सितम्बर २००३
मन आखिर है क्या, कुछ
संकल्प-विकल्प, कुछ आशाएं, कुछ विरोध, कुछ इच्छाएं, सब मिला-जुला कर मन बन जाता
है. थोड़ा गहराई से देखें तो मन कुछ है ही नहीं, इच्छाओं को हटाते जाएँ तो संकल्प-विकल्प
भी नहीं बचते, किसी से कोई विरोध रहता ही नहीं, जब सभी कुछ इसी क्षण हमारे पास है
तो भावी की कोई योजना भी नहीं रहती. भूत तो मृत है और समय कितनी तेजी से व्यतीत हो
रहा है, हर नया क्षण आते ही पूर्व क्षण मृत हो जाता है, केवल वर्तमान का क्षण
हमारे सम्मुख है तो मन कहाँ गया, मन अमनी भाव में चला जाता है, जो शेष बचा वह
शांति है, परम शांति, परम आनंद, क्योंकि मन ही माया का वह पर्दा है जो हमारे असली
स्वरूप और हममें दूरी बनाये हुए है. पर्दा हटते ही आत्मा का सूर्य अपने पूरे वैभव
के साथ चमचमा उठता है, उसमें हजारों बिंब उभरते हैं, अनेकों स्वर्ण रश्मियाँ तथा
बिंदु उभरते हैं, उन रंग-बिरंगे बिम्बों के मध्य कई आकृतियाँ बनती हैं. उस सौंदर्य
का वर्णन नहीं किया जा सकता जैसे कोई फिल्म की रील चल रही हो, ऐसे अनेकों दृश्य
आते हैं जाते हैं, जगत भी ऐस ही है यहाँ हर क्षण जल के बुदबुदों की तरह कितने
प्राणी जन्मते हैं फिर नष्ट होते हैं. बनना, बिगडना और कुछ क्षणों के लिए स्थित
रहना यही जीवन है. यह अस्थायी है पर स्थायी प्रतीत होता है, इस अस्थायीरूप को यदि
हम सत्य मान लें तो हिस्से में दुःख भी आएंगे सुख के पीछे-पीछे. मन के पार ही परम
सुख है.
रे मन क्यों तुम होत विकल।
ReplyDelete1* कुछ संकल्प-विकल्प, कुछ आशाएं, कुछ विरोध, कुछ इच्छाएं, सब मिला-जुला कर मन बन जाता है. थोड़ा गहराई से देखें तो मन कुछ है ही नहीं, इच्छाओं को हटाते जाएँ तो संकल्प-विकल्प भी नहीं बचते
ReplyDelete2*यदि हम सत्य मान लें तो हिस्से में दुःख भी आएंगे सुख के पीछे-पीछे. मन के पार ही परम सुख है.
एक यथार्थ
शिव ही स्रोत, शिव ही प्रवाह ....
ReplyDeleteसुन्दर रचना अनीता जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .......मन के जीते, जीत है .मन के हारे, हार
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, रमाकांत जी, रश्मि जी, अरुण जी, उपासना जी आप सभी सुधी जन का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteभूत तो मृत है और समय कितनी तेजी से व्यतीत हो रहा है, हर नया क्षण आते ही पूर्व क्षण मृत हो जाता है, केवल वर्तमान का क्षण हमारे सम्मुख है
ReplyDeleteबहुत गहन और सशक्त पोस्ट।