जगत में
विकास करना हो तो ऊर्जा के नए-नए स्रोत चाहिए. सौर ऊर्जा,
पवन ऊर्जा और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में वैज्ञानिक नयी खोजें कर रहे हैं। भीतर
विकास करना हो उसके लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता है। हम भोजन, जल, निद्रा और श्वास से
ऊर्जा को ग्रहण करते हैं। ध्यान भी एक सहज और सशक्त साधन है जिससे हम मानसिक और आत्मिक
ऊर्जा को बढ़ा सकते हैं। हमारे चारों ओर तरंगों का एक विशाल समुद्र है, जिसमें सकारात्मक
और दिव्य ऊर्जा की तरंगें भी हैं। मन भी एक ऊर्जा है, यदि कुछ क्षणों के लिए ही इसे
केंद्रित करके सकारात्मक विचारों से भर लें फिर स्वीकार भाव में मात् बैठे ही रहें
तो ‘समान समान को आकर्षित करता है’ के नियम से दिव्य ऊर्जा स्वयं ही हमारे मन को छूने
लगेगी, और यदि वह पहले से ही विचारों से भरा हुआ नहीं है तो उस रिक्त स्थान को भर देगी।
मन यदि स्वीकार भाव में हो तो उसकी गहराई में स्थित आत्मा की झलक भी मिलने लगती है।
इससे आत्मिक बल भी बढ़ता है और जीवन में भय और असुरक्षा का नाम भी नहीं रहता। प्राण
ऊर्जा का संवर्धन प्राणायाम के द्वारा भी किया जा सकता है, किन्तु ध्यान रखना होगा
कि मन श्रद्धा से भरा हो। जीवन के अंतिम क्षण तक यदि कोई अपने कार्य स्वयं करने में
समर्थ रहना चाहता है तो उसे प्राण ऊर्जा का संवर्धन निरंतर करते रहना होगा।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-11-2020) को "चाँद ! तुम सो रहे हो ? " (चर्चा अंक- 3875) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
-- सुहागिनों के पर्व करवाचौथ की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत आभार !
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