दिसंबर २००३
हमारा प्राप्तव्य यदि ऊँचा होगा तो साधन भी उत्तम अपनाएंगे. साध्य और साधन जब एक हो
जाते हैं, तब जीवन में समता आती है. हृदय जब समभाव में स्थित रहता है तब कर्मों के
बंधन नहीं बंधते. लक्ष्य यदि विस्मृत हो गया तो जीवन में पुलक नहीं रहती, रंग नहीं
रहता और ऐसा जीवन भारस्वरूप ही होता है खुद के लिए और अन्यों के लिए भी. मृत्यु का
सामना करने की तैयारी यदि हमने नहीं की तो सिवाय पछताने के कुछ हाथ नहीं आयेगा. उस
समय जो हमारे साथ जायेगी वह हमारी चेतना
होगी, प्रज्ञावान चेतना...प्रज्ञा तभी जगेगी जब जीवन में ध्यान होगा, मन स्थिर होगा,
उसके लिए ज्ञान चाहिए, ज्ञान भक्ति के बिना नहीं टिकता. भक्ति तभी मिलेगी जब
सुमिरन होता रहे औए सुमिरन तभी होगा जब परम ही हमारा लक्ष्य हो, उसे जानने व पाने
की चाह भीतर उठे. मन रूपी चरखे में जब श्वास रूपी धागा काता जाता है, और उन
श्वासों में उसके नाम की गूंज उठती है तब जो चादर बिनी जाती है वही प्रज्ञा है. तब
अंतर में आनंद का स्रोत छलकता है, उस सोते में सारे शिकवे-शिकायतें, चाहते डूब
जाती हैं, रह जाती है मात्र शीतलता और सहजता.