हमारी अपेक्षाएँ ही दुःख का कारण हैं, जैसे ही मन अपेक्षा से रहित हो जाता है,
प्रशांत अवस्था को प्राप्त होता है, ऐसी प्रशांति जो किसी बाह्य कारण पर निर्भर
नहीं है, जो तब उत्पन्न होती है जब मन भाव से भरा होता है, कृतज्ञता का भाव,
धन्यभागी होने का भाव, ऐसा भाव जो हमें संवेदनशील बनाता है, संवेदनशीलता अध्यात्म
की पहली सीढ़ी है, अन्यथा तो हम हृदयहीन कहलायेंगे. कोई भी सत्य हमें अपने मार्ग से
हटा नहीं सकता, वह आगे ही ले जाता है. मन में जो भी द्वंद्व उत्पन्न होते हैं वे
प्रेम के अभाव से ही होते हैं, प्रेम के लिए हमें प्रयत्न करना होगा, प्रेम संज्ञा
भी है क्रिया भी है. कृष्ण की नागलीला का वास्तविक अर्थ उसी प्रेम को भीतर जागृत कर
मन के द्वन्द्वों पर विजय पाना है. हमारा मन चाहे सजग न हो पर आत्मा सजग हो, अभी
बिलकुल उल्टा है, मन तो पूरी तरह तैयार है, पूरी सेना के साथ, पर आत्मा सुप्त है,
उसे अपने भीतर सजग करना है, विभिन्न कल्पनाओं ने न जाने कितने जन्मों में कितनी
बार हमें भरमाया है, पर अब और नहीं, विवेक को साधकर बुद्धि को तीक्ष्ण बनाना होगा
ताकि आत्मा तक पहुंचने का मार्ग बन सके.
अपेक्षाएँ ही हमारे दुःख का कारण हैं,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST LINK...: खता,,,
हमारी अपेक्षाएँ ही दुःख का कारण हैं.....अक्षरश: सहमत ।
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी, सदा जी, व इमरान आप सभी का स्वागत व आभार !
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