रात्रि में गहन निद्रा में प्राप्त करते हैं, दिन होने पर जल्दी ही खत्म हो जाती है, और कोई महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए हमारे पास शक्ति ही नहीं होती।  

Monday, November 16, 2020

रहे अटूट यह पावन नाता

 

आज भाई दूज है, इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। प्रत्येक बहन की हार्दिक इच्छा होती है कि उसका भाई सदा सुरक्षित रहे और भाई यही चाहता है उसकी बहन सदा सुखी रहे। अनादि काल से भाई-बहन के मध्य निश्छल प्रेम को प्रोत्साहित करने, सौमनस्य और सद्भावना का प्रवाह अनवरत प्रवाहित रखने के लिए संभवत: यह पर्व मनाया जाता रहा है। पुराणों में इस पर्व की कथा इस प्रकार कही गई है। सूर्य को संज्ञा से दो संतानें थीं, पुत्र यम और पुत्री यमुना । संज्ञा सूर्य का ताप सहन  न कर पाने के कारण अपनी छाया मूर्ति का निर्माण कर उसे ही अपने पुत्र और पुत्री को सौंप कर वहाँ से चली गई। छाया को यम और यमुना से कोई लगाव नहीं था पर दोनों का आपस में बहुत प्रेम था। विवाह उपरांत भी यमुना अपने भाई के यहाँ जाकर उसका हाल-चाल लेती रहती किन्तु व्यस्तता और दायित्व बोझ के कारण यम के पास समय नहीं था। एक बार कार्तिक शुक्ल द्वितीया को अचानक यम अपनी बहन के यहाँ जा पहुँचे। बहन ने बड़ा आदर सत्कार किया, विविध व्यंजन खिलाए और मस्तक पर तिलक लगाया। यम अति प्रसन्न हुए और उसे भेंट समर्पित की। चलते समय यमुना से कोई वर मांगने को कहा। यमुना ने कहा, यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो यही मांगती हूँ कि प्रतिवर्ष आज के दिन आप मेरे यहाँ आयें, और जो भाई आज के दिन बहन के घर जाकर उसका आतिथ्य स्वीकार करे और उसे भेंट दे, उसकी रक्षा हो। इस दिन यम-पूजा और यमुना में स्नान का विशेष महत्व है। भारत की अनुपम परंपरा और संस्कृति में हर संबंध की गरिमा को बढ़ाने वाले पर्व व उत्सव पिरोये हुए हैं।

Thursday, November 12, 2020

दीप जले दीवाली के

 धनतेरस से आरम्भ होकर  भाईदूज पर समाप्त होने वाला ज्योतिपर्व दीपावली आशा और उमंग का उत्सव है. इसका हर पक्ष जीवन को एक नया अर्थ प्रदान करता है. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की महत्ता को बताने वाला यह पर्व हमें प्रकाश के रूप में बिखर कर स्वयं का और अन्यों का पथ प्रज्ज्वलित करने का संदेश देता है. ज्ञान के देवता गणपति और समृद्धि की देवी लक्ष्मी की आराधना कर हम जीवन को अर्थवान और कामनाओं की पूर्ति के लिए सक्षम बनाते हैं. घर-बाहर की स्वच्छता और रंगोली, दीपदान, बन्दनवार आदि से शुभता का प्रसरण धर्म की वृद्धि में सहायक है. जिस प्रकार बाहर के दीपक का प्रकाश वातावरण को पवित्र करता है, अंतर्ज्योति का प्रकाश हमारे अज्ञान को हरता है. आत्मज्योति के दर्शन करने की प्रेरणा मोक्ष की ओर ले जाती है. मिष्ठानों व पकवानों को न केवल अपने परिवार के लिए बनाना बल्कि उनका वितरण समाज में मधुरता को बढ़ाता है. धनतेरस के दिन व्यापारियों की चाँदी है तो छोटी दीवाली के दिन हलवाइयों की, दीपावली के दिन मूर्तिकारों और दिए बनाने वाले कुम्हारों के श्रम का प्रतिदान मिलता है तो उसके अगले दिन किसानों के लिए लाभकारी है जब घर-घर में अन्नकूट का भोज बनता है. भाईदूज पर बहन-भाई के स्नेह का प्रतीक टीका केसर उत्पादकों के लिए फायदेमंद है. नए वस्त्र, नए बर्तन और भी न जाने कितनी खरीदारी दीपावली को सभी के लिए शुभ और लाभ देती है. आप सभी को असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक इस उत्सव पर हार्दिक शुभकामनायें ! 


Wednesday, November 11, 2020

जीवन इक वरदान बने जब

 सत्य को परिभाषित करना कुछ ऐसा ही है जैसे हवा को मुट्ठी में कैद करना. जगत में जो भी शुभ है, जो भी शुभता को बढ़ाने वाला है, शांति और आनंद को प्रदान करता है, वह सत्य है, शिव है, सुंदर है, वही परमात्मा है.  एक अनंत शक्ति जो सभी को अपना मानती है, जिसके मन में करुणा और प्रेम का सागर है, उसको अनुभव करने का अर्थ है स्वयं भी सब जगह उसी को देखना. देह मानकर हम स्वयं को सीमित समझते हैं, मन के रूप में फ़ैल जाते हैं, आत्मा के रूप में हमारे सिवा कोई दूसरा नहीं है, ऐसा अनुभव किया जा सकता है. ऐसे परमात्मा को जीवन में अनुभव करना हो तो आत्मा के निज धर्म का पालन करना होगा. प्रार्थना के हजार शब्दों को सुनने या याद करने से वह सुख नहीं मिल सकता जो शुभता बढ़ाने वाला एक छोटा सा कृत्य दे सकता है. जब स्वार्थ बुद्धि हट जाती है, मन स्वयं को कर्ता मानना छोड़ देता है, तब ही भीतर हल्कापन महसूस होता है और जीवन परमात्मा से मिले एक उपहार की तरह प्रतीत होता है.


Friday, November 6, 2020

समिधा बने यह जीवन अपना

 

अनंत युगों से सृष्टि का यह यज्ञ अनवरत चल रहा है। समय-समय पर न जाने कितने अवतार, संत, महापुरुष, ऋषि व जन सामान्य ने भी इस यज्ञ में अपनी आहुति प्रदान की है, वर्तमान में भी कर रहे हैं। कोई लेखक जब कष्ट उठाकर भी समाज के उत्थान के लिए साहित्य का सृजन करता है, अथवा कोई संगीतकार या गायक जब घंटों अभ्यास करता है, वे अपनी प्रतिभा की हवि का अर्पण ही कर रहे हैं। जन कल्याण का कोई भी अभियान हो उसमें अनेक जन अपने जीवन को ही समिधा बनाकर अर्पित कर देते हैं। वर्तमान में भी एक यज्ञ चल रहा है, कोरोना से बचाव का, इसके प्रभाव से स्वयं को व अन्यों को भी मुक्त रखने का। हम सभी को सजगता पूर्वक अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखकर इसमें अपनी समिधा डालनी है। सकारात्मक सोच, नियमित योग साधना, ध्यान का अभ्यास, प्रकृति का सम्मान तथा सात्विक आहार के द्वारा हम सहज ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं। ये सभी उपाय हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ा देते हैं।   

Wednesday, November 4, 2020

ध्यान के पथ का जो राही है

 

एक बार किसी साधक ने किसी संत से पूछा, ध्यान की कितनी विधियाँ हैं ? संत मुसकुराते हुए बोले, आज तक जितनी बार किसी ने ध्यान किया है हर बार एक नई विधि का जन्म हुआ है, जब परमात्मा  अनंत है तो उस तक पहुँचने के मार्ग भी अनंत ही होने चाहिए। इसलिए दुनिया में इतने धर्म हैं, इतने पंथ, संप्रदाय और मत हैं, सभी का लक्ष्य एक है पर हरेक अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुसार इस मार्ग पर चलता है। इसलिए भगवद गीता में कृष्ण ने भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग, ध्यान योग, जपयोग, प्रेम योग सभी का उल्लेख किया है। हर कोई जाने-अनजाने उसके पथ का ही राही है। जो स्वयं को नास्तिक मानता है वह भी और जो अपने को आस्तिक मानता है वह भी। परमात्मा से मिलने की इच्छा के जगने का अर्थ है मानव होने की गरिमा को अनुभव करना। एक शिशु जिस आनंद को सहज ही अनुभव करता है उसे पुन: पा लेना अथवा स्वयं के सही स्वरूप से मिलन। संसार से एकत्व ही इसकी परिणति है। समता की प्राप्ति ही इस मिलन पर प्राप्त होने वाला उपहार है।   

मुक्ति की जो करे साधना

 

सद्गुरु कहते हैं शिव हुए बिना कोई शिव की पूजा नहीं कर सकता ! शिव देह भाव से मुक्त हुई उस चेतना का नाम है जो परम प्रेमस्वरूप है। वह मुक्त है, निर्दोष है. उसमें एक भोलापन भी है। वह ज्ञान स्वरूप है पर उसे अपने ज्ञानी होने का अभिमान नहीं है। शिव का प्रतीक हमारी आत्मा का प्रतीक है। वह कितना सुकोमल और सुडौल है, उसमें कहीं कोई कोना उभरा  हुआ नहीं है, नुकीला नहीं है। वह किसी को हानि नहीं पहुँचाता। उस पर जल चढ़ाने का अर्थ है मन को निर्मल करना, फूल अर्पित करने का अर्थ है सारी कटुता को भीतर ही समा लेना उसे बाहर न आने देना। धतूरा चढ़ाने का अर्थ है अपने अवगुणों को समर्पित कर देना। बेल पत्र अर्थात तीनों गुणों – सत, रज, तम के पार चले जाने की साधना करना। शिव तत्व और गुरू तत्व एक ही हैं ऐसा भी शास्त्र कहते हैं।

Tuesday, November 3, 2020

उस अज्ञेय से प्रेम करे जो

 

जीवन बहुआयामी है। यहाँ हर किसी को अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार आगे बढ़ने का सुअवसर है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। एक छोटे से कण का पूरा ज्ञान भी आजतक कोई नहीं जान पाया। अंतरिक्ष की कौन कहे अभी भी धरती पर ऐसे कई स्थान हैं जहाँ मानव नहीं पहुंचा है। कुछ ऐसा है जो हमने जान लिया है, कुछ ऐसा है जो आज नहीं कल हम जान लेंगे पर कुछ ऐसा तब भी बच जाएगा जिसे हम कभी भी जान नहीं पाएंगे। वह अज्ञेय ही सारे रहस्यों का कारण है और उस आनंद का स्रोत भी वही  है जिसके कारण हर सुबह पंछी चहचहाते हैं, खरगोश दौड़ते-भागते हैं, फूल खिलते हैं, बच्चे मुसकुराते हैं और जिन्हें देखकर माँ के हृदय में वात्सल्य भरे प्रेम का अनुभव होता है। जहाँ से सारा शुभ जन्मता है और यदि अशुभ न हो तो शुभ का महत्व ही क्या रह जाएगा, अशुभ भी वहीं से उपजता है, जैसे माँ की फटकार में भी प्रेम छुपा है; पर वह दोनों से परे स्वयं में स्थित है। सारी ऊर्जा का स्रोत भी वही है।

Monday, November 2, 2020

सदा ऊर्जित होगा मन जो

 

जगत में विकास करना हो तो ऊर्जा के नए-नए स्रोत चाहिए. सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में वैज्ञानिक नयी खोजें कर रहे हैं। भीतर विकास करना हो उसके लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता है। हम भोजन, जल, निद्रा और श्वास से ऊर्जा को ग्रहण करते हैं। ध्यान भी एक सहज और सशक्त साधन है जिससे हम मानसिक और आत्मिक ऊर्जा को बढ़ा सकते हैं। हमारे चारों ओर तरंगों का एक विशाल समुद्र है, जिसमें सकारात्मक और दिव्य ऊर्जा की तरंगें भी हैं। मन भी एक ऊर्जा है, यदि कुछ क्षणों के लिए ही इसे केंद्रित करके सकारात्मक विचारों से भर लें फिर स्वीकार भाव में मात् बैठे ही रहें तो ‘समान समान को आकर्षित करता है’ के नियम से दिव्य ऊर्जा स्वयं ही हमारे मन को छूने लगेगी, और यदि वह पहले से ही विचारों से भरा हुआ नहीं है तो उस रिक्त स्थान को भर देगी। मन यदि स्वीकार भाव में हो तो उसकी गहराई में स्थित आत्मा की झलक भी मिलने लगती है। इससे आत्मिक बल भी बढ़ता है और जीवन में भय और असुरक्षा का नाम भी नहीं रहता। प्राण ऊर्जा का संवर्धन प्राणायाम के द्वारा भी किया जा सकता है, किन्तु ध्यान रखना होगा कि मन श्रद्धा से भरा हो। जीवन के अंतिम क्षण तक यदि कोई अपने कार्य स्वयं करने में समर्थ रहना चाहता है तो उसे प्राण ऊर्जा का संवर्धन निरंतर करते रहना होगा।

Wednesday, October 28, 2020

मानव जन्म अमोल है

 

संतों से हम सभी सुनते आए हैं, मानव जन्म अनमोल है। मानव ही कर्म करके अपना भाग्य बदल सकता है। मानव से इतर सभी योनियाँ केवल भोग के लिए हैं। यदि हमारा जीवन मात्र सुख-सुविधा को बढ़ाते जाना है तो हम अपनी क्षमता का विकास नहीं कर सकते। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए उससे काम लेना, व्यायाम करना आवश्यक है तो मन को स्वस्थ रखने के लिए ध्यान साधना। प्राणों को सबल बनाने में प्राणायाम की बहुत बड़ी भूमिका है और बुद्धि को तीव्र करने हेतु अध्ययन, मनन, श्रवण और चिंतन की। आनंद को बढ़ाने के लिए संगीत, कला अथवा प्रात: व सांय काल का भ्रमण, प्रकृति का सान्निध्य आवश्यक है। यदि हमारी दिनचर्या इन सबके अनुकूल ढली हो तो व्यर्थ की चिंता अथवा किसी समस्या के लिए स्थान ही नहीं रह जाता। भारत की संस्कृति इतनी दिव्यता से परिपूर्ण है कि शास्त्रों में लगायी छोटी सी डुबकी भी भीतर तक तृप्त कर देती है। भारत का ज्ञान और योग आज सारे विश्व का मार्ग दर्शन कर रहा है। मानव धर्म सिखाने वाला सनातन मार्ग हमें सहज ही पूर्णता की ओर ले जाता है।

Tuesday, October 27, 2020

पल-पल सजग रहे जो मन

अतीत में जो भी अच्छे-बुरे कर्म  हमसे हुए हैं, उसके संस्कार मन पर पड़े हैं तथा उनके फल सुख-दुख के रूप में हमें प्राप्त हो रहे हैं। सुख आने पर यदि हम गर्वित न हों, दुख आने पर व्यथित न हों तो अतीत हम पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। यदि दुख में दुखी होना और सुख में अभिमान से भर जाना हमारे लिए स्वाभाविक है तो भविष्य भी ऐसा ही होने वाला है। अतीत जब पत्थर बन कर राह में आ जाए तो वर्तमान का दर्शन हमें होता ही नहीं। संत कहते हैं भूख-प्यास और नींद के अलावा वर्तमान में कौन सा दुख है, सारे मानसिक दुख व चिंता अतीत के ही हैं, और यदि हमारा मन किसी भी कारण से परेशान रहता है तो अतीत के हाथों वह जकड़ा हुआ है। वर्तमान का क्षण निर्दोष है, परमात्मा की कृपा का अनुभव सदा वर्तमान में ही होता है। आज यदि हम हर कर्म को सजग होकर करते हैं तो पुराने संस्कार क्षीण पड़  जाएंगे और शुभ कर्मों के संस्कार पड़ेंगे, यही मुक्ति का मार्ग है।


Sunday, October 25, 2020

विजय सभी की जब चाहें हम

 

आज दशहरा है, हजारों वर्षों से असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक यह पर्व मानव को जीने का सही पथ दिखाता आ रहा है। रावण के दस सिर उसके अहंकार के प्रतीक हैं और राम की विजय उनके आदर्श की प्रतीक है। अब हमें यह निश्चय करना है कि  जिस अहंकार का एक दिन नाश ही होना है उसे प्रश्रय दें अथवा अपने मूल्यों पर दृढ़ रहकर एक ऐसे जीवन का निर्माण करें जो युगों-युगों से मानव का आदर्श बना हुआ है। अहंकार व्यक्ति को सबसे तोड़ता है, पहले रावण अपने भाई से दूर हो गया फिर अपनी पत्नी मंदोदरी से दूर हो गया, यहाँ तक कि अंतत: वह जगत से ही चला गया। रामायण की कथा अपने भीतर न जाने कितने संदेश छुपाये है। आज जब हर कोई महामारी के भय से आक्रांत है, समाज को मिलजुल कर एकदूसरे का सहयोग करते हुए जीने की कला सीखनी होगी। हम देख ही रहे हैं कि एक व्यक्ति को अपना जीवन यापन करने के लिए कितने ही लोगों का सहयोग चाहिए। सफाई कर्मचारी, आसपास के दुकानदार, डाक्टर, दूध-सब्जी विक्रेता, बैंक कर्मचार सीमा पर जवान, मीडिया के लोग, अध्यापक और न जाने कितने ही व्यक्तियों का सहयोग लेकर हमारा जीवन सुचारु रूप से आगे चल सकता है। हम समाज का अंश भी हैं और समाज भी हैं, समाज हमसे है और हम समाज से हैं। यदि हर व्यक्ति सभी के प्रति एक सद्भावना का विचार लेकर जीवन यापन करता है तो वह राम के पथ का अनुगामी है, यदि किसी भी कीमत पर केवल अपने सुख की कामना करता है तो रावण ही उसका आदर्श है।

Saturday, October 24, 2020

नवरात्रि का मर्म जो जाने

 नवरात्रि उत्सव के प्रथम तीन दिन मां दुर्गा को, मध्य के तीन दिवस माँ लक्ष्मी को तथा अंतिम तीन दिवस सरस्वती मां को समर्पित हैं. साधक को पहले शक्ति की आराधना द्वारा तन, मन व आत्मा में बल का संचय करना है, इसके लिए ही योग साधना व प्राणायाम द्वारा चक्र भेदन किया जाता है जिससे शक्ति प्राप्त हो. इसके बाद उस शक्ति के द्वारा भौतिक संपदा के साथ-साथ मानसिक षट संपत्ति की प्राप्ति होती है. इस शक्ति का सदुपयोग हो सके इसके लिए ज्ञान की आवश्यकता है. शक्ति यदि अज्ञानी के हाथ में पड़ जाये तो लाभ की जगह हानि का कारण ही बनेगी. इसीलिए वाग्देवी की आराधना होती है अर्थात ज्ञान की प्राप्ति के लिए अध्ययन, मनन व चिंतन किया जाता है. भारत की अद्भुत संस्कृति में हर उत्सव हमें उस परम की ओर ले जाने का एक साधन है. हर कोई अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार इन उत्सवों से प्राप्त सन्देश को अपनाकर अपने जीवन को आगे ले जा सकता है.

Tuesday, October 20, 2020

शक्ति की जो करे साधना

 मन द्वंद्व का ही दूसरा नाम है. यह जगत ही दो से बना है और मन भी इसी जगत का हिस्सा है. यहाँ सुख के साथ दुःख  है और दिन के साथ रात है. हम दिन को भी स्वीकारते हैं और रात को भी. किन्तु सुख के साथ दुःख को नहीं स्वीकारते. दिन और रात को हम बाहर की घटना मानते हैं और सुख-दुःख को मन के भीतर की, बाहर पर हमारा कोई बस नहीं वह प्रकृति से संचालित है पर हमें लगता है भीतर पर हमारा बस चल सकता है. हम दुःख को अस्वीकारते हैं और इसी कारण कभी भी उससे छुटकारा नहीं मिल पाता। यदि दुःख को भी सहजता से स्वीकार लें तो वह टिकने वाला नहीं है. उससे बचने की प्रक्रिया में हम उसकी अवधि को बढ़ा देते हैं और उसकी तीव्रता को भी. इसी तरह मन में प्रेम भी है और क्रोध भी, हम प्रेम को अच्छा मानते हैं और क्रोध से छुटकारा पाना चाहते हैं. क्रोध को दबाते हैं या क्रोध आने पर स्वयं को दोषी मान लेते हैं. मन की जिस शक्ति से हम क्रोध को दबाते हैं और जिस विचार के द्वारा मन को क्रोध न करने के लिए समझाते हैं या आत्मग्लानि से भर जाते हैं, वह भी तो उसी मन का हिस्सा है जो क्रोध को उत्पन्न कर रहा है. यह तो ऐसी ही बात हो गयी जैसे कोई अपने दाएं हाथ को बाएं हाथ से रोके. जब तक भीतर यह समझ नहीं जागती कि सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही भावनाएं एक ही शक्ति से उपजती हैं, हम उनके पार नहीं जा सकते. ध्यान के द्वारा यही समझ विकसित होती है, शक्ति की आराधना से भी हम उस शक्ति का अनुभव कर लेते हैं और फिर जो भावना जब जगाना चाहें ,जगा सकते हैं. 


Monday, October 19, 2020

भीतर का शिव जागेगा जिस पल

 जीवन जब यांत्रिक होने लगता है, तब मन में एकरसता छा जाती है. प्रकृति नित्य नवीन रूप धर कर आती है, इसलिए सदा इतनी मनमोहक लगती है. मानव मन नित्य की एक सी दिनचर्या से  ऊब जाता है. उत्सव आकर इस एकरसता को तोड़ते हैं. विशेष तौर पर महामारी के इस काल में जब कहीं आना-जाना भी आशंकित कर देता हो तब घर में सुबह-शाम आरती के स्वर गूँजें, सात्विक किन्तु स्वादिष्ट भोजन बने और सुंदर पौराणिक कथाओं का पाठ हो तो हृदय में एक उल्लास का जन्म होना स्वाभाविक है. योग साधना के द्वारा पार्वती ने शिव को प्राप्त किया और पार्वती के प्रति प्रेम के कारण शिव सन्यासी का एकाकी जीवन त्यागकर गृहस्थ बने. इसका तात्विक अर्थ देखें तो पता चलता है योगसाधना के द्वारा मन आत्मा को प्राप्त करता है और आत्मा अकर्ता होता हुआ भी प्रेम के कारण भीतर से मन को निर्देशित करने वाला साथी बनने को तैयार हो जाता है. अभी हमारे भीतर शिव तत्व सोया हुआ है, निरपेक्ष है, जब मन की ऊर्जा सात्विक बनेगी, तब उस तत्व को जागना ही होगा और प्रेम व आनंद से मन भर जायेगा. नवरात्रि का पर्व भी भरत के अन्य पर्वों की तरह यही गूढ़ संदेश लेकर आता है.

Tuesday, October 13, 2020

ऊर्जावान बने जग सारा

 ऋतुओं के सन्धिकाल में नवरात्रि का उत्सव हर वर्ष आता है और वातावरण के प्रति हमारी सजगता को बढ़ाता है. वर्षा ऋतु का अंत हो रहा है और पतझर या शरद का आगमन है. हमारी महान संस्कृति में सामान्य जन को इस संक्रमण काल में सुरक्षित रखने के लिए ही वर्ष में दो नव-रात्रियों का विधान किया गया है. हमारा जीवन तभी सुचारूरूप से चल सकता है जब देह में प्राण शक्ति सबल हो. वर्षा ऋतु में जब सब तरफ सीलन और नमी भर जाती है, उसका असर शरीर व मन पर भी पड़ता है. हमारी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक ऊर्जा को सन्तुलित करने के लिए ही नौ दिनों के व्रत का विधान शास्त्रों में किया गया है. ग्रहों की स्थिति भी इन दिनों ऐसी होती है कि इन दिनों में किया गया ध्यान और साधन शीघ्र फलित होता है. देवी का हर रूप शक्ति का प्रतीक है, ऐसी शक्ति जो हमें जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है. सात्विक भोजन, नियमित जीवन शैली, स्वाध्याय और ध्यान का अभ्यास हमें न केवल आने वाली सर्दी की ऋतु के लिए ऊर्जा वान बना देगा बल्कि कोरोना जैसी महामारी से सुरक्षित रहने का सरल उपाय भी देगा. इन नौ दिनों में ब्रह्म मुहूर्त में उठकर प्रात: काल से ही हम शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्मांडा, स्कंद माता, कात्यायनी, काल रात्रि, महागौरी, सिद्धिरात्रि आदि नौ रूपों में देवी के एक- एक रूप का प्रतिदिन आह्वान करें और अपने भीतर उसकी उपस्थिति को ध्यान द्वारा अनुभव कर सकें तो नवरात्रि का उत्सव सही अर्थों में हम मनाएंगे. 


Monday, October 5, 2020

गगन सदृश हुआ मन जिस क्षण

 जीवन जिन तत्वों से मिलकर बना है, वे हैं पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश. तीन तत्व स्थूल हैं और दो सूक्ष्म. पृथ्वी, वायु व जल से देह बनी है, अग्नि यानि ऊर्जा है मन अथवा विचार शक्ति, और आकाश में ये दोनों स्थित हैं. शास्त्रों में परमात्मा को आकाश स्वरूप कहा गया है, जो सबका आधार है . परमात्मा के निकट रहने का अर्थ हुआ हम आकाश की भांति हो जाएँ. आकाश किसी का विरोध नहीं करता, उसे कुछ स्पर्श नहीं करता, वह अनन्त है. मन यदि इतना विशाल हो जाये कि उसमें कोई दीवार न रहे, जल में कमल की भांति वह संसार की छोटी-छोटी बातों से प्रभावित न हो, सबका सहयोगी बने तो ही परमात्मा की निकटता का अनुभव उसे हो सकता है. मन की सहजावस्था का प्रभाव देह पर भी पड़ेगा. स्व में स्थित होने पर ही वह भी स्वस्थ रह सकेगी. मन में कोई विरोध न होने से सहज ही सन्तुष्टि का अनुभव होगा. 


Thursday, October 1, 2020

सत्य, अहिंसा मूल धर्म के

 आज बापू का जन्मदिन है और शास्त्री जी का भी. वर्तमान पीढ़ी को इन दोनों महापुरुषों से बहुत कुछ सीखना है. दोनों का जीवन सादगी भरा था,  दिखावे और बनावट के लिए उसमें कोई स्थान नहीं था. पर्यावरण के प्रति इतना लगाव था कि आश्रम के बाहर बहती नदी के बावजूद गांधी जी थोड़े से पानी से अपना काम चलाते थे. लिखने के लिए कागज का पूरा उपयोग करते, यहां तक कि छोटे-छोटे पुर्जों पर भी लिखने में उन्हें संकोच नहीं होता था. मितव्ययता आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है, जब की देश और दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है, हमें अपने विलासिता पूर्ण खर्चों को घटाकर उनकी सहायता करनी चाहिए जिनके पास कुछ भी नहीं है या बहुत कम है. किसानों के प्रति दोनों के मन में सम्मान था, वे उन्हें अन्नदाता कहते थे. किसानों की आय बढ़े, वे शिक्षित हों तथा जमींदारों के चंगुल से बचें इसके लिए गाँधी जी ने बहुत काम किया. शास्त्री जी ने तो ‘जय किसान’ का नारा ही दिया था. हिंसा के इस दौर में भी गाँधी जी प्रासंगिकता बढ़ जाती है, वे मन, वचन, काया किसी भी प्रकार की हिंसा को पाप का मूल समझते थे. उनके जीवन में हास्य-विनोद का भी बहुत बड़ा स्थान था, वह कहते थे हँसी मन की गाठों को खोल देती है. वह मानव जीवन को एक बड़े उद्देश्य के लिए मिला हुआ अवसर मानते थे. उनका कहना था शिक्षा का काम है छात्र या छात्रा के अंदर छुपी सभी प्रकार की शक्तियों को बाहर लाना, जो शिक्षा ऐसा नहीं करती वह सफल नहीं है. बचपन से ही बालकों को चरित्र निर्माण की शिक्षा मिले जिससे वे जीवन में आने वाली किसी भी बाधा से घबराये नहीं, ऐसी शिक्षा के वह पक्षधर थे. आज के दिन हमें अपनी भावी पीढ़ी को उन आदर्शों और मूल्यों के बारे में बताना चाहिए जिसके लिए बापू और शास्त्री जी  ने अपना जीवन ही दे दिया.  


Wednesday, September 30, 2020

बुद्धम शरणं गच्छामि

 भगवान बुद्ध कहते हैं हमें धरती से सीखना चाहिए. चाहे मानव इस पर सुगन्धित द्रव्य डालें या दुर्गंधित कचरा कूड़ा, धरती बिना किसी राग-द्वेष के दोनों को स्वीकारती है. जब मन में अच्छे या बुरे विचार आएं तो किसी में  भी उलझना नहीं है, उनके गुलाम नहीं बनना है. हम जल से भी सीख सकते हैं, जल से जब गन्दे वस्त्रों या वस्तुओं को धोते हैं तो यह उदास नहीं होता. अग्नि पवित्र या अपवित्र दोनों पदार्थों को बिना किसी भेदभाव के जलाती है. हवा सुगन्ध या दुर्गन्ध दोनों को ही ग्रहण करती है. इन्हीं पांच तत्वों से हमारी देह बनी है. इसी प्रेममयी  करुणा से हमें क्रोध को जीतना है. यही करुणा बदले में बिना किसी मांग के दूसरों को ख़ुशी प्रदान करने का साधन हो सकती है. दयालुता से भरा आनंद  ही द्वेष को दूर कर सकता है. जब हम दूसरों की ख़ुशी में खुश होते हैं और उनकी सफलता चाहते हैं तभी यह आनंद हमारे भीतर पैदा होता है.

Monday, September 28, 2020

प्रकृति का सम्मान करे जो

 दुनिया में कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। मौत की खबर अब किसी को पहले की भांति नहीं कंपाती। मृत्यु एक संख्या बनकर रह गई है। मृत व्यक्तियों का अंतिम संस्कार भी कई बार अस्पताल द्वारा ही अजनबियों के हाथों कर दिया जाता है। सफेद बैगों में बंद वे तन अपनों के अंतिम स्पर्श व दर्शन से भी वंचित हो जाते हैं।कुछ दिन पहले उनके भीतर भी धड़कते दिल थे, उन्हें भी यकीन था कि कोरोना उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। वे भी शक्ति के एक पुंज थे और उसी अनंत स्रोत से आए थे।  मानव को अब जागकर देखना होगा कि  जीवित रहना कितना सरल है यदि वह हवा को मैला  न करे। मिट्टी से जुड़ा रहे. कीट नाशक दवाओं का अंधाधुंध प्रयोग न करे। दूध में रसायन न मिलाए। सब्जियों और फलों को इंजेक्शन न लगाए।  समुद्री जीवन हो या बर्फीले स्थानों के प्राणी और वनस्पति, कहीं भी मानव की नीतियों का गलत असर न हो। जीवन का स्रोत तो एक ही है, यदि प्रकृति के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार  होगा तो वह देख पाएगा जीवन कितना सुंदर है। झरनों का संगीत, वर्षा  की रिमझिम, हवाओं का स्पर्श, नदियों के तट की सुषमा सभी को अनुभव करके दैवी गुणों का विकास हो तो प्रकृति का शांत रूप ही प्रकट होगा। 


जीवन का जो मर्म जानता

 सृष्टि में प्रतिपल सबकुछ बदल रहा है. वैज्ञानिक कहते हैं जहाँ आज रेगिस्तान हैं वहाँ कभी विशाल पर्वत थे. जहाँ महासागर हैं वहाँ नगर बसते थे. लाखों वर्षों में कोयले हीरे बन जाते हैं. यहाँ सभी कुछ परमाणुओं का पुंज ही तो है. जीवन की धारा में बहते हुए ये सूक्ष्म कण कभी दूर तो कभी निकट आ जाते हैं. किन्तु जीवन नहीं बदलता, वह ऊर्जा है, सत्य है. सदा एक रस रहता हुआ वह इस प्रवाह को जानता है. वह साक्षी है और यह सारा विस्तार उसी से उपजा है. एक दिन उसी में लीन  होता है और पुनः नया रूप धर कर सृजित होता है. पदार्थ ऊर्जा में और ऊर्जा पदार्थ में बदलते रहते हैं. मानव इस बात को भुला देता है और सुख की तलाश में अपने हिस्से में दुखों का इंतजाम कर लेता है. जीवन का अर्थ उसके लिए क्या है ? जन्मना, बड़ा होना, वृद्ध होना और मर जाना, यही तो जीवन की परिभाषा है उसके लिए. उसकी आँख में उपजा हर अश्रु किसी अधूरेपन से उपजा  है. जब तक जीवन के वास्तविक रूप को नहीं जानता पूर्णता की यह तलाश जारी रहती है.

Thursday, September 24, 2020

जिसने उसको जान लिया है

 परमात्मा को जानने का क्या अर्थ है ! परमात्मा इस सृष्टि का नियन्ता है पर उसका दावा नहीं करता. वह इसका पालक है पर इसका अभिमान नहीं करता. वह इसका विनाशक है पर इसका दुःख नहीं करता. उसका भक्त क्या वही नहीं होगा जो किसी भी कृत्य का अभिमान न करे, किसी भी वस्तु पर अपना दावा न करे और किसी भी हानि पर दुःख न करे. परमात्मा के लिए सब समान हैं, वह सभी के भीतर आत्म रूप से विद्यमान है. उसका चाहने वाला भी भेदभाव से मुक्त होगा और प्रेम रूप में सबके भीतर स्वयं को पायेगा. परमात्मा सत्य है, चेतन है और आनंद स्वरूप है, उसको वही पा  सकता है जो सत्य पथ का पथिक हो, जिसने अपने भीतर चेतना को बढ़ा लिया हो और जो हर स्थिति में प्रसन्न रहता हो. 


Tuesday, September 22, 2020

दिल का जो रखेगा ध्यान

 हम सुबह से शाम तक न जाने कितनी अच्छी बातें पढ़ते और सुनते हैं. व्हाट्सएप पर  ही जीवन को सुंदर बनाने के लिए संदेश भेजते और प्राप्त करते हैं, किन्तु अपने में व आस-पास अपेक्षित बदलाव नजर नहीं आता. मन सूचनाओं को एकत्र कर लेता है और सोचता है उसे आवश्यक जानकारी हो गयी. इस तरह हमें जानने का अहंकार बढ़ जाता है पर भीतर का वातावरण वैसा ही रहता है. आज ही एक सन्देश पढ़ा, “हृदय एक ऐसी मशीन है जो बिना रुके जीवन भर चलती रहती है, इसे प्रसन्न रखें, यह चाहे अपना हो या दूसरों का”. हृदय प्रसन्न रहे इसके लिए सबसे जरूरी है कि हम सहजता में रहें, सबके साथ सामंजस्य बना कर समझदारी से आगे बढ़ें. किसी भी प्रकार का दुराग्रह या दूसरों का विरोध हमारे हृदय पर असर डालने ही वाला है. हृदय की गहराई में प्रेम और सहृदयता की जो भावनाएं सुप्त हैं, उन्हें जगाएं तो अन्यों के हृदयों को भी सहज ही प्रसन्न रख सकेंगे.

Wednesday, September 16, 2020

खो जायेगा छोटा मन जब

 महामारी  के इस काल में सब कुछ अनिश्चतता के दौर से गुजर रहा है. एक भय और असुरक्षा की भावना पहले से बढ़ गयी लगती है. ऐसे में अध्यात्म का आश्रय लेकर हम सहज ही अपने मन को तनाव से मुक्त रख सकते हैं. ‘मैं’ और ‘मेरा’ के सीमित दायरे से निकाल कर अध्यात्म हमें औरों के प्रति संवेदनशील होना सिखाता है. तनाव होता है स्वयं के बारे में सोचते रहने से, यदि हम अपनी सोच में बदलाव ले आएं और यह विचारें कि क्या इस दौर में हम अन्यों की किसी भी तरह की मदद कर सकते हैं, तो हमें अपनी चिंता करने का समय ही नहीं मिलेगा. जिस परम शक्ति ने इस विराट सृष्टि का निर्माण किया है, उसके प्रति समर्पण करने से भी मन भय मुक्त हो जाता है. सुबह और शाम आधा घण्टा ध्यान करने से भी हम मन में स्थिरता और शांति का अनुभव कर सकते हैं. ध्यान हमें ऊर्जावान बनाता है, हमारा छोटा मन विशाल मन के साथ जुड़ कर गहन विश्राम का अनुभव कर सकता है, जो मन के साथ-साथ तन को भी स्वस्थ रखने में सहायक है. 

Tuesday, September 15, 2020

दिव्य चेतना जिसमें जागे

 संत कहते हैं दिव्यता मानव का स्वभाव है. जीवनी शक्ति दिव्य है, पंच तत्व दिव्य हैं तो फिर उनसे सृजित यह मानव भला दिव्य क्यों नहीं होगा. वैज्ञानिक भी कहते हैं यह सारा विश्व तरंगित है, एक ही ऊर्जा है जो विभिन्न प्रकार से व्यक्त हो रही है. इसका अर्थ हुआ उस परम की चेतन शक्ति ने स्वयं को व्यक्त करने के लिए अनेक नाम और रूप धारण किये हैं. इस जगत का जो भी मूल है वह शक्ति के माध्यम से प्रकट हो रहा है यह बात जब पहले-पहल किसी ऋषि ने जानी होगी,  तभी उसे अपनी दिव्यता का अनुभव हुआ होगा. ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा साधक अपनी उसी दिव्य चेतना से जुड़ सकता है और जगत में रहते हुए भी जगत उसे प्रभावित नहीं कर पाता। जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति से अग्नि को कोई हानि नहीं पहुँचती, इसी तरह चैतन्य को उसकी शक्ति प्रभावित नहीं कर सकती. साधना का लक्ष्य उस शक्ति को जगाना है, उसे जानकर ही उसके पर जाया जा सकता है.

Monday, September 14, 2020

हिंदी दिवस पर आप सभी को शुभकामनायें


प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रंश से ब्रज, अवधी व मैथिली आदि विभिन्न रूपों में परिवर्तित होती हुई हिंदी को आज हम जिस रूप में देखते हैं, उसको यहां तक पहुँचाने में हिंदी भाषा के कवियों  का बहुत बड़ा योगदान है. कबीर, रैदास, सूर, मीरा, तुलसी,  बिहारी, भारतेंदु हरिश्चंद्र से होती हुई हिन्दी की यह धारा मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी वर्मा और उनके बाद दिनकर, अज्ञेय, भवानीप्रसाद मिश्र, मुक्तिबोध, नीरज, तथा रघुबीर सहाय जैसे अनेकानेक रचनाकारों के काव्य सृजन से विकसित होती आ रही है. हिंदी कविता के इस विशाल भंडार के प्रति आज की पीढ़ी कितनी सजग है और उससे कितना ग्रहण कर सकती है इस पर ही हिंदी के  भविष्य को आंका जा सकता है. आज आवश्यकता है हम अपनी साहित्यिक धरोहर का सम्मान करें, उसमें से कुछ मोती चुनें और उनकी प्रतिभा से चमत्कृत होकर अपने भीतर सुप्त पड़ी काव्य चेतना को जगाएं.  


Friday, September 11, 2020

सत्यम परम अनंतं ज्ञानम

  अद्वैत के ग्रन्थों में रज्जु और सर्प का उदाहरण दिया जाता है. अँधेरे में हम रस्सी को सांप समझ लेते हैं और व्यर्थ ही भयभीत हो जाते हैं. प्रकाश होने पर जब ज्ञान होता है तो खुद पर ही हँसी आती है. इसी तरह चमकती हुई सीपी को देखकर चाँदी का व पीतल में स्वर्ण का भ्रम भी हो सकता है.  जीवन में हम मोह को प्रेम समझ लेते हैं. मोह से होने वाले दुःख को अनुभव करते हैं तब लगता है  प्रेम  दुखदायी है, जब ज्ञान होता है तभी समझ में आता है यह प्रेम था ही नहीं. प्रेम तो एक विशुद्ध भावना है, इसमें समर्पण है, हम अन्यों पर अधिकार चाहते हैं और उन्हें झुकाना चाहते हैं. देह, मन, बुद्धि  को आत्मा समझ लेते हैं और इनके रोगी होने या मिटने पर दुखी होते हैं, जबकि शाश्वत तो केवल आत्मा है, देह तो मरणशील है ही. धीरे-धीरे अद्वैत का सिद्धांत हमें इस सत्य की ओर ले जाता है कि जिसे हम जगत समझ रहे हैं वह परमात्मा ही है. परमात्मा सत्य, अनंत, ज्ञान और परम है, यह सृष्टि भी अनादि काल से है. परमात्मा को हम अनुभव कर सकते हैं, उसे पा नहीं सकते वह कभी भी वस्तु बनकर हमें नहीं मिल सकता, वैसे ही यह जगत कभी पकड़ में नहीं आता. न वस्तु शाश्वत है, न पकड़ने वाला ही. यह उस बाजार की तरह है जिसमें से हमें इसकी शोभा देखते हुए गुजर भर जाना है.   


Thursday, September 10, 2020

दुःख से जो भी चाहे मुक्ति

 जीवन से परिचय पाना हो तो नींद से जागना होगा. एक नींद तो वह है जो हम रात्रि में विश्राम के लिए लेते हैं और सुबह जाग जाते हैं, एक और नींद है जो हम अधूरे ज्ञान की चादर ओढ़ कर ले रहे हैं. हमारी छोटी सी बुद्धि इस अनंत सृष्टि के एक कण का राज भी नहीं जानती पर उसे लगता है वह सब कुछ जानती है. एक छोटा सा उपकरण भी हो उसके साथ एक किताब आती है जो उसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी देती है, पर अफ़सोस की इस  देह, मन, बुद्धि के साथ कोई पुस्तक नहीं आती. हम जितना ज्ञान किताबों से और बड़ों से, विद्यालय से प्राप्त कर लेते हैं, सोचते हैं उतना इसे चलाने के लिए पर्याप्त है. एक दिन ऐसा आता है जब अपनी ही देह रोगी होकर, मन उदास होकर, बुद्धि भ्रमित होकर हमारे दुःख का कारण बन जाते हैं. इसका अर्थ हुआ कि हमारे ज्ञान में कुछ तो कमी है, ऐसे में किसी सदगुरू का जीवन में पदार्पण अथवा सन्त वाणी का श्रवण ही उस ज्ञान से हमारा परिचय कराता है जो हर दुःख से मुक्त कराके सुख की सौगात देता है. 


Monday, September 7, 2020

शुभ पथ का जो भी राही है

 महाभारत  युद्ध के पश्चात युधिष्ठिर भीष्म पितामह से ज्ञान प्राप्त करने जाते हैं, जो शरीर शय्या पर लेटे हुए उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थे. एक प्रश्न में उन्होंने मोक्ष प्राप्ति का उपाय पूछा. भीष्म जी बोले - जो मार्ग पूर्व की तरफ जाता है, वह पश्चिम की ओर नहीं जा सकता. इसी प्रकार मोक्ष का भी एक ही मार्ग है; सुनो, इस मार्ग के पथिक को चाहिए कि क्षमा से क्रोध का, संकल्प त्याग से कामनाओं का, सात्विक गुणों से अधिक निद्रा का, अप्रमाद से भय का, आत्मा के चिंतन से श्वास की अस्थिरता  का, धैर्य से द्वेष का नाश करे. शास्त्र और गुरु वचनों के द्वारा भ्रम, मोह और  संशय  रूप आवरण को हटाये. ज्ञान के अभ्यास से अपने लक्ष्य को विस्मृत न होने दे. रोगों का हितकारी, सुपाच्य और परिमित आहार से, लोभ और मोह का सन्तोष से तथा विषयों का एक तत्व के ध्यान से नाश करे. अधर्म को दया से, आशा को भविष्य चिंतन का त्याग करके, और अर्थ को आसक्ति के त्याग से जीते. वस्तुओं की अनित्यता का चिंतन करके मोह युक्त स्नेह का, योगाभ्यास से क्षुधा का, करुणा के द्वारा अभिमान का और सन्तोष से तृष्णा का त्याग करे. यही मोक्ष का शुद्ध और निर्मल मार्ग है. 


Sunday, September 6, 2020

ॐ भूर्भुवः स्वः

 हम सभी गायत्री मन्त्र का पाठ करते हैं और उसके महत्व को स्वीकार करते हैं. कई बार सामूहिक रूप से उस गाते भी हैं. गायत्री मन्त्र  से होने वाले लाभ और प्रभाव का भी वर्णन एक-दूसरे से करते हैं.  किन्तु इसके वास्तविक अर्थ से सम्भवतः हममें से अधिक लोग परिचित नहीं हैं. अर्थ की भावना करके यदि कोई प्रार्थना की जाती है तो उसका प्रभाव मन, बुद्धि के साथ पूरे स्नायुतंत्र पर पड़ता है. ॐ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। ॐ परमेश्वर का एक नाम है. भू: अर्थात जो जगत का आधार, प्राणों से प्रिय व स्वयंभू है. भुवः- सब दुखों से छुड़ाने वाला. स्व: - जो सुखस्वरूप है और अपने उपासकों को भी सुख देने वाला है. तत्सवितु- वह जगत का प्रकाशक और ऐश्वर्य प्रदाता. वरेण्यम - ग्रहण करने योग्य अति श्रेष्ठ. भर्गो- सब दुखों को नष्ट करने वाला. देवस्य- कामना करने योग्य, विजय दिलाने वाला. धीमहि - धारण करें. य: जो सूर्य देव परमात्मा. न :- हमारी. धिय :- बुद्धि. प्रचोदयात- उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव में प्रेरित करें. एक साथ यदि सम्पूर्ण मन्त्र का अर्थ देखें तो कुछ इस प्रकार होगा - जो परमेश्वर, स्वयंभू है, सबका प्रिय है, अतिश्रेष्ठ है, सब दुखों को दूर करने वाला है, वह प्रकाश रूप परमात्मा हमारी बुद्धि को सत्कर्मों की तरफ ले जाये.  


Wednesday, September 2, 2020

सजग हुआ जो भीतर देखे

 संकल्प से ही सृष्टि का निर्माण होता है. सृष्टि परमात्मा की सुंदर कल्पना है. प्रकृति का सौंदर्य जहाँ-जहाँ अक्षुण्ण है, वहां देवों का वास है. मानव ने जिसे कुरूप कर दिया है वहाँ दानव बसते हैं. मन जब सुकल्पना के प्रांगण में विचरता है, मोर की तरह नृत्य करता प्रतीत होता है, उसके सौंदर्य की झलक भी मन में मिलती है. मोर जिनकी सवारी है वह देव क्या स्वतः ही वहां प्रकट नहीं हो जाते होंगे. जहाँ मन चिंताओं और कटुता  से भर जाता है, भूत-प्रेत वहाँ अड्डा जमा लेते हैं. सुंदर कल्पनाएं और भाव आत्मा की ही शक्ति है. भाषा का जन्म आत्मा की गहराई में होता है फिर शब्दों का चुनाव मन पर निर्भर करता है. वहां क्रोध भी है और करुणा भी, वहां असजगता भी है और जागरूकता भी. साधक को भीतर जाकर देखना होगा और चुनना होगा करुणा को अपने लिए , छोड़ देना होगा क्रोध. अनेक जन्मों में उसे ही तो चुना था और अपने लिए कर्मों का जाल बुना था. 


Sunday, August 30, 2020

मन तू ज्योतिस्वरूप है अपना मूल पहचान

 जैसे एक असत्य को छिपाने के लिए किसी को हजार असत्यों का सहारा लेना पड़ता है, पर एक न एक दिन वह झूठ पकड़ा ही जाता है.  मानव स्वयं को झूठमूठ ही देह मानता है फिर इसके इर्दगिर्द सुरक्षा के कितने प्रबन्ध करता है, पर एक न एक दिन आत्मा का  पंछी उड़ जाता है. मृत्यु के बाद ही उसे सत्य का भास होता है कि वह देह नहीं था, झूठ पकड़ा जाता है पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. जैसे मकड़ी स्वयं ही जाल बुनती है और कभी-कभी स्वयं ही उसमें फंस जाती है, मन उन घटनाओं का सृजन करता है जो अभी घटी ही नहीं. कंप जाता है सोच-सोचकर ही. हवामहल बनाता है जिनका अस्तित्त्व ही नहीं, मन अपने ही विचारों के जाल में उलझ जाता है. जिसे चिकित्सक अवसाद कहते हैं. मन यदि जान ले वह मात्र उपकरण है प्रकृति का बनाया हुआ और जब उसकी जरूरत है उसे काम में लेना है, तो व्यर्थ की भाग-दौड़ से बच जायेगा. उहापोह और उधेड़बुन तब कहानियों में लिख शब्द ही रह जायेंगे. मन यदि जान ले कि वह वरदान की ऊर्जा पर पलता  है, आत्मा की ऊर्जा से ही वह पल में मीलों तक चलता है तो कभी-कभी शुक्रिया कहने हेतु हाथ तो जोड़ेगा. आँख तो उठाएगा उस ओर और उस क्षण भर के विश्राम में ही उसे प्रेम और आनंद के स्रोत की झलक मिलेगी, जो उसका मूल है.    


Friday, August 28, 2020

मध्य में टिकना जो भी जाने

 ज्ञानीजन कहते हैं, सदा वर्तमान में रहो. अतीत जा चुका और भविष्य अभी आया नहीं है, फिर क्यों अपनी ऊर्जा को  उन बातों को याद करने में गंवाए जो हमारे वर्तमान जीवन को सुंदर बनाने में जरा भी काम नहीं आ सकतीं. अतीत से हमें सीख अवश्य लेनी है और वह हमारा मन उसी वक्त ग्रहण कर लेता है जब वह घटना विशेष घटी थी. इस समय का एक-एक पल हमारे भविष्य को गढ़ने वाला है और यही हमारे हाथ में है. विपासना ध्यान में जब हम श्वास को देखते हैं तो जाती हुई श्वास अतीत बन गयी, अगली अभी आयी नहीं है उस मध्य काल में यही कोई पल भर के लिए भी टिक जाता है तो उसकी बाहर जाने वाली श्वास सहज और शांत हो जाती है. ऐसे ही आज का दिन बीत गया, मध्य में रात्रि है यदि वह पूर्ण विश्राम देती है तो अगले दिन हम प्रफ्फुलित रह सकते हैं. इसी तरह वार्तालाप में यदि एक व्यक्ति ने अपनी बात कह दी और हम पल भर के लिए रुक गए तो उसका जवाब सही और स्थिरता के साथ दे पाएंगे. यदि हम उसकी बात में ही अटक गए या पहले ही अपना जवाब तय कर लिया तो हमारा उत्तर सन्तुलित नहीं हो सकता. भगवान बुद्ध का मध्यम मार्ग भी यही सिखाता है कि हमें मध्य में ठहरने की कला सीखनी है. 


Wednesday, August 26, 2020

स्वस्थ रहेगा तन, मन जिसका

 भूमि की गहराई में जल, तेल तथा अन्य बहुमूल्य पदार्थ छिपा होता है, जिसे गहरी खुदाई करके निकाला जाता है, वैसे ही शरीर की गहराई में आत्मा की अनंत शक्ति छिपी है जिसे उजागर करने पर स्वास्थ्य सहज ही मिलता है. कमरे की  खिडकियों पर यदि भारी पर्दे लगे हों तो कमरे में प्रकाश मद्धिम सा ही दीख पड़ता है वैसे ही यदि मन पर प्रमाद छा जाये तो आत्मा की शक्ति ढक जाती है व तन अस्वस्थ हो जाता है. किसी संस्थान को सुचारू रूप से चलाने के लिये अनुशासन बहुत जरूरी है वैसे ही शरीर रूपी संस्थान ठीक रहे इसके लिये सोने, जागने, व्यायाम, भोजन का अनुशासन बहुत जरूरी है. कार के भीतर ड्राइवर स्टीयरिंग पर से कंट्रोल छोड़ दे तो दुर्घटना होगी ही वैसे ही तन रूपी रथ की सारथी बुद्धि, मन रूपी घोड़े को खुला छोड़ दे, भोजन, नींद, व्यायाम में संयम, तथा सही मात्रा व सही समय का ध्यान न रखे तो हम स्वस्थ कैसे रह सकते हैं. प्रकृति में एक गति है, लय है, रात-दिन तथा ऋतु परिवर्तन उसी लय के अनुसार होते हैं वैसे ही तन, श्वास तथा मन में भी एक लय है जिसके बिगड़ने पर रोग हो सकते हैं. शरीर के भीतर स्वयं को स्वस्थ रखने का पूरा प्रबंध है बस उसे हमारा सहयोग चाहिए. जरूरत से ज्यादा उसे थकाएं भी नहीं और आराम भी न दें. नम वातावरण में, गीले मौसम में ठंडी चीजें नुकसान करती हैं, इनसे दूर ही रहें. हम रेल यात्रा करने जाएँ तो हमारी सीट, कूपा तथा सहयात्री सभी पहले से तय होते हैं वैसे ही जीवन यात्रा में हमें जहाँ-जहाँ जो मिलेगा वह पूर्व निर्धारित है, हम रेल यात्रा को सुखद बनाना जानते हैं, वैसे ही सही दृष्टिकोण रखकर हम जीवन यात्रा को सुखद बना सकते हैं.


Tuesday, August 25, 2020

मुक्ति का जो स्वाद चखेगा

 मुक्ति कौन नहीं चाहता ? मुक्ति पुरानी आदतों से, व्यर्थ के खोखले विश्वासों तथा पूर्वाग्रहों से ! मुक्ति की कल्पना ही मन को पंख लगा देती है. मुक्त हृदय कितना शांत हो सकता है, कितना पवित्र और कितना सामर्थ्यवान. उसमें सब कुछ करने की शक्ति आ जाती है, बंधन मुक्त को दुःख कहाँ? लेकिन सारी सीमाएं, दायरे, बंधन और गुलामी की जंजीरें क्या हमारी खुद की ईजाद की हुई नहीं हैं? आदर्श से आदर्श स्थिति में भी हम अपने हृदय को नीचे गिरा लेते हैं. दुःख की कल्पनाएँ, भविष्य के प्रति आशंका, साथ ही द्वेष, कटुता और इन सबसे बचे भी रहे तो दूसरों को सुधारने का लोभ...यही सब मन को नीचे गिराता है. हम अन्यों से तो अपेक्षाएँ करते हैं पर स्वयं उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरे या नहीं, इसका ध्यान नहीं रखते. इस सुंदर जगत की सुंदरता को नकार कर केवल कमियों पर नजर डालना कहाँ तक उचित है. संसार में रहते हुए भी यदि मन को मुक्त रखना आ जाये तो अंतर्मन से रस का स्रोत कभी सूखेगा नहीं.


Thursday, August 20, 2020

ध्यान का फूल खिले जीवन में

 ध्यान हमें सिखाता है कि मन व्यर्थ के संकल्प-विकल्प करके अपनी ऊर्जा न गंवाए. नकारात्मक विचारों का दुष्प्रभाव शरीर और मन दोनों पर ही होता है जो बाद में रोग का रूप ले सकता है. ध्यान में हम मन के साथ अपने तादात्म्य को तोड़ते हैं और उसे निर्देशित करने में संभव होते हैं. इससे हम अपने विचारों के प्रति सजग हो जाते हैं और मन में स्पष्टता का अनुभव होता है. ध्यान के बाद एकाग्रता बढ़ जाती है जिसका अच्छा प्रभाव हमारे सभी कार्यों पर पड़ता है. ध्यान हमारे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बढ़ाता है. देह को स्वस्थ रखने के लिए जैसे व्यायाम आवश्यक है वैसे ही मन को स्वस्थ रखने के लिए मन का पूर्ण विश्राम आवश्यक है, जो ध्यान में ही मिल सकता है.

Wednesday, August 19, 2020

जब आवे सन्तोष धन

 जीवन एक रहस्य है. अरबों-खरबों नक्षत्र और सृष्टि का अनंत विस्तरित रूप इसे रहस्यमय बनाता है. प्रकृति का स्रोत क्या है, कैसे एक नन्हा सा बीज विशाल बरगद का वृक्ष बन जाता है, कैसे ऋतु आने पर अपने आप ही धरती में दबे हुए हजारों बीज अंकुरित हो जाते हैं. बुद्धि से इसे समझना बहुत कठिन है. मन में हजारों संकल्प उठते हैं, इनका क्या स्रोत है. विचार उठकर कहाँ खो जाते हैं. इस क्षण इस पृथ्वी पर अरबों मनों में विचार उठ रहे होंगे, इस अनन्त ऊर्जा का स्रोत भी एक रहस्य है. मन में इच्छा जगती है और हम उसके अनुसार कर्म करते हैं, यदि यह इच्छा स्वयं को जानने की इच्छा बन जाये तो सम्भवतः अपने स्रोत का अनुभव मन कर सकता है. ध्यान में यही होता है. यदि कोई जीवन भर जगत की ही इच्छा करता रहे तो उसे जगत ही मिलेगा, यदि परमात्मा की इच्छा जगे तो जीवन में उस रहस्यमय का पदार्पण होगा. सन्तुष्टि का इसलिए इतना महत्व है, जब मन बाहर से सन्तुष्ट हो जाये तभी तो वह भीतर की और मुड़ेगा. 


Tuesday, August 18, 2020

स्व के भाव को जानेगा जो


योग और अध्यात्म का आश्रय लेकर ही हम देह और मन को स्वस्थ व प्रसन्न  रख सकते हैं. योग का अर्थ है जुड़ना, स्वंय  का इस सम्पूर्ण अस्तित्त्व के साथ जुड़ाव ही योग है. पतंजलि के अष्टांग योग की साधना के द्वारा इसे अनुभव किया जा सकता है, किन्तु ‘स्वयं’ का सही परिचय हमें अध्यात्म से प्राप्त होता है. शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अध्ययन करके अपने स्व को पहचानना ही अध्यात्म है. देह एक निश्चित आयु पूर्ण करके मिट्टी में मिल जाने वाली है. मन अधूरी कामनाओं को लेकर एक नए शरीर में प्रवेश करने वाला है, किन्तु स्व अथवा निजता को जिसने जान लिया वह जन्म और मृत्यु के इस चक्र से बाहर हो जाता है. वह होश में मरता है और होश में ही नयी देह धारण करता है, ऐसे ही मानव जन्म से संत अथवा सिद्ध होते हैं. शास्त्र और संत कहते हैं मृत्यु से पहले जिसने अपने आपको जान लिया, उसने उस कार्य को सिद्ध कर लिया जिसके लिए उसे मानव देह मिली थी.  


Sunday, August 16, 2020

जीवन चलने का नाम

 जीवन प्रतिपल बदल रहा है. यहाँ जो स्थित है वह पर्वत भी रेत बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है आज नहीं कल वह भी बिखरेगा और आज जहाँ पहाड़ों की हरी-भरी घाटियाँ हैं लाखों वर्ष बाद ही सही, वहाँ मरुथल नजर आ सकते हैं. हम कहने को कहते हैं कि सेटल हो गए हैं पर यह मात्र शब्द ही है. जीवन किसी को कभी भी सेटल होने का अवसर नहीं देता, या तो आगे या पीछे उसे चलना ही होता है. जिंदादिल कहते हैं जीवन निरन्तर आगे बढ़ने और सीखने का नाम है. वहीं निराशावादी कहते हैं जीवन एक संघर्ष है, पीड़ा है, अन्याय है, वे हार कर बैठ जाते हैं, पर मिटते वह भी जाते हैं. जिनके लिए जीवन एक चुनौती है, वह हर कदम पर उसके पीछे छिपी आनंद लहर में भीगने का राज सीख लेते हैं. वह स्वयं को विकसित करते हैं, उनके लिए आकाश ही सीमा है. यहाँ ज्ञान भी अनंत है और उसे प्राप्त करने की क्षमता भी असीम है. परमात्मा अपनी माया से इस जगत की सृष्टि निरन्तर करता है, आज भी वैज्ञानिक नयी-नयी प्रजातियों की खोज कर रहे हैं, नए ग्रहों का निर्माण भी जारी है. मानव कभी भी इस सृष्टि के ज्ञान को चुका नहीं सकता. वह स्वयं इस सृजन का भाग बन सकता है, लघु स्वार्थ को तजकर यदि कोई अपना दृष्टिकोण व्यापक कर ले तो जगत स्वयं आनंद का एक स्रोत बन जाता है. 

Wednesday, July 22, 2020

सार-सार को गहि रहे

कोरोना का कहर जारी है. पूरा विश्व इस कठिन दौर से गुजर रहा है. साथ ही कहीं बाढ़, कहीं भूकम्प तो कहीं बादल फटने या बिजली गिरने जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी मानव की परीक्षा ले रही हैं. इसी आपदकाल में कहीं युद्ध के अभ्यास भी चल रहे हैं, आतंकवाद भी जारी है और राजनीतिज्ञ भी अपनी चालों से बाज नहीं आ रहे हैं. यानि ऊपर-ऊपर से लगता है, दुनिया जैसी चल रही है उसमें किसी का भला होता नहीं दीख रहा. किन्तु सिक्के का दूसरा पहलू भी है, लोग एक दूसरे के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो रहे हैं, परिवार जो वर्षों से अलग अलग थे एक छत के नीचे रह रहे हैं. घर से काम करने से ट्रैफिक की समस्या घट गयी है, सड़क दुर्घटनाएं बन्द हो गयी हैं. प्रदूषण बहुत कम हो गया है.  वातावरण शुद्ध हो रहा है. बच्चों पर पढ़ाई का दबाव नहीं है, वे बुरी संगत से बच रहे हैं. बाहर खाना खाने  की प्रथा बढ़ती जा रही थी, उसकी बजाय लोग घर पर पारंपरिक भोजन बना रहे हैं. योग साधना का समय मिल रहा है. जीवन के प्रति सजगता बढ़ रही है. प्रकृति को शायद विश्राम चाहिए था इसलिए वह फल-फूल रही है. नदियां साफ हो गयी हैं. हवा शुद्ध हो गयी है. क्यों न हम सकारात्मकता का दामन पकड़ें और इस समय को गुजर जाने दें. 

Tuesday, July 21, 2020

दृष्टि मिले जब हमें ध्यान की


किसी भी वस्तु को ठीक से देखने के लिए एक समुचित दूरी पर रखना होता है. आँख के बहुत नजदीक रखी वस्तु भी नजर नहीं आती और बहुत दूर रखी वस्तु भी. जीवन भी कुछ ऐसा ही है जब हम उसमें इतना घुस जाते हैं तब चीजें धुंधली होने लगती हैं और जब उससे दूर निकल जाते हैं तब वह हमारे हाथ से फिसलता हुआ नजर आता है. कभी अतीत के स्वप्न हमें वर्तमान से दूर ले जाते हैं तो कभी भविष्य की व्यर्थ आशंका हमारी ऊर्जा को बहा ले जाती है. ध्यान ही हमारे भीतर वह दृष्टि पैदा करता है जिससे जीवन जैसा है वैसा नजर आता है. वर्तमान के क्षण में जब मन टिकना सीख जाता है तभी वह अस्तित्त्व से प्राप्त अपार क्षमता को देख पाता है. यह ऐसा ही है जैसे कोई आँखें बंद करके कमरे से बाहर निकलने का प्रयास करे और दरवाजे के निकट आते ही अपना मुख मोड़ ले और विपरीत दिशा में चलने लगे. यदि ऐसा हर बार होने लगे तो वह यह निर्णय कर लेगा इस कमरे में दरवाजा है ही नहीं. ऐसा व्यक्ति जीवन के मर्म से वंचित ही रह जाता है. 

Sunday, July 19, 2020

कोरोना से जो बचना चाहे


वर्तमान समय, जीवन जब एक तरफ कोरोना के कारण आपदा में घिरा है तो दूसरी ओर मानवीय शक्ति और क्षमता को परखने का स्वर्ण काल भी है. जीवन को किस तरह बचाएं इसके लिए दुनिया भर में वैज्ञानिक शोध कार्य कर रहे हैं. कम साधनों में किस तरह जीवन चलाएं इसके प्रति भी लोग सजग हो रहे हैं. भौतिकता को त्याग सादा जीवन उच्च विचार की परिपाटी पर चलने का समय भी यही है. कितने ही व्यवसाय बन्द हो चुके हैं, साथ ही कार्य के नए - नए क्षेत्र भी खुल रहे हैं. निराश होकर उदास होने का समय नहीं है, यह सजग और सतर्क रहकर जीवन को इस प्रकार जीने का समय है कि कम से कम ऊर्जा की खपत हो और अधिक से अधिक साधन बचाये जा सकें. वैज्ञानिकों की मानें तो कोरोना काल अभी लम्बा खिंचने वाला है. देश को अधिक दवाइयों, स्वास्थ्यकर्मियों व अस्पतालों की जरूरत होगी, साथ ही देशवासियों को अधिक मनोबल और मानसिक शक्ति की भी जरूरत होगी. नियमित जीवनशैली अपना कर, जिसमें योग, ध्यान हो, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले आहार हों तथा समाज व देश के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाने की ललक हो तो हम इस विपदा काल में भार नहीं बनेंगे बल्कि भार वाहक बन सकते हैं. 

Saturday, July 18, 2020

सत्यं शिवं सुंदरं


ईश्वर को सत्य, शिव और सुंदर नाम दिए गए हैं, इसका अर्थ हुआ जो सत्य है वही कल्याणकारी है और वही सुंदर है. व्यवहारिक जीवन में भी हम इन तीनों तत्वों के महत्व और उपयोगिता को नित्यप्रति अनुभव करते हैं. असत्यभाषी पर कोई विश्वास नहीं करता, जो अपनी बात पर कायम नहीं रहता ऐसे व्यक्ति को जीवन में असफलता ही हाथ लगती है. सौंदर्य के प्रति हर मानव के भीतर सहज ही आकर्षण होता है. सुंदरता किसे नहीं भाती। शिशु के मुखड़े पर छायी मुस्कान उसकी आंतरिक सुंदरता को दर्शाती है, धीरे-धीरे रोष, लालसा, दुःख आदि के भाव भी चेहरे पर झलकने लगते हैं और एक वयस्क व्यक्ति का चेहरा वैसा सहज और सुंदर नहीं रह जाता. संतों के चेहरे पर वृद्धावस्था में भी एक अलौकिक सौंदर्य दिखाई देता है. नन्हा बालक सत्य में स्थित होता है, अभी उसे असत्य का बोध ही नहीं. सन्त सदा जगत के कल्याण की बात करते हैं, इसीलिए दोनों में सौंदर्य के दर्शन होते हैं। 


Friday, July 17, 2020

तीन गुणों का जो साक्षी


भगवद्गीता में कृष्ण ने कहा है, गुण ही गुणों में वर्तते हैं. हम अपनी सात्विक, राजसिक, तामसिक प्रकृति के अनुसार कर्मों को करते हैं. यही गुण हमारे कर्मों का कारण बनते हैं और हम स्वयं को कर्ता मानकर उनके द्वारा प्राप्त सुख-दुःख का भोग करते रहते हैं. यह क्रम जाने कब से चलता आ रहा है. अंतर्मुखी होकर जब साधक इस सत्य को देखता है तो गुणातीत होने की तरफ उसके कदम बढ़ते हैं. जब साक्षी भाव बढ़ने लगता है तो वह गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता. यदि तमस के कारण भीतर प्रमाद है तो वह उसके वश में नहीं होता, मन यदि चंचल है तो यह जानकर कि रजोगुण बढ़ा हुआ है वह ध्यान का प्रयोग करता है. सत्व में स्थित होने पर शांति का भी भोक्ता नहीं बनता बल्कि स्वयं को सदा ही अलिप्त देखता है. 

Thursday, July 16, 2020

मन को तारे मन्त्र वही है

निशब्द परमात्मा तक पहुंचने के लिए शब्दों की एक नाव बनानी पडती है, पर अंततः शब्द भी छूट जाते हैं क्योंकि वह शब्दातीत है. मंत्र इसी नाव का नाम है. हमारे मन में असीम सामर्थ्य है जो हम चाहें उसे वह अनुभूत करा सकता है. मन की वृत्ति या विचार में यदि ईश्वर का नाम हो,  तो वही प्रगट होगा. यह जप सतत बना रहे तो इष्ट हमारे मन का स्वामी बन जाता है, उसी का अधिकार हृदय पर हो जाता है और इसके बाद समता स्वयं ही प्राप्त हो जाती है. यदि बाहर कोई भी विपरीत परिस्थिति आती है और मन विचलित होता है तो मन्त्र का स्मरण तुरन्त सहज अवस्था में पहुँचा देता है.  मन में जो नकारात्मक विचार आयें उन्हें ठहरने न देना और जो सकारात्मक विचार आयें उन पर ही ध्यान केंद्रित करना साधक के लिये सहज हो जाता है. 

Tuesday, July 14, 2020

जीवन का जो पाठ पढ़ेगा

जीवन एक पाठशाला ही तो है, यहाँ हर दिन, हर किसी को, कोई न कोई परीक्षा देनी होती है. जब कोई देख न रहा हो तब भी कोई देखता है कि जब करुणा दिखाने का वक्त था तो हम कितने उदार थे. अचानक कोई विपदा आ पड़ी तो हमने कितनी शीघ्रता से उसका समाधान ढूंढ लिया. सामने वाला हमसे सहमत न हो रहा हो तो झट उसके दृष्टिकोण से हम वस्तुओं को भांप सकते हैं या नहीं इसकी भी परख होती है. जब देह को कोई रोग सताये तो हम कितनी जल्दी साक्षी भाव में आकर स्वयं को दर्द से बचा ले जाते हैं. जीवन में आ रहे परिवर्तन को कितनी आसानी से हम स्वीकार कर लेते हैं और दृढ़ता से उसका सामना करते हैं. कुछ भी हो जाये हमारी आशा की डोर टूटी तो नहीं, इसकी भी परीक्षा होती है. परमात्मा के प्रति आस्था और श्रद्धा में रंच मात्र भी कमी तो नहीं आती, कृतज्ञता की भावना ने हमारे अंतर को आप्लावित तो कर दिया है न. असीम धैर्य और आत्मविश्वास की पूंजी घट तो नहीं रही. जैसा जीवन  हम चाहते हैं उसी के अनुरूप हमारे कर्म भी हो रहे हैं या नहीं. ये सभी छोटी-छोटी बातें यदि जीवन में हैं तो अवश्य ही हम जीवन की पाठशाला से सफल होकर जाने वाले हैं. 

Sunday, July 12, 2020

निज स्वरूप को जाना जिसने

अविद्या का आवरण हमारे स्वरूप को हमें देखने नहीं देता. देह, मन, बुद्धि को ‘मैं’ मानना ही अविद्या है. हम स्वयं को जैसा मानेंगे वैसा ही अपना स्वरूप हमें प्रतीत होगा. यदि हम देह को ही मैं मानते हैं तो सदा ही भयभीत रहेंगे, क्योंकि देह निरन्तर बदल रही है और एक दिन मिट जाएगी. यदि मन को अपना स्वरूप मानते हैं तो सदा ही कम्पित होते रहेंगे क्योंकि मन भी इस निरंतर बदलते हुए संसार से ही बना है, जैसा वातावरण, जैसे शिक्षा उसे मिलती है वह उसी को सत्य मानकर उसी के अनुसार चलता है. जब हम बुद्धि को ही अपना स्वरूप मानेंगे तो सदा ही मान-अपमान के द्वंद्व में फंसे रहेंगे क्योंकि अपनी बुद्धि से उपजे विचार, धारणा आदि को ही हम सत्य मानेंगे और दूसरों के विचारों से मतभेद पग-पग पर होता ही रहेगा. इसके साथ-साथ ही देह, मन और बुद्धि से किये गए कार्यों का हमें अभिमान भी बना रहेगा. 

खाली होगा मन जब अपना

सन्त कहते हैं  “न अभाव में रहो, न प्रभाव में रहो बल्कि स्वभाव में रहो”. अभाव मानव का  सहज स्वभाव नहीं है क्योंकि वह वास्तव में पूर्ण है. अपूर्णता ऊपर से ओढ़ी गयी है, और चाहे कितनी ही इच्छा पूर्ति क्यों न हो जाये यह मिटने वाली नहीं. हम मुक्त होना चाहते हैं जबकि मुक्त तो हम हैं ही, बंधन खुद के बनाये हुए हैं, ये प्रतीत भर होते हैं. प्रेम हमारा सहज स्वभाव है, हम उसी से बने  हैं. अज्ञान वश जब हम इस सत्य को भूल जाते हैं तथा प्रेम को स्वार्थ सम्बन्धों में ढूंढने का प्रयास करते हैं तो दुःख को प्राप्त होते हैं.  हमें अपने जीवन के प्रति जागना है. कुछ बनने की दौड़ में जो द्वंद्व भीतर खड़े कर लेते हैं उसके प्रति जागना है.  मन को जो अकड़  जकड़ लेती है, असजगता की निशानी है. खाली मन जागरण की खबर देता है , क्योंकि मन का स्वभाव ही ऐसा है कि इसे किसी भी वस्तु से भरा नहीं जा सकता इसमें नीचे पेंदा ही नहीं है, तो क्यों न इसे खाली ही रहने दिया जाये. मुक्ति का अहसास उसी दिन होता है जब सबसे आगे बढ़ने की वासना से मुक्ति मिल जाती है.

Thursday, July 9, 2020

सत्व गुण जब बढ़ेगा मन में


पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियाँ और मन ये सब मिलकर ग्यारह इन्द्रियां हैं. श्रवण करते समय कान, शब्द तथा मन ये तीन उपस्थित होते हैं, इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा विषय अनुभव करते समय विषय, मन और इन्द्रिय तीन की उपस्थिति रहती है.  शब्द का आधार कान है और कान का आधार आकाश है; अतः वह आकाशरूप ही है. इसी प्रकार त्वचा, जिह्वा, नेत्र और नासिका भी क्रमशः स्पर्श, स्वाद, रूप और गंध का आश्रय तथा अपने आधार पवन, अग्नि, पृथ्वी और जल के स्वरूप हैं. इन सबका अधिष्ठान है मन. इसलिए सबके सब मन स्वरूप हैं. इनमें मन कर्ता है, विषय कर्म है और इन्द्रिय करण है. ये कर्ता, कर्म और करण रूपी तीन प्रकार के भाव बारी-बारी से उपस्थित होते हैं. इनमें से एक-एक के सात्विक, राजस और तामस तीन-तीन भेद होते हैं. अनुभव भी तीन प्रकार के ही हैं. हर्ष, प्रीति, आनंद, सुख और चित्त की शांति का होना सात्विक गुण का लक्षण है. असन्तोष, सन्ताप, शोक, लोभ तथा अमर्ष -ये किसी कारण से हों या अकारण, रजोगुण के चिह्न हैं. अविवेक, मोह, प्रमाद, स्वप्न और आलस्य -ये किसी भी तरह क्यों न हों, तमोगुण के ही नाना रूप हैं. प्रत्येक साधना का लक्ष्य सत्वगुण को बढ़ाते जाना है और रजोगुण व तमोगुण को कम करना है. 

Tuesday, July 7, 2020

श्वासों पर जो ध्यान टिकाये


हमारे जीवन में कुछ बातें बार-बार होती हैं, जिन बातों से हम बचना चाहते हैं वे ही नया-नया रूप लेकर आती हैं. यहाँ तक कि कभी-कभी हम स्वयं ही चौंक जाते हैं, ये वार्तालाप तो ऐसा का ऐसा पहले भी हुआ है. हमने सामने वाले की बात पर जिस तरह पहले प्रतिक्रिया की थी वैसी ही फिर करते हैं. जिस आदत को छोड़ने का मन बना लिया था वह पुनः पकड़ लेती है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारी पहुँच अचेतन मन तक नहीं है, चेतन मन से हम कोई प्रण लेते हैं पर उसकी खबर भीतर वाले मन को होती ही नहीं, वह तो अपने पुराने कार्यक्रम के अनुसार ही चलता रहता है. जीवन गोल-गोल एक चक्र में घूमता रहता है. यदि इस चक्र को तोड़ना है तो ध्यान ही सरल उपाय है. ध्यान में ही पुराने संस्कारों का दर्शन होता है और उनसे छुटकारा पाया जा सकता है. भगवान बुद्ध ने विपासना ध्यान की सरल विधि दी जिसमें स्वतः चलने वाली श्वासों के प्रति साधक को सजग रहना है. 

Sunday, July 5, 2020

दुःख से जो भी मुक्ति चाहे


बुद्ध ने कहा है, जीवन में दुःख है. इस दुःख का कारण है. कारण का निवारण है. वह पथ है जिस पर चलकर एक दुखविहीन अवस्था का अनुभव किया जा सकता है. जीवन में जन्म, मरण, बुढ़ापा, मृत्यु, ये चार दुःख हरेक को भोगने पड़ते हैं. उदासी, क्रोध, ईर्ष्या, चिंता, भय, अवसाद सभी दुःख हैं. प्रियजनों से विछोह दुःख है, अप्रिय से मिलन दुःख है. इच्छा, आसक्ति, देह, मन, बुद्धि आदि से चिपकाव दुःख है. अज्ञान ही इन दुखों का कारण है. जीवन के मर्म को न समझकर हम इन दुखों से ग्रस्त होते हैं. इन दुखों से बचा जा सकता है. जीवन के सत्य को समझकर ही कोई दुःख से मुक्त हो सकता है. बुद्ध ने एक मार्ग भी दिया जिस पर चल कर एक ऐसी अवस्था भी आती है जहाँ कोई दुःख नहीं है. इस पथ का राही सजग होकर सदा वर्तमान में रहता है. सजगतापूर्वक जीने का मार्ग ही अष्टांगिक मार्ग है. सम्यक समझ, सम्यक विचार, सम्यक वाणी, सम्यक कर्म, सम्यक आजीविका, सम्यक प्रयत्न, सम्यक ध्यान, सम्यक एकाग्रता जिसके अंग हैं. 

गुरुर्ब्रह्मा: गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः


गुरु पूर्णिमा प्रत्येक साधक के लिए एक विशेष दिन है. अतीत में जितने भी गुरू हुए, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन ! माता शिशु की पहली गुरू होती है. जीविका अर्जन हेतु शिक्षा प्राप्त करने तक शिक्षक गण उसके गुरु होते हैं, लेकिन जगत में किस प्रकार दुखों से मुक्त हुआ जा सकता है, जीवन को उन्नत कैसे बनाया जा सकता है, इन प्रश्नों का हल गुरुजन ही दे सकते हैं. इस निरंतर बदलते हुए संसार में किसका आश्रय लेकर मनुष्य अपने भीतर स्थिरता का अनुभव कर सकता है ? जगत का आधार क्या है ? इस जगत में मानव की भूमिका क्या है ? उसे शोक और मोह से कैसे बचना है ? इन सब सवालों का जवाब भी गुरू का सत्संग ही देता है. जिनके जीवन में गुरू का ज्ञान फलीभूत हुआ है वे जिस संतोष और सुख का अनुभव सहज ही करते हैं वैसा संतोष जगत की किसी परिस्थिति या वस्तु से प्राप्त नहीं किया जा सकता. गुरू के प्रति श्रद्धा ही वह पात्रता प्रदान करती है कि साधक उनके ज्ञान के अधिकारी बनें.

Friday, July 3, 2020

चैतन्य: आत्मा -शिव सूत्र


शिव कहते हैं जिस आत्मा को तुम ढूंढ रहे हो वह चैतन्य है. यह संसार जड़-चेतन दोनों से बना है, इसमें जहाँ-जहाँ चेतना हो वहाँ मुझे खोज लेना. एक धूल के कण और एक जीवाणु में कौन चेतन है ? एक जगे हुए और एक सोये हुए व्यक्ति में कौन ज्यादा चेतन है ? हमारा मन जब निद्रा और तन्द्रा से भरा हो या किसी खतरे को देखकर सौ प्रतिशत सचेत हो तो दोनों में से कौन ज्यादा चेतन है ? यह चेतना जब किसी बुद्ध पुरुष  में उस तरह खिल जाती है जैसे कोई कमल का फूल तो वहीं शिव प्रकट हो जाते हैं. मन जब अतीत के कारण पश्चाताप से भरा हो, भविष्य की चिंता से भरा हो या वर्तमान में तुलना से भरा हो तो चेतना पर एक आवरण छा जाता है. इसी को अहंकार कहते हैं जो शिव से जुदा रखता है. गुरु के बिना यह ज्ञान नहीं मिलता, शिव आदि गुरु हैं.



Thursday, July 2, 2020

खोने को जो होगा राजी

जब हम उसे ढूँढते हैं तो वह हमें नहीं मिलता. पर जब उसे ढूँढते-ढूँढते खो जाते हैं तो वह हमें ढूँढता है. परमात्मा के मार्ग की रीत बिल्कुल उलटी है यहाँ मिलता उसी को है जो छोड़ने को तैयार हो. हमें तो बस उसे याद करते जाना है. हमारी हर श्वास पर उसका अधिकार है, क्योंकि हमारा अस्तित्त्व ही उसपर टिका है. हमारे पास अभिमान करने जैसा कुछ है तो यही कि हमने मानव जन्म पाया है और सत्संग के द्वारा सत्य के प्रति आस्था मन में जगी है. अब इस आस्था को पोषित करना है या छोटी-छोटी बातों में उड़ा देना है इसका निर्णय हमें करना है. इस काल को सार्थक करना या इसे व्यर्थ बिता देना हमारे अपने हाथ में है.

Wednesday, July 1, 2020

जीवन की कीमत जो जाने

अभी तक दूर था कोरोना, कल ही पता चला हमारी कालोनी में भी चेन्नई से लौटे एक व्यक्ति को संक्रमण हुआ, स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी उसे ले गए, परिवार को क्वारन्टाइन कर दिया गया है. पूरी बिल्डिंग को ही बंद कर दिया है. यह इमारत हमारे घर से आधा किमी दूर है. सुबह-शाम अभी तक बिना किसी भय के टहलने जाते थे, शायद अब संभव न हो. आज सुबह पहली बार बाहर जाते समय इसका अहसास हुआ. पूरे विश्व में लाखों लोग इसी और इससे कहीं ज्यादा आशंका में जी रहे हैं. ऐसे में आवश्यक है कि मन यदि एक क्षण के लिए भी विक्षेपित हो तो तत्क्षण उसे सचेत कर दिया जाये. जीवन क्षण-क्षण में मिलता है, यदि एक पल गया तो उसका अगला पल भी वैसा  ही फल लाने वाला है. सचेत रहना होगा और नजर खुले विस्तीर्ण आकाश पर रखनी होगी, जिसके नीचे न जाने कितनी महामारियाँ  जन्मी, पनपीं और नष्ट हो गयीं. कोरोना भी अपना असर कुछ काल तक और डालेगा, कुछ महीने, एक साल, दो साल या उससे भी ज्यादा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. जीवन कितना बहुमूल्य है यह सबक सीखने का सुनहरा अवसर है आज, धन की सही कीमत क्या है और रिश्तों की अहमियत क्या है, यह सीखने का वक्त भी है आज. परमात्मा ही संचालक है मानव की अल्पबुद्धि सदा काम नहीं आती, यह पाठ भी तो हमें सीखना है. कोरोना ने सारे विश्व की पाठशाला खोल दी है, सभी देशों के वासी उसके विद्यार्थी हैं.  

Tuesday, June 30, 2020

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

संत कहते हैं, जब तक हम मन के द्वारा चलाये जाते हैं हम साधक नहीं हैं, जब हम मन को चलाते हैं तब साधक की श्रेणी में आते हैं. मन को चलाने का अर्थ है मन पर कार्य करना. जब हम देह द्वारा कार्य करते हैं, हमारा कार्य व्यायाम नहीं कहा जा सकता, जब देह पर कार्य करते हैं अर्थात भार उठाना, दौड़ना, आसन आदि, उसे ही व्यायाम कहते हैं. देह की शक्ति उसे हिलाने-डुलाने से बढ़ती है पर मन की शक्ति उसे स्थिर और एकाग्र रखने से बढ़ती है. धारणा, ध्यान, चिंतन, मनन, समाधि यह सब मन पर कार्य करने की विधियां हैं. प्रकृति के साथ कुछ समय बिताने से भी मन सहज ही शांति का अनुभव करता है. मंत्र जाप अथवा ध्यान की कुछ मुद्राओं में बैठने मात्र से भी मन एकाग्र होता है. कोई नदी जब शांत हो तो उसकी तलहटी भी दिखाई देती है और जब पानी का बहाव तेज हो तो पानी के अतिरिक्त कुछ भी स्पष्ट नहीं होता. मन भी एक धारा की तरह है, यदि उसका बहाव धीमा होगा तो आत्मा का प्रतिबिम्ब उसमें झलकेगा, जब हम विचारों से घिर जाते हैं तब स्वयं से दूर चले जाते हैं, यही तनाव का कारण बनता है.