Thursday, January 31, 2013

सबमें एक एक में सब हैं



जो कर्म में अकर्म को देखता है और अकर्म में कर्म को देखता है, वही कर्मयोगी है. जो सबमें आत्मा को देखता है और आत्मा में सबको देखता है. वास्तव में वही देखता है. भगवद गीता के ये दो श्लोक कितने अद्भुत हैं. हम जगत में जितने भी कर्म करें उनका कर्ता स्वयं को न मानें, सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार हमसे हो रहे हैं और जब हम ध्यान में हों अर्थात कुछ भी न कर रहे हों तो भी हमसे बहुत कुछ हो रहा होता है. जो चेतना एक के भीतर है वही सबके भीतर है तथा सब कुछ उसी के भीतर है.   

Wednesday, January 30, 2013

ज्ञान के पीछे सुख छिपा है


फरवरी २००४ 
हममें से हर कोई प्रेम का आदान-प्रदान करना चाहता है, प्रेम ही जीवन का आधार है, पर जब हमारा प्रेम जगत पर आश्रित होता है, तो वह मोह कहलाता है और दुखदायी होता है. क्योंकि जगत बदलने वाला है, वह अनुकूल भी हो सकता है और प्रतिकूल भी. प्रेम का प्रतिदान मिल भी सकता है और उसका अपमान भी हो सकता है. वह प्रेम जब भक्ति बन जाता है तो हजार गुणा होकर हमें वापस मिलता है. ईश्वर उसे तत्क्षण स्वीकारते हैं और हमें भी अपना प्रेम देते हैं. संत हर क्षण उस प्रेम का पान करते रहते हैं. साधना का ध्येय उस परम प्रेम को पाना ही तो है, जहाँ उसके प्रति भक्ति की अखंड धारा प्रतिपल हमारे भीतर बहती रहे. हम क्षण-क्षण उस प्रसाद को पाते रहें और जगत में लुटाते रहें, और वह क्षमता हममें से हर एक के पास है, उसकी चाबी हमने खो दी है जो हम स्वयं ही ढूँढ सकते हैं. समाज में यदि सच्चा परिवर्तन लाना है तो हर परिवार में ऐसे दृढ भक्त हों जो ज्ञान और प्रेम के द्वारा अपने आस-पास के वातावरण को शांत बनाएँ. जहां ज्ञान होता है सुख वहीं होता है. सुख की कामना की तो दुःख मिलने ही वाला है. ज्ञान की कामना की तो सुख बरसने लगता है.

Sunday, January 27, 2013

जगा रहे जो मन अपना


फरवरी २००४ 
हमारा जो कृत्य हमारे लिए या दूसरों के लिए किसी दुःख का कारण बने वह पाप है और जो सुख दे वह पुण्य है. दुखों से मुक्ति ही अध्यात्म का लक्ष्य है, इसके लिए पाप से बचना होगा अर्थात चित्त का शोधन करना होगा, चित्त कब विक्षुब्ध होता है, क्यों होता है, हमारे कारण अन्यों का चित्त तो विक्षुब्ध नहीं हो रहा इसका ध्यान रखना है. मन ही पुण्य शील है और मन ही पाप करवाता है. जब हम असजग होते हैं तभी दुःख पैदा करते हैं. मन को गहराई से देखें तो यह अमनी भाव में चला जाता है वहाँ न पुण्य है न पाप. तब मन संवेदनशील होता है, जागरूक होता है, इस जगत की सच्चाइयों को भीतर से जान लेता है, अनुभव के द्वारा पाया ज्ञान ही स्थायी होता है. तब सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं. अपने ही मन के द्वारा बनाये गए कल्पना के जाल से मुक्ति का अनुभव होता है.

Wednesday, January 23, 2013

त्रितापों से मुक्त करेगा


फरवरी २००४  
दुखों का कारण हिंसा है, संसार जो तीनों तापों से पीड़ित है, वह हिंसा के कारण ही, हम मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों प्रकार की हिंसा के शिकार होते हैं तथा दूसरों को करते हैं. परिवार में दुःख का कारण वाचिक हिंसा है पर इसका आरम्भ तो मन से ही होता है तथा अंत भी मानसिक संताप में होता है. विरोध, द्वंद्व, आग्रह तथा अपेक्षा सभी सूक्ष्म हिंसा का रूप हैं. शरणागत होकर हम इनसे मुक्त हो सकते हैं. हमारा मन एक क्षण के लिए भी विक्षुब्ध होता है या झुंझलाता है तो हम हिंसा कर ही रहे होते हैं. हमरा मूल स्वरूप प्रेममय है, आनंद हमारा वस्त्र है और शांति हमारा आश्रय. फिर दुःख से हमारा परिचय कौन कराता है, दुःख जो बाहर से हमें खोजता है, भीतर तो दुःख कहीं नहीं है. मन जो बाहर से आया है, अधैर्य सिखाता है, असहिष्णु बनाता है, हमें स्वयं से दूर करता है, स्वयं को अच्छा मानने के कारण अन्यों को बुरा मानता है. अपने दोषों को नजरंदाज करके अन्यों के दोषों को बढ़-चढ़ा कर देखता है. अपने ही बनाये सपनों के महल का राजा बन बैठता है. ज्ञान हमें इसकी दासता से बचने का उपाय बताता है. ज्ञान से ही हिंसामुक्त समाज की रचना हो सकती है, इसकी शुरुआत स्वयं से ही करनी होगी.

Tuesday, January 22, 2013

अपने ही घर जाना है


जनवरी २००४  
हमारे जीवन में अगले पल क्या घटने वाला है इसकी खबर हमें नहीं होती, हम घटनाओं के साक्षी मात्र होते हैं, पर इस बात से हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते. यदि उस क्षण हम सजग नहीं रहे जहां से घटनाओं का क्रम बदलने वाला था तो बात हमारे हाथ से निकल जाती है, पछताने के सिवाय फिर कुछ नहीं रहता. मूलतः हम सभी एक ही वस्तु के पीछे भाग रहे हैं, वह है चित्त की प्रसन्नता और विश्रांति ! वह हमें अपने घर में ही मिलती है, अध्यात्म हमारा घर है. पर जैसे हम सफर से लौटते हैं तो पहले घर को स्वच्छ करते हैं, वैसे ही साधना द्वारा चेतना की शुभ्र नीलिमा को जागृत करना है. जैसे घर की जमीन में कोई खजाना मिले तो उस पर हमारा ही अधिकार होता है, वैसे ही भीतर के आनंद पर हमारा सहज ही अधिकार है, जिसके मिलने पर सजगता स्वभाव का अंग हो जाती है.

Monday, January 21, 2013

सत्यम शिवम सुन्दरम ही अध्यात्म है


फरवरी २००४ 
हम पदार्थ और ऊर्जा दोनों से बने हैं. शरीर पदार्थ से बना है, और मन ऊर्जा से, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हम अनेकों प्रयत्न करते हैं वैसे ही मन को स्वस्थ करने के लिए ही अध्यात्म है. सौंदर्य प्रियता, सत्य के लिए प्रेम, शुभ के प्रति श्रद्धा ही अध्यात्म है. जब हम अध्यात्म से दूर होते हैं तो क्रोध, मोह तथा विस्मृति के शिकार होते हैं, तब जीवन एक दुखद श्रंखला बन जाता है, जिसमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर सुख आता तो है पर टिकता नहीं. सहज प्राप्य प्रसन्नता ही शाश्वत सुख है, जो अध्यात्म की साधना से ही मिलता है.

Sunday, January 20, 2013

बलिहारी गुरु आपने

फरवरी २००४ 
अंतररूपी गहन तिमिर को हटाने सदगुरु रूप सूर्य जीवन में आता है. इस सूर्य को अंतर के प्रेमाश्रुओं का अर्क चढ़ाना है. भावना का तिलक लगाना है, अपने विचार पुष्पों को उन्हें समर्पित करना है. उनका जीवन जो शुद्ध मणि के समान चमचम चमक रहा है हमें सहज ही उनकी और आकर्षित करता है, उन आँखों की मस्ती हम पर असर डालती है. वह हमें हमारा परिचय कराने आते हैं, मनों पर छाये कल्पनाओं के जाल को तोड़ने आते हैं, वह सत्यस्वरूप हैं, उनमें हम अपने अंतर की कमजोरियों को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं, भय, हिंसा और लोभ को जान पाते हैं. यह जानकारी ही भीतर एक परिवर्तन लाती है. सहज रूप से हमरे स्व का विस्तार होने लगता है और भीतर का आनंद प्रकट होने लगता है.

Friday, January 18, 2013

भक्त जहाँ वहीं भगवान


जनवरी २००४ 
भक्त को परमात्मा की निकटता का अनुभव होता है, जैस वह उसकी बात सुन रहे हों और समझ भी रहे हों, जवाब भी दे रहे हों. वह उसके जीवन के हर कार्यकलाप के साक्षी होते हैं, उसे आश्चर्य नहीं होता क्योंकि परमात्मा घट-घट में ऐसा वह जानता है. उसके मन के स्वच्छ दर्पण में जब उनका सौम्य दर्शन होता है तो मन भीग जाता है, नयनों में जल भर आता है. कृष्ण से युगों की दूरी का कोई महत्व नहीं, वह आज भी हैं, आत्मा की अमरता का उपदेश देते हुए, शुद्ध भक्ति का पाठ पढ़ाते हुए, प्रेम के लिए आतुर आत्माओं को असीम प्रेम बांटते हुए. भक्त और भगवान के मध्य प्रेम का यह आदान-प्रदान कितना अद्भुत है. हृदय को जैसे इसी कार्य के लिए रचा गया है !  ऐसा भक्त सहिष्णुता, सामंजस्य, शांतिपूर्ण सह अस्तित्त्व का सहज ही पालन करता है, क्योंकि वह सबमें उसी को देखता है. उसके स्व का विस्तार होता ही चला जाता है.

Thursday, January 17, 2013

एक बार बस जाये मन में


जनवरी २००४ 
हमारे जीवन में अनेक बार हम ईश्वर की कृपा का अनुभव करते हैं, सागर कह दे कि तरंग उसकी नहीं है, नहीं कह सकता, वैसे ही चेतना परमात्मा की तरंग है, वही कर्म करने की प्रवृत्ति तथा प्रेरणा देता है. उत्साह और प्रेम भी वही है. हम यदि अपने जीवन का केन्द्र उसे बना लें तो यशोदा की तरह वह कभी हमारे हृदय से दूर नहीं हो सकता, एक बार जिसके हृदय को अपना घर बना लेता है कभी छोड़ता नहीं है, उसके प्रेम में मुग्ध हुआ मन उसी का होकर रह जाता है, उसको फिर उसी की निकटता में चैन मिलता है.

राधे राधे मन बोले


जनवरी २००४ 
राधा कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति है, महामाया और योगमाया उसकी अपरा और परा शक्तियाँ हैं. कृष्ण  सोलह कलाओं से पूर्ण तथा षट्ऐश्वर्य सम्पन्न हैं, वह अपने एक अंश से इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड को धारण किये हुए हैं, जीव उनकी पराशक्ति का अंश है पर माया ने उसे मोहित कर लिया है और वह स्वयं को सर्वेसर्वा मानने लगता है, यही अहंकार उसके जीवन में दुखों को लाता है. यदि वह अपने सत्य स्वरूप को जान ले तो जीवन कितना सहज और आनन्दपूर्ण हो सकता है. वही दिन सार्थक होगा जब कृष्ण का अनुभव हमारा अपना अनुभव होगा, लेकिन उस परम दिन के लिए सत्प्रयास करते हुए ये दिन भी क्या कम सार्थक हैं. यात्रा का भी अपना एक आनंद है, जितना मंजिल का. मार्ग में आने वाले मनोरम दृश्य मन की उस अवस्था की तरह हैं जो हमें साधना का दौरान प्राप्त होती हैं. यह निर्विचार, निर्विकल्प अवस्था कितनी शांत अवस्था है, जब कोई इच्छा नहीं, बस एक होने मात्र का अहसास ही रहता है. फिर यह होता है की एक मुस्कान न जाने कहाँ से आ जाती है, भीतर जो आह्लाद सा जगता है यही तो राधा है अर्थात कृष्ण के प्रति प्रेम जो हमें सहज बनाता है.

Wednesday, January 16, 2013

प्रेम से प्रकट होए मैं जाना...


जनवरी २००४ 
हमारी जीवन शैली हिंसात्मक है या अहिंसात्मक इसका पता हमें दो-तीन बातों से लग जाता है, हम स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं या परतंत्रता का, सापेक्षता का अथवा निरपेक्षता का, अशांति का अथवा शांति का. हमारा मन यदि क्षोभ से भर जाता है तो हम हिंसा के शिकार हैं, हम विरोध करते हैं, द्वंद्व का शिकार होते हैं तो भी हिंसा अपना कार्य कर रही है, हम असंवेदनशील हो रहे हैं, क्षमा नहीं कर  पाते तो हिंसा ही है. यही वह सूक्ष्म पर्दा है जो हम परमात्मा से अलग करता है. हम उसके प्रति प्रेम तो अनुभव करते हैं पर स्थिर नहीं रख पाते क्योंकि अब तक मन विरोध के भाव में आ चुका है. प्रेम में कोई विरोध नहीं होता, प्रेम सभी कुछ स्वीकारता है, अच्छा-बुरा सभी कुछ, विष-अमृत सभी कुछ !  

Tuesday, January 15, 2013

ध्यान परम पूजा है



हमारा व्यक्तित्व समग्र हो अर्थात हम सुसम्पन्न तथा शील सम्पन्न दोनों हों इसके लिए आवश्यक है की हम ज्ञान, क्रिया, प्रेम, कामना, इच्छा में समन्वय करें, संतुलन रखें. हम शरीर, मन और आत्मा हैं, तीनों का उत्तम स्वास्थ्य हमारा लक्ष्य है. हमारे मस्तिष्क में भाव केन्द्र पृथक है तथा विचार केन्द्र पृथक, दोनों का विकास आवश्यक है, ध्यान के द्वारा हम भावना को पुष्ट करते हैं. ध्यान में भीतर कुछ घटता है जो उस वक्त तो स्पष्ट नहीं होता परन्तु बाद में उसका प्रभाव अवश्य देखा जा सकता है. हमारी निरीक्षण क्षमता बढ़ जाती है, हम वस्तुओं को उनके सही रूप में देखने लगते हैं, मन शांत रहता है, विचार आते तो हैं पर शीघ्र ही हम उनकी उपयोगिता या व्यर्थता पहचान कर उन्हें स्वीकार या अस्वीकार करते हैं. हमारा मन तब सजग रहता है, ध्यान भीतर छुपी जन्मों की वासनाओं का शमन करता है. एक मुख्य विचार रह जाता है, जो वास्तव में हमारे ही भीतर है, जो हमारा आधार है, मल, विक्षेप तथा आवरण की वजह से हम उसे देख नहीं पाते, हमारे मन का पानी चंचल है तथा उस पर काई जमी है, ध्यान एक-एक कर इन्हें दूर करता है, और तब आत्मा का प्रतिबिम्ब उसमें दीख पड़ता है.   

Sunday, January 13, 2013

हर पथ उसकी ओर जा रहा


जनवरी २००४ 
क्रिया के कारण भीतर के आनंद का हमें पता चलता है. क्रिया और ज्ञान दोनों का समन्वय हो तभी हम अध्यात्म के पथ पर चल सकते हैं. धर्म व्यवहारिक हो तभी चेतना का विकास हो सकता है, चेतना का रूपान्तरण ध्यान के द्वारा किया जा सकता है. ध्यान हमारी सुप्त चेतना को जागृत करता है. सत्य हमारे भीतर है उसे खोजकर यदि हम जगत में व्यवहार करें तो ही हम सही रूप से उसका उपयोग कर सकते हैं. हम प्रतिक्षण अपने आप से प्रश्न करें कि क्या मेरा यह क्षण बंधन का कारण बनने वाला है या मुक्त करने वाला है. सर्वप्रथम शत्रु अहंकार है जिससे हमें सजग रहना है, बहुत सूक्ष्म होता है यह अहंकार और यह भी हिंसा का कारण बन जाता है, हम स्वयं में इतने न खो जाएँ की अन्य हमें बाधा स्वरूप लगें, हम इतने न बंध जाएँ कि छूटने में भी दर्द हो. हम अपनी कोहनी भर जगह तो अपने चारों और रखें ही ताकि सरलता से चल सकें और किसी को चोट भी न लगे. हमारा कोई व्यवहार किसी को चोट पहुंचाता हो तो उसकी भनक स्वयं को पहले लग जाती है. वह  परमेश्वर परब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप हमारे साथ जो है, वह सदा सचेत करता रहता है. उससे प्रीति होना इतना सरल व सहज भी नहीं है, तलवार की धार पर चलने जैसा है पर एक बार यदि चलना आ जाये तो भीतर की सच्चाईयाँ प्रकट होकर स्वयं राह बताती हैं तब वह सुह्रद स्वयं हमारा हाथ पकड़ कर सही पथ पर ले जाता है, तब गिरने का भी नहीं रहता. शरण में जाने के बाद उत्तरदायित्व उसका हो जाता है, कितनी भी बाधाएं आयें कोई भय नहीं क्योंकि उस निर्भय का साथ जो है.    

Saturday, January 12, 2013

उत्सव उसके संग मनाएं


मकर संक्रांति का त्यौहार पूरे देश में भिन्न-भिन्न नामों से मनाया जाता है, हर उत्सव पर हम ईश्वर से प्रार्थना  करते हैं, उसके करीब जाते हैं, मन के उल्लास को जगाते हैं, उत्सव हमें मन को इतर  कार्यों से खाली करने का प्रयास है, अथवा तो जो भी अच्छा-बुरा जीवन में हो उसे समर्पण करके पुनः नए हो जाने का संदेश देता है. उत्सव में एक साथ मिलकर जब आनंद मनाते हैं, तो ऊर्जा का संचार होता है, भीतर एक नया जोश भर जाता है. क्षण भर के लिए ही भौतिक देह का भाव मिटने लगता है, सारे भेद गिर जाते हैं और उस अव्यक्त की झलक मिल जाती है.  

Thursday, January 10, 2013

माँ के जैसा ही वह है


जनवरी २००४ 
जैसे माँ बच्चे के रूप में अपना विस्तार करती है, फिर उसे प्रेम देती है व प्राप्त करती है, वैसे ही परमात्मा ने हमें सिरजा है, भक्त और भगवान के बीच प्रेम का आदान-प्रदान ही भगवत्ता को सार्थक करता है. जैसे बच्चे माँ को भुला देते हैं, वैसे ही हम परम को भूल जाते हैं, पर तब भी वह हमें चाहते हैं वह सदा प्रतीक्षा रत हैं कि हम उनके निकट जाएँ जैसे माँ को बच्चों की सदा एक आस बनी रहती है. हमारे भीतर के सद्गुण रूपी देवता उसी परमात्मा की आराधना करते हैं और दुर्गुण रूपी असुर उससे उत्पीड़ित होते हैं. शुभ-अशुभ दोनों को वह ही रचता है और दोनों से परे वह अव्यक्त है. वह हमारे भीतर तीन रूपों में विद्यमान है, क्रिया, ज्ञान और भावना. वही कर्म के लिए प्रेरित करता है, वही हमें हमारे होने का ज्ञान देता है ज्ञान जब भीतर रच-बस जाता है वही भक्ति में बदल जाता है. मुक्त हुए बिना भक्ति सम्भव नहीं. यह त्रिवेणी जब जीवन में उतरती है तो जीवन का हर क्षण सुंदर बन जाता है.

Wednesday, January 9, 2013

शांति है जहां प्रगति है वहाँ


जनवरी २००४ 
शान्ति पूर्वक सहअस्तित्त्व हमारी पहली आवश्यकता है, तभी किसी भी तरह का विकास सम्भव है. अहिंसा का अर्थ केवल शारीरिक हिंसा से बचना ही नहीं है, बल्कि हमें इसके सूक्ष्म स्वरूप को भी जानना होगा. क्रोध का कोई भी रूप हिंसा है, द्वंद्व भी हिंसा है, द्वन्द्वातीत हुए बिना मन शांत नहीं हो सकता. अहिंसा का प्रारम्भ सर्वप्रथम घर से होता है, आज समाज के बदले हुए वातावरण में घरेलू हिंसा का शिकार वृद्ध, महिलाएं, बच्चे, अशक्त सभी किसी न किसी रूप में हो रहे हैं, आये दिन जो समाचार तथा आंकड़े मिलते हैं, उन्हें देखकर आश्चर्य होता है कि क्या हम एक सभ्य समाज के नागरिक हैं? धर्म जब तक जीवन का एक मह्त्वपूर्ण अंग नहीं बन जाता, आचरण में नहीं उतरता, परिवर्तन नहीं होगा. घरों में नियमित संध्या, ध्यान तथा सद्ग्रन्थों का पाठ होता रहे तो बच्चों को संस्कार मिलते रहते हैं. आज पीढियों का अंतर बढ़ता जा रहा है इसे दूर करने का सबसे सुंदर उपाय है धर्म तथा अध्यात्म, जहां किसी भी तरह का कोई भेद नही होता.  

Tuesday, January 8, 2013

कर्म किये जायें प्रतिपल हम


जनवरी २००४ 
योग क्या है ? प्रकृति के गुणों के वशीभूत हुए, जीवन में प्रतिपल हमसे कर्म होते हैं, कर्म करते हुए हम स्वयं को अथवा दूसरों को दुःख न दें तो कर्म बंधन में नही पड़ते, जैसे कुशा खींचते वक्त यदि सावधान रहें तो मूल सहित कुशा को प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा हाथ में चोट लगती है, “योगः कर्मसु कौशलम” अर्थात “योग कर्मों में कुशलता है” में कुशलता शब्द इसी कुशा से आया प्रतीत होता है. मकड़ी जैसे यदि असावधान रही तो अपने ही जाल में फँस जाती है, वैसे ही सुख के लिए किये हमारे कर्म कहीं दुःख न ले आयें, यही योग है. कर्म हमारे विकास की सीढ़ी बने और हम स्वयं निर्भार रहें,मधु पर बैठी मक्खी की तरह नहीं बल्कि शकर पर बैठी हुई मक्खी की तरह हम उनसे अलिप्त रहें. सृष्टि के आरम्भ से ही जिस यज्ञ की बात कृष्ण ने कही है, जिससे देवता पुष्ट होते हैं, वह  सत्कर्मों की ही है, जिससे हमारे भीतर दैवीय गुण पुष्ट होते हैं. ‘विधि, निषेध मय कलिमल हरणी’जब यमुना की ऐसी धारा भीतर बहेगी तो एक दिन एक दिन भक्ति की गंगा भी प्रवाहित होगी. 

Monday, January 7, 2013

कुछ नहीं या सब कुछ हैं हम


जनवरी २००४ 
किसी कवि ने कहा है - पथ सोचे आमि देव, रथ सोचे आमि देव, मूर्ति सोचे आमि देव, ऊपर हँसे अन्तर्यामी..हमारा कर्ता भाव क्या कुछ ऐसा ही नहीं है, शरीर सोचता है बड़ा श्रम किया, मन सोचता है बहुत चिंतन किया बुद्धि स्वयं को क्या नहीं माने बैठी है...पर भीतर बैठा वह आत्मदेव यदि न हो तो..जैसे सूर्य कुछ नहीं करता पर सृष्टि मात्र उसके होने से ही तो है. करने वाले सब प्रकृति का अंश हैं, जिसके कारण सब होता है वह परमात्मा है, तो हम क्या हैं ? कुछ हमारा भी हिस्सा है कि नहीं...जब मुनि मौन में यह पूछता है तो पाता है प्रकृति के साथ उसका मेल नहीं बैठता...जो खुद पल-पल बदल रही है वह उसे कैसे धारण करेगी, परमात्मा की ओर निहारता है तो पाता है कि वह  बचा ही नहीं ..यही तो रहस्य है जिसे भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं. 

धर्म वही जो धारण करें


जनवरी २००४ 
धर्म का पालन करने के साथ-साथ नैतिक मूल्यों का विकास भी होना चाहिए, हमारी संवेदनशीलता भी कम न हो, धर्म का मात्र बाहरी रूप ही न बढ़े बल्कि आंतरिक रूप विकसित होना चाहिए. धर्म का पहला लक्षण ही है नैतिकता, ईमानदारी तथा सच्चाई ! हम अपनी आत्मा पर पहले ही कई धब्बे लगा चुके हैं अब धर्म के नाम पर तो उस पर नया धब्बा न लगे क्योंकि दम्भ के समान दूसरा कोई पाप नहीं, हम अध्यात्म के अधिकारी तभी हो सकते हैं जब हमारा मन संवेदना से भरा हो, ज्ञान, भक्ति व कर्म का समन्वय ही हमें इस मार्ग पर आगे ले जा सकता है. नियमित साधना, पल-पल सजगता हमें अवांछित विचारों तथा भावों को मन में जड़ें जमाने से रोकेगी. धर्म वही सही है जो व्यवहार में उतरे वरना वह मनोविलास ही होगा. कथन, चिंतन और कर्म में समानता, हर कार्य में सौ प्रतिशत प्रयास ही हमें प्रगति की ओर ले जायेगा.

Sunday, January 6, 2013

तेरा तुझको अर्पण


जनवरी २००४ 
परमात्मा सदा हमारे साथ है, वह रहस्यमय भी है और स्वयं को प्रकट भी कर देता है, वह हमारी आत्मा का चिर सखा है, उसने हमें अनंत-अनंत शक्तियाँ दी हैं, हम उनका उपयोग करें या नहीं, कैसे करें, इसका निर्णय उसने हम पर छोड़ दिया है, लेकिन उसकी शरण में जाने पर वह हमें निर्देशित भी करता है और वह सदा हमारे हित के लिए ही सुख-दुःख भेजता है, बल्कि हमारे जीवन में घटने वाली घटनाएँ उस तक ले जाने में सहायक ही होती हैं, साधक को उसके योग्य बनना है, उससे प्रेम करने के योग्य उससे प्रेम पाने के योग्य...उसे जो भी करना है सब उसके लिए ही है.

Friday, January 4, 2013

भक्ति परम धन है


जनवरी २००४ 
भक्त को लगता है, परमात्मा हर पल उसके साथ है. ऑंखें मूंदते ही उसकी छवि प्रकट होती है, कानों में उसका स्वर गुंजित प्रतीत होता है. तन में प्राणों के रूप में वही विचरण करते प्रतीत होते हैं. वही सद्गुरु के रूप में आकर चेताते हैं. उसे लगता है, भीतर शील, सदाचार, प्रेम, क्षमा, दया, शांति का विकास हो रहा है तथा प्रमाद, क्रोध, मोह, लोभ, इर्ष्या आदि का नाश हो रहा है. ऐसा वह चाहते हैं वह जानता है, तभी वह ईश्वर के निकटतर हो जायेगा. ऐसा भक्त क्या हममें से हर कोई न बनना चाहेगा. न चाहते हुए भी जाने कितने अशोभनीय विचार हमारे भीतर उठते हैं, जाने कितने जन्मों के संस्कार दबे हैं भीतर, पर कृष्ण हमें तब भी प्रेम करते हैं, उनका प्रेम अहैतुक है, क्योंकि वह और कुछ कर ही नहीं सकते. 

Thursday, January 3, 2013

सहज हुए सब होता जाये


“मैंने यह किया, मुझे यह करना है और मैं यह करूँगा,” ऐसे संकल्प करने वाला मन सदा उलझा ही रहता है. वास्तव में जो हमें करना है वह सहज है, वह सप्रयास नहीं होता अपने आप होता है जैसे फूल का खिलना, सहज प्राप्त कर्त्तव्यों के पालन में, अपनी रूचि, योग्यता आदि के अनुसार करने वाले कार्यों में हमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, ऐसे कर्म हमें बांधते नहीं और हम त्रिगुणात्मक प्रकृति से परे हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं. मन तब भीतर की ओर जाने का सामर्थ्य पाता है और वहाँ उसे परम विश्राम का अनुभव होता है..निस्सीम, अनंत आनंद का अनुभव..जो परमेश्वर का अंश है. यह सकल सृष्टि उस परम के एक अंश मात्र में स्थित है और वह हमसे अहैतुक प्रेम करता है, उसका प्रेम वैसा ही स्वाभाविक है जैसे हमारा अपनी सन्तान के प्रति सहज ही होता है. ईश्वरीय प्रेम हमारे प्रेम से अनंत गुना अधिक है. उसका स्मरण यदि बना रहे तो हम पूर्ण तृप्ति का अनुभव करते हैं. उसके प्रेम का अभाव ही हमें दुखी करता है.

Wednesday, January 2, 2013

वह जो बसे मन में


जनवरी २००४ 
हमारे मन की वृत्तियाँ ही हमें ईश्वर से दूर रखती हैं, कभी स्मृतियों के बादल छा जाते हैं, कुहासा हो जाता है, कभी प्रमाद, निद्रा, आलस्य हमें सजग नहीं होने देते. कभी क्रोध, लोभ, ईर्ष्या आदि का धुआँ चिदाकाश को आवृत कर लेता है, तो परमात्मा रूपी सूर्य दिखाई पड़े भी तो कैसे. वह तो सदा सर्वदा हमारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहा है, देर हमारी तरफ से है, वह तो आनंद में भर कर नृत्य करने लगता है जब कोई साधक मन से मोह का पर्दा हटाकर उसे निहारने का प्रयास करता है, वह  उसकी कुशल-क्षेम का भी जिम्मा उठाने को तैयार है. उसकी कृपा का अनुभव होते ही मन स्थिर हो जाता है, जैसे लहरों में हिचकोले खाती हुई नाव अचानक एक नियमित गति को पा ले. नए वर्ष में क्यों न हम यही संकल्प करें कि जो ऊर्जा आजतक व्यर्थ ही इतर कामों में चली जाती थी, उसे भीतर प्रवेश करने में लगाएंगे, अर्थात ध्यान को जीवन का अंग बनाएंगे. ध्यान पूजा की पराकाष्ठा है. ध्यान में ही उसके होने का अनुभव साधक को पहली बार होता है. उसकी उपस्थिति कितनी मधुर, प्रेरक और मोहक है. जीवन अमूल्य है, क्योंकि उसका एक-एक क्षण उस परमपिता का प्रसाद है. हमारी एक-एक श्वास उसकी ऋणी है. इस सृष्टि के नियंता ने हमें इसका एक छोटा सा पुर्जा बनाया है, हमें एक कार्य सौंपा है, देह, मन व बुद्धि का वरदान दिया है. वह अकारण हितैषी हमारी आत्मा का प्रकाश बनकर सदा हमारे साथ है. वह हमें अपनी ओर खींचता है, वही साधन भी है वही साध्य भी. वह जादूगर है, वह जो स्वयं को स्वयं ही जानता है, वह जो प्रेम की ही भाषा समझता है, जो हमारे सम्मुख स्वयं को प्रकट करने में देर भी नहीं करता, वही हमारा आराध्य है.

Tuesday, January 1, 2013

दृश्य नहीं टिकें दृष्टा में


जनवरी २००४ 
हमें भोक्ता नहीं ज्ञाता बनना है, दृश्य नहीं द्रष्टा बनना है. भोक्ता सुख-दुःख का भागी है, ज्ञाता उन्हें  जानता अवश्य है पर उनसे अपने को लिप्त नहीं करता. वृत्तियाँ तब भी रहती हैं, पर द्रष्टा बन कर  हम उन्हें अपने से पृथक जानते हैं. वे आती हैं, जाती हैं, हम सदा अपने स्वरूप में बने रहते हैं, संसार चक्र से जीतेजी छूट जाते हैं. हम शक्ति, ऊर्जा, प्रेम, सामर्थ्य, ज्ञान तथा आनंद के रस से सराबोर हो जाते हैं. यह कोई काल्पनिक अवस्था नहीं है, यह अनुभूत अवस्था है, हजारों लोगों ने इसे सत्य कहा है, स्वयं अनुभव किया है. अज्ञान ही हमें इससे दूर रखता है, अज्ञान अपने होने का, जो देह या मन को ही स्वयं मानता है वह कभी इसे प्राप्त नहीं कर सकता, ये तो साधन मात्र हैं. इनसे एक होने पर हम अपने पद से नीचे गिर जाते हैं, हम मंगते हो जाते हैं, भिखारी कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता, जो अभाव का अनुभव करे वह भिखारी ही तो हुआ, हम बादशाहों के बादशाह होकर क्यों न जियें !