सितम्बर २००३
संत जन कहते हैं अध्यात्म
के मार्ग पर लापरवाही नहीं चलेगी. हमारा हर कर्म शुद्ध से शुद्धतर फिर शुद्धतम
बनता जायेगा तभी मन निर्मल होगा. कबीर कहते हैं “ कबीर मन निर्मल भया ज्यों गंगा
का तीर, साहेब तब पीछे फिरत कहत कबीर कबीर” जीवन का उद्देश्य ही जब प्रेम प्राप्ति
हो तो लापरवाही अथवा शरीर के आराम की चिंता में ही लगे रहना मूर्खता ही कही
जायेगी. ईश्वर के प्रेम का अनुभव जिसे एकबार हो जाये उसे अन्य रस नहीं भाते,
प्रेमसुधा का रस इतना प्रभावशाली होता है कि एक बार चढ़ता है तो उसका असर समाप्त
नहीं होता क्योंकि मन भीतर ही भीतर उसे स्वयं में पाने लगता है. मीरा जब दैवीय
प्रेम से भरकर गाती थी तो उसका मन इसी रस से छलक रहा होता था, काश हम सभी उसे
महसूस कर पाते तो यह दुनिया बहुत सुंदर होती. हम एक-दूसरे को तब अपना बैरी नहीं
समझते, सभी के भीतर एक सत्ता है जो आनंद मय है, प्रेममय है, शांतिमय है, ज्ञानमय
है, हम सभी को इन्हीं की चाह है, इसी के कारण हम जगत में विभिन्न कार्यकलाप करते
हैं. यदि यह ज्ञात हो जाये कि जो हम बाहर ढूँढ रहे हैं वह तो पहले से ही हमारे पास
है तो यह स्वार्थ की दौड़ थम जाय. तब भी कार्य तो होंगे पर वे बंधन का कार्य नहीं
बनेंगे, तब हम मुक्त होंगे, सही अर्थों में तो आजादी तभी मिलती है जब मन मुक्त
होकर उस अपरिमेय, अनिवर्चनीय, अद्भुत रस का अनुभव कर सके, पर उसका स्वाद लेना कोई–कोई
ही जानता है, ईश्वर की कृपा और हृदय में सच्ची प्यास ही हमें इस पथ का राही बना
सकती है.
ईश्वर की कृपा और हृदय में सच्ची प्यास ही हमें इस पथ का राही बना सकती है.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने
ईश्वर की कृपा और हृदय में सच्ची प्यास ही हमें इस पथ का राही बना सकती है.
ReplyDeleteyahi jiwan ka saty hai
सदा सत्य रहने वाला कथन सुन्दर रचना
ReplyDeleteईश्वर की कृपा और मन में सच्ची लगन ही हमें इस पथ का राही बना सकती है,,
ReplyDeleteयही सत्य है,,,,,
RECECNT POST: हम देख न सके,,,
सदा जी, रमाकांत जी, अरुण जी व धीरेन्द्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteसुन्दर और ज्ञानमय हमेशा कि तरह।
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