एक
बार किसी साधक ने किसी संत से पूछा, ध्यान की कितनी विधियाँ हैं ? संत मुसकुराते हुए
बोले, आज तक जितनी बार किसी ने ध्यान किया है हर बार एक नई विधि का जन्म हुआ है, जब
परमात्मा अनंत है तो उस तक पहुँचने के मार्ग
भी अनंत ही होने चाहिए। इसलिए दुनिया में इतने धर्म हैं, इतने पंथ, संप्रदाय और मत
हैं, सभी का लक्ष्य एक है पर हरेक अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुसार इस मार्ग पर चलता
है। इसलिए भगवद गीता में कृष्ण ने भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग, ध्यान योग, जपयोग,
प्रेम योग सभी का उल्लेख किया है। हर कोई जाने-अनजाने उसके पथ का ही राही है। जो स्वयं
को नास्तिक मानता है वह भी और जो अपने को आस्तिक मानता है वह भी। परमात्मा से मिलने
की इच्छा के जगने का अर्थ है मानव होने की गरिमा को अनुभव करना। एक शिशु जिस आनंद को
सहज ही अनुभव करता है उसे पुन: पा लेना अथवा स्वयं के सही स्वरूप से मिलन। संसार से
एकत्व ही इसकी परिणति है। समता की प्राप्ति ही इस मिलन पर प्राप्त होने वाला उपहार
है।
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