सितम्बर २००३
उपनिषदों के अनुसार पहले ‘एक’ था, ‘एक’ से अनेक हुए. उस ‘एक’ को अकेलापन खला होगा जो
उसने अपने समान अनेकों को रचा. प्रकृति पर दृष्टिपात करके उसमे चेतना का संचार
किया, एक विभु आत्मा से अनेकों अणु आत्माओं की सृष्टि हुई, जो उसके सान्निध्य में प्रसन्न
थीं, फिर उसे एक खेल सूझा, आँख मिचौली का खेल. हमारी आँखों पर माया की पट्टी बांध दी
और स्वयं को खोजने को कहा, सभी भिन्न-भिन्न स्थानों पर सुख, शांति, प्रेम व आनंद
की तलाश करते हैं, क्योंकि यही तो उसकी पहचान है, पर वह बार-बार कहता है, “नहीं,
मैं यहाँ नहीं हूँ”. मानव उसे बाहर खोजता रहता है पर वह छिप गया है उसके भीतर ही कहीं
गहराई में. जो पट्टी खोलकर थोड़ी सी झलक पा लेता है, वह जान जाता है. उनका अनुभव
यदि हमारा भी अनुभव बन जाये तो हम भी जान जायेंगे कि यह जो न मालूम सी प्यास हृदय
में जगी है, यह जो उत्कंठा, व्याकुलता, यह जो कसक, कचोट, यह जो एक फांस सी दिल में
अटकी है, यह उसी की चाहत है, हमारी आशाओं, आकाँक्षाओं का केन्द्र वही तो है,
एकमात्र वही !
सत्य लिखा है अनीता जी आपने बेहद भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत गहन सत्य की और इंगित करती ये पोस्ट लाजवाब है ।
ReplyDeleteकम शब्दों में गूढ़ बातें
ReplyDeleteगहन भाव लिये उत्कृष्ट प्रस्तुति।
ReplyDeleteहमारी आशाओं, आकाँक्षाओं का केन्द्र वही तो है, एकमात्र वही ! और सत्य भी यही है,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ...: यादों की ओढ़नी
जानत उन्हे उन्हइ होइ जाई। गहन आत्मदर्शन प्रेरक चिंतन।
ReplyDeleteअरुण जी, राजेश जी, सदा जी, इमरान, धीरेन्द्र जी व देवेन्द्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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