Wednesday, October 10, 2012

जग वैसा जैसा हम देखें


जब तक हमारे भीतर विकार है तभी तक हमारी दृष्टि दूसरों में विकार देखती है. जब हमारा चित्त पूरी तरह निर्मल हो जाता है तो दुनिया में कहीं भी कोई त्रुटि नहीं दिखाई देती. संतों का ऐसा कहना है. यदि दिखाई दे भी तो उसके प्रति द्वेष नहीं जगता बल्कि स्नेह से उसे दूर करने का प्रयास अथवा तो शक्ति वह जगत को देता है. हम दोष देखकर स्वयं को ही पीड़ित करते हैं, और अपनी ऊर्जा का ह्रास करते हैं. हमें प्रतिक्रिया व्यक्त न करके उसके लिए कुछ करना होगा. यदि हम कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं तो अपने मन की शांति तो बनाये रख ही सकते हैं, उतना ही पर्याप्त होगा. यह जगत वैसा ही दिखाई पड़ता है जैसा हम इसे देखना चाहें, यह जगत उस प्रभु का ही तो उपहार है, वह स्वयं भी इसके कण-कण में ओत-प्रोत है. “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरति देखि तिन तैसी”. हम अपने अपने स्वभाव, रूचि और मन स्थिति के अनुसार एक कल्पना गढ़ लेते हैं और अस्तित्त्व की आवाज को अनसुना करते हैं, जो मन की कल्पनाओं से परे है, वह आनन्दमय, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और अनंत है. आकाश की तरह वह सभी कुछ अपने में समेटे हुए है अच्छा-बुरा उसके लिए समान है, वह राग-द्वेष से परे है. उसके सान्निध्य में रहकर हृदय में कोई अशुभ विचार टिक नहीं सकता, तत्काल भीतर से एक संदेश आता है और कोई सद्वचन जैसे हवा के झोंके की तरह आकर उस नकारात्मकता को अपने साथ लिए जाता है. 

6 comments:

  1. यह जगत वैसा ही दिखाई पड़ता है जैसा हम इसे देखना चाहें,

    बिलकुल सहमत हूँ बहुत सुन्दर आलेख ।

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  2. बहुत सुंदर विचार ....!!
    आभार अनीता जी ...!!

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  3. आँखों में उभरते चित्र,कानों में सुनाई देते शब्द और दिमाग की व्याख्या ....व्याख्या अपनी सोच से होती है ...सही कहा

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  4. आपने सही कहा,,,,
    “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरति देखि तिन तैसी”.

    MY RECENT POST: माँ,,,

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  5. अति सुंदर विचार।जैसी भावना तथा दृष्य।

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  6. इमरान, रश्मि जी, देवेन्द्र जी, धीरेन्द्र जी व अनुपमा जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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