सितंबर २००३
मन यदि समता में रहे,
एकाग्र हो, शांत हो, निरपेक्ष हो तो जाग्रत अवस्था भी समाधि बन जाती है. ध्यान तब
करना नहीं पड़ता, अपने आप ही होता रहता है. जगत को जैसा यह है वैसा ही देखने की समझ
आ जाती है. रस्सी को तब सांप नहीं देखते. अपने आस-पास के वातावरण के प्रति सजग रहकर
हम स्वार्थहीन जीवन जीते हैं. हमारा चित्त इतना विशाल हो जाता है कि सभी के
स्वार्थ हमारे स्वार्थ में बदल जाते हैं. बल्कि सभी कुछ सहज ही होने लगता है. भेद
दृष्टि नहीं रहती, सभी व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों के पीछे एक ही तत्व के दर्शन
होते हैं, वही एक हम हैं, वही एक वह है, तब कैसी स्थिरता का अनुभव होता है.
मृत्यु, जन्म, बुढ़ापा, रोग भी तब अपना अर्थ बदल लेते हैं. हम शोक-रोग, राग-द्वेष
के भोक्ता न रहें तो यह हम पर असर नहीं डाल सकते. मन यदि संयमित हो तभी
सुखों-दुखों के जाल से बच सकता है, वरना तो हर कदम पर ठोकर खानी पड़ेगी. श्रेय और
प्रेय से चुनाव का मौका प्रकृति हमें हर पल देती है, हम अधिकतर प्रेय को चुनते
हैं, तात्कालिक सुख के लिए दीर्घकालिक सुख को भुला देते हैं, बाद में वही
तात्कालिक सुख, दुःख में बदल जाता है. सारा जीवन इसी तरह बीत जाता है. सजग होकर
देखें तो हर क्षण आनंद का अनुभव के लिए है, हर श्वास उसी का नाम लेने के लिए है.
बहुत मननीय विचार..आभार
ReplyDeleteआपको पढकर एक असीम शान्ति मिलती है ...
ReplyDeleteमन यदि समता में रहे, एकाग्र हो, शांत हो, निरपेक्ष हो तो जाग्रत अवस्था भी समाधि बन जाती है. ध्यान तब करना नहीं पड़ता, अपने आप ही होता रहता है. जगत को जैसा यह है वैसा ही देखने की समझ आ जाती है.
ReplyDeleteअसार संसार का बोध कराती
कैलाश जी, रश्मि जी व रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteएक एक अक्षर सत्य ।
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