जब मन में मान्यताओं व पूर्व धारणाओं की दीवार गिर जाती है, तब सत्य सम्मुख होता है. उस समय जो क्रिया शक्ति जगती है वह कर्ता विहीन होती है. जैसे हवा बहती है पर कोई बहाता नहीं ! जब शब्दों की आड़ में हम अपने अज्ञान को छिपा लेते हैं तब ज्ञान ही बन्धन बन जाता है. एक निर्विचार स्थिति ऐसी होती है जैसे अचानक घोर अँधेरे में कोई बिजली कौंध जाये, उस एक क्षण में सब कुछ एक साथ दिखाई पड़ता है. उसी में टिके रहने की कला ध्यान है. उस अखण्ड शांति का स्पर्श मन व बुद्धि की चंचलता को मिटाता है, उन्हें शुद्ध करता है. वही भीतरी संगम है, वही कैलाश है और वही अमृत का कुंभ है. इस योग से एक ऐसी सजगता का जन्म होता है, जो बस अपने आप में है, वह किसी वस्तु विशेष के प्रति नहीं है. इस तरह साधक का मन जिस खालीपन का अनुभव करता है उसमें कोई बोझ नहीं रहता.
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteगुरु नानक देव जयन्ती
और कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
स्वागत व आभार !
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