Wednesday, October 31, 2012

दमक उठे जब प्रेम का सूरज



हमारी अपेक्षाएँ ही दुःख का कारण हैं, जैसे ही मन अपेक्षा से रहित हो जाता है, प्रशांत अवस्था को प्राप्त होता है, ऐसी प्रशांति जो किसी बाह्य कारण पर निर्भर नहीं है, जो तब उत्पन्न होती है जब मन भाव से भरा होता है, कृतज्ञता का भाव, धन्यभागी होने का भाव, ऐसा भाव जो हमें संवेदनशील बनाता है, संवेदनशीलता अध्यात्म की पहली सीढ़ी है, अन्यथा तो हम हृदयहीन कहलायेंगे. कोई भी सत्य हमें अपने मार्ग से हटा नहीं सकता, वह आगे ही ले जाता है. मन में जो भी द्वंद्व उत्पन्न होते हैं वे प्रेम के अभाव से ही होते हैं, प्रेम के लिए हमें प्रयत्न करना होगा, प्रेम संज्ञा भी है क्रिया भी है. कृष्ण की नागलीला का वास्तविक अर्थ उसी प्रेम को भीतर जागृत कर मन के द्वन्द्वों पर विजय पाना है. हमारा मन चाहे सजग न हो पर आत्मा सजग हो, अभी बिलकुल उल्टा है, मन तो पूरी तरह तैयार है, पूरी सेना के साथ, पर आत्मा सुप्त है, उसे अपने भीतर सजग करना है, विभिन्न कल्पनाओं ने न जाने कितने जन्मों में कितनी बार हमें भरमाया है, पर अब और नहीं, विवेक को साधकर बुद्धि को तीक्ष्ण बनाना होगा ताकि आत्मा तक पहुंचने का मार्ग बन सके.

Tuesday, October 30, 2012

मिले समाधि से समाधान


हम सभी एक विशाल समष्टि के अंग हैं, इस नाते सभी एक-दूसरे से बंधे हैं पर हमारी अलग-अलग पहचान है, जब यह पहचान भी नहीं रहती तब मन सारी सीमाओं को तोड़कर असीम में मिल जाता है. हममें से हरेक की चेतना अनंत है पर हम छोटे-छोटे दायरों में बंधे होने के कारण उस विशालता का अनुभव नहीं कर पाते हैं. समाधि की अवस्था में सम्भवतः ऐसा ही अनुभव होता है, सारा का सारा ब्रह्मांड एक तत्व से बना है यह स्पष्ट होता है, फिर कोई भेद नहीं, अद्वैत का अनुभव होने के बाद अंतर में राग-द्वेष नहीं रह सकते.

Monday, October 29, 2012

तज कर ही वह मिलता है


अक्तूबर २००३ 
वेणुगीत में गोपियों ने तेरह श्लोकों में कृष्ण की स्तुति की है, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि व चित्त ये तेरह तत्व हैं. जीव रूपी गोपी को अहंकार तज कर इन तेरह को प्रभु में लगाना चाहिए. बुद्धि भी ऐसी जो प्रज्ञा में बदल जाये वरना बुद्धि का अहंकार शेष रहेगा, अध्यात्म पथ पर चलने वाले को दुनिया, स्वर्ग और यहाँ तक की परमात्मा की भी चाह छोड़ देनी होती है, फिर इस छोड़ने को भी छोड़ना होता है वरना त्याग का अहंकार ले डूबेगा. जब कुछ भी करना शेष न रहे, मन, बुद्धि सभी उस आत्मा में समाहित हो जाएँ तब जो रहता है वही परम सत्य है. उसे जानकर यह जगत एक क्रीड़ास्थल ही बन जाता है लेकिन उस स्थिति तक पहुंचना भी की कृपा के बिना सम्भव नहीं है, और वहाँ तक गए बिना प्रभु की कृपा मिलती भी नहीं. हमें प्रयास करना होगा तभी कृपा मिलेगी पर कृपा मिले बिना प्रयास भी कहाँ सम्भव है, यह तो विरोधाभास हुआ पर अध्यात्म के पथ पर सारे विरोधाभास नष्ट हो जाते हैं, वहाँ की रीति, नीति जगत की रीति से अलग है. उस सच्चिदानन्द घन की कृपा अपार है और वह सब पर, सब समय, समान रूप से बरस रही है, किसी विशेष स्थान पर वह विशेष प्रकट होती है. संत उनके हृदय में बसते हैं. उन्ही संतों को हम पावन भाव से भजते हैं तो हमारे हृदय भी पावन होने लगते हैं, और तब कभी न कभी हम भी उस विशेष कृपा के अधिकारी हो जाते हैं.

Sunday, October 28, 2012

दिल का फसाना



बुराई की बहुत सारी शक्लें हैं, बहुत सारे चेहरे हैं, पर बुराई अपनी असली शक्ल हमें नहीं दिखाती. वह सदा अच्छाई का लिबास ओढ़ कर आती है, उसमें इतनी हिम्मत नहीं कि अपने असली रूप में सामने आये. हम जब असत्य बोलते हैं तो यही कहते हैं कि सत्य बोल रहे हैं. बेईमानी करने वाला भी स्वयं को ईमानदार घोषित करता है. फरेब, धोखा, जुर्म सभी इतने कमजोर हैं कि उनको करने वालों को उनसे कोई सहारा नहीं मिल सकता. विकारों में उतनी ताकत नहीं जितनी संस्कारों में है. मानव का हृदय दोनों में से किसी की आधीनता स्वीकार नहीं करता. दिल ही हमारा सच्चा निर्णायक है. वह हमारा साथ तभी तक देता है जब तक हम सच्चाई के रास्ते पर चलते हैं, गलत कार्य करना तो दूर उसका विचार ही हमारे दिल को बेकाबू कर देता है. वह धड़क कर हमसे शिकायत करता है, हमें टोकता है, कचोटता है जिससे हम पुनः सही मार्ग पर आ सकें. अपने दिल पर यदि किसी की हुकुमत चलती है तो वह है उस दिलबर कि जो सारी कायनात का मालिक है, जिसने इस खूबसूरत दिल को बनाया है, यह खूबसूरत भी तभी तक है जब तक इसमें उसका निवास है.

Saturday, October 27, 2012

शिव ही सुंदर है


सितम्बर २००३ 
मन आखिर है क्या, कुछ संकल्प-विकल्प, कुछ आशाएं, कुछ विरोध, कुछ इच्छाएं, सब मिला-जुला कर मन बन जाता है. थोड़ा गहराई से देखें तो मन कुछ है ही नहीं, इच्छाओं को हटाते जाएँ तो संकल्प-विकल्प भी नहीं बचते, किसी से कोई विरोध रहता ही नहीं, जब सभी कुछ इसी क्षण हमारे पास है तो भावी की कोई योजना भी नहीं रहती. भूत तो मृत है और समय कितनी तेजी से व्यतीत हो रहा है, हर नया क्षण आते ही पूर्व क्षण मृत हो जाता है, केवल वर्तमान का क्षण हमारे सम्मुख है तो मन कहाँ गया, मन अमनी भाव में चला जाता है, जो शेष बचा वह शांति है, परम शांति, परम आनंद, क्योंकि मन ही माया का वह पर्दा है जो हमारे असली स्वरूप और हममें दूरी बनाये हुए है. पर्दा हटते ही आत्मा का सूर्य अपने पूरे वैभव के साथ चमचमा उठता है, उसमें हजारों बिंब उभरते हैं, अनेकों स्वर्ण रश्मियाँ तथा बिंदु उभरते हैं, उन रंग-बिरंगे बिम्बों के मध्य कई आकृतियाँ बनती हैं. उस सौंदर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता जैसे कोई फिल्म की रील चल रही हो, ऐसे अनेकों दृश्य आते हैं जाते हैं, जगत भी ऐस ही है यहाँ हर क्षण जल के बुदबुदों की तरह कितने प्राणी जन्मते हैं फिर नष्ट होते हैं. बनना, बिगडना और कुछ क्षणों के लिए स्थित रहना यही जीवन है. यह अस्थायी है पर स्थायी प्रतीत होता है, इस अस्थायीरूप को यदि हम सत्य मान लें तो हिस्से में दुःख भी आएंगे सुख के पीछे-पीछे. मन के पार ही परम सुख है.

Friday, October 26, 2012

जिन ढूंढा तिन पाइयाँ


प्रभु अपने भक्तों को अपना दर्शन देते हैं, वे उसको अपना पता बताते हैं जो उनसे पूछता है. वे उसके लिए अपना भेद खोल देते हैं जो उन्हें प्रेम करता है. वे हमारी बुद्धि को प्रज्ञा में बदलते हैं. वे ही हमें इस क्रीड़ास्थल पर भेजते हैं और वे ही इस खेल के नियम भी बतलाते हैं और परिणाम भी. हमें इसे खेल भावना से खेलना है तभी हम इसका पूरा आनंद ले सकते हैं. लेकिन अन्ततः घर लौटना है, वह  घर है उसका सान्निध्य, वहाँ पुष्ट होकर पुनः पुनः इस जगत में आना होता है, पर जिसका मन इस खेल से भर जाये वह सदा के लिए उनके सान्निध्य में रह सकता है. इसे ही निर्वाण कहते हैं. निर्वाण का अनुभव इस जगत में भी हम करते हैं, गहरी नींद में जब हमें अपना भान नहीं रहता, हम प्रायः मृत ही हो जाते हैं, पुनः जगते हैं अथवा जन्मते हैं. ध्यान में भी जब देह का भान नहीं रहे, समय का पता न चले तब उसकी झलक पाते हैं. यह सब मौन में ही अनुभव होता है, अत्यंत सूक्ष्म यह भाव टिकता नहीं पर इसकी स्मृति ही ताजगी से भर देती है.

Thursday, October 25, 2012

यहाँ दम दम पे होती है पूजा...


सितम्बर २००३ 
प्रतिपदा है नवरात्रि का शुभारम्भ, दुर्गापूजा का महोत्सव आरम्भ होता है इसी दिन से. अमावस्या को पितरों को जल अर्पण करने का दिन. हमारी संस्कृति में मृतकों के प्रति सम्मान दिखाने के लिए भी कितना आयोजन है, हम ही हैं जो अपनी शुभ संस्कृति को भूलते जा रहे हैं. हमारे जीवन का जो परम लक्ष्य है, सभी शुभकर्म उस तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध होते हैं. किन्तु पूजा भी यदि सामान्य कर्म बन जाये तो उतना लाभ नहीं होगा जितना तब यदि हमारे सारे कर्म ही पूजा बन जाएँ. हम भी कह सकें कि यहाँ दम दम पे होती है पूजा सर उठाने की फुर्सत नहीं है....संतजन यही तो कहते हैं, हमें उनके ज्ञान के उजाले से अपने भीतर उजाला भरना है, उनके वचन अनमोल मोतियों की तरह उनके भीतर के अकूत खजाने से झरते हैं, यदि हम उसका शतांश भी ग्रहण कर सकें तो अपने लक्ष्य को पा सकते हैं. हमारे जीवन को शुभतर तथा शुभतम बनाने के लिए जितने उपाय वह बताते हैं, वह अनंत ज्ञान सहज ही उनके मुख से झरता है, उनकी आँखों से प्रेम झरता है तथा पोर-पोर से कृपा झरती है यदि कोई भाग्यशाली उसे पा ले तो धन्य हो जाये. लेकिन गुरु का सान्निध्य विरलों को ही मिलता है क्योकि वे ही उसकी आकांक्षा करते हैं, भौतिक दूरी अध्यात्म में कोई मायने नहीं रखती यह भाव लोक है, जिसमें वे सदा हमारे साथ हैं, उनका प्रेम हमारे साथ ही है, उसी से हमें अपने भीतर के ढके  छिपे ज्ञान को उभारना है, जोत जलानी है, अंतर के तिमिर को हरना है. माँ दुर्गा हमारे विकार रूपी असुरों का दमन करें, जिससे शरद की शुभ्र चांदनी रूपी ज्ञान की ज्योति जगमगा उठे.

Friday, October 19, 2012

दूर से दूर और निकट से निकट


सितम्बर २००३ 
उपवास का दिन साधना का विशेष दिन है, यूँ तो साधक के लिए हर घड़ी, हर क्षण साधना का क्षण है, उसे अनुभव होता है कि अपने कर्त्तव्यों में, भौतिक कार्यों में थोड़ी असावधानी बरती तो तुरंत मन स्वयं को फटकारने लगता है. वह कौन है जो भीतर से सचेत करता रहता है, सुबह जगाता है, जो एक प्यास जगाए रखता है भीतर, हम गलत रास्ते पर जा रहे हों तो सजग रखता है. वह  परमात्मा जिसे अपना सुह्रद, हितैषी माना है, जो अकारण दयालु है, जो हमसे प्रेम करता है, हम उ सके प्रेम के पात्र हैं अथवा नहीं वह इसकी रंच मात्र भी प्रवाह नहीं करता, वह जो प्रेम से परिपूर्ण है, वही हमें सजग करता है. साधना का पथ जितना सरल है उतना ही दुर्गम भी. यहाँ तो सर कटाने के लिए हर क्षण तैयार रहना पड़ता है, स्वयं को मिटा देना होता है, पर जब हम स्वयं को सर्वोपरि मानने लगें सिर्फ इसलिए कि हम साधक हैं तो हम उससे दूर ही रह जाते हैं. वह जितना निकट है उतना ही दूर है ! उसमें सारे द्वंद्व समाते हैं, वह द्वन्द्वातीत है. वह दुर्लभ है पर अलभ्य नहीं. उसकी ओ र यदि हम एक कदम बढाते हैं तो वह हजार कदमों से हमारी ओर आता है. वह अपने स्वभाव का परित्याग कभी नहीं करता पर हम सुविधानुसार अपना स्व भूलते व याद करते हैं, हम जिस क्षण भी अपने ‘स्व’ को भूलते हैं वह क्षण हमारे लिए दुखद बनता है. साधना का लक्ष्य तो सदा के लिए समस्त दुखों से मुक्ति है, ऐसे दुःख जो अज्ञानवश उत्पन्न हुए हैं, दूसरों के दुःख में दुखी होना करुणा है. हमारे स्व का विस्तार तभी होता है, जब हम सभी में उसी का दर्शन करते हैं.

Thursday, October 18, 2012

एक वही न दूजा कोई


सितम्बर २००३ 
ईश्वर का नाम भक्त के हृदय को पवित्र करता है, उसे नाम जपने में कभी आलस्य नहीं होता. अच्छा लगता है और एक वक्त ऐसा भी आता है जब नाम सुमिरन के अतिरिक्त बात करना भी बोझ मालूम पड़ता है. सचमुच अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले निराले होते हैं. जगत से उल्टा होता है उनका व्यवहार, वे संसारिक बातों में दक्ष न हों पर अपने चिर सखा के सम्मुख सत्य में स्थित होते हैं. ईश्वर के सम्मुख वे अपने पूर्ण होशोहवास में प्रस्तुत होते हैं और तभी तत्क्षण उसकी उपस्थिति का अहसास भी करते हैं. उन्हें वह इतना प्रिय, प्रियतर, प्रियतम लगता है कि उसके सिवा सब कुछ फीका लगता है. लेकिन यह जगत भी तो उसी का प्रतिबिम्ब है, उसी के कारण आकाश में नीलिमा का आभास होता है और जल में हरीतिमा का. वही भीतर है और वही बाहर है. वही हमें सम्भालता है वही हमारी रक्षा करता है. वही धर्म है, वही न्याय है, वही ज्ञान है, वही सदबुद्धि है, वही मंगल है, वही शिव है, वही जीवन है, वही जीवनदाता है, वह एक है पर उसके नाम अनेक हैं, उसके रूप अनेक हैं, वह सुखमय है, वह रसमय है, वह सुखद है, अद्भुत है, नित्य है, चिरसखा है, अनंत है, आनंद है,  शांति प्रदाता है, वही साधना है, वही साध्य है, वही साधन है, वही श्रेय है वही प्रेय भी !

Wednesday, October 17, 2012

घड़ी घड़ी में बरसे अमृत


सितंबर २००३ 
मन यदि समता में रहे, एकाग्र हो, शांत हो, निरपेक्ष हो तो जाग्रत अवस्था भी समाधि बन जाती है. ध्यान तब करना नहीं पड़ता, अपने आप ही होता रहता है. जगत को जैसा यह है वैसा ही देखने की समझ आ जाती है. रस्सी को तब सांप नहीं देखते. अपने आस-पास के वातावरण के प्रति सजग रहकर हम स्वार्थहीन जीवन जीते हैं. हमारा चित्त इतना विशाल हो जाता है कि सभी के स्वार्थ हमारे स्वार्थ में बदल जाते हैं. बल्कि सभी कुछ सहज ही होने लगता है. भेद दृष्टि नहीं रहती, सभी व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों के पीछे एक ही तत्व के दर्शन होते हैं, वही एक हम हैं, वही एक वह है, तब कैसी स्थिरता का अनुभव होता है. मृत्यु, जन्म, बुढ़ापा, रोग भी तब अपना अर्थ बदल लेते हैं. हम शोक-रोग, राग-द्वेष के भोक्ता न रहें तो यह हम पर असर नहीं डाल सकते. मन यदि संयमित हो तभी सुखों-दुखों के जाल से बच सकता है, वरना तो हर कदम पर ठोकर खानी पड़ेगी. श्रेय और प्रेय से चुनाव का मौका प्रकृति हमें हर पल देती है, हम अधिकतर प्रेय को चुनते हैं, तात्कालिक सुख के लिए दीर्घकालिक सुख को भुला देते हैं, बाद में वही तात्कालिक सुख, दुःख में बदल जाता है. सारा जीवन इसी तरह बीत जाता है. सजग होकर देखें तो हर क्षण आनंद का अनुभव के लिए है, हर श्वास उसी का नाम लेने के लिए है.

जगा हुआ सोया सोया सा


सितम्बर २००३ 
नींद भी प्राकृतिक समाधि ही तो है, नींद में सोया व्यक्ति लोभ, क्रोध, मोह से परे हो जाता है, उसका चेहरा कितना निष्पाप लगता है. वह सारे सुखों-दुखों से परे हो जाता है. ध्यान में भी हम ऐसी ही अवस्था का अनुभव करते हैं किन्तु जागते हुए. ऐसी अवस्था में कई गांठें जो हमारे भीतर बंधी थीं अपने आप खुलने लगती हैं. जो भी घटना भीतर घटेगी वह अपने आप ही होगी, हमारा प्रयास कुछ भी नहीं कर पायेगा, हम जो भी करेंगे वह बुद्धि के स्तर पर ही होगा, पर हमें तो बुद्धि के परे जाना है. बुद्धि के पार प्रज्ञा है जो बुद्धि को तीक्ष्ण और तीक्ष्णतर करते जाने से प्राप्त होती है. भावलोक भी वहीं से प्रारम्भ होता है, वहीं से दिव्यता हमारा हाथ थामकर आगे ले जाती है, वह हमें हमारी क्षमता के अनुसार राह दिखाती है और एक बार मंजिल की झलक भी दिखा देती है. 

Tuesday, October 16, 2012

एक राज है जीवन सारा


सितम्बर २००३ 
मुक्ति को पाना कितना सहज है. मन खाली हो तो मुक्त है. कोई चाह नहीं, कोई संकल्प-विकल्प नहीं उठते तो मन रहता ही नहीं. मन जो व्यर्थ ही हम पर शासन करता है. हम गुलाम बन के रह जाते हैं, और झूठा जीवन जीते हैं जबकि सच्चाई हर वक्त हमारे साथ होती है. वह परम सत्य, परमेश्वर हमारी आत्मा का नित्य संगी है. पर मन हमारे व उसके बीच एक पर्दा डाले रहता है. हम व्यर्थ ही स्वयं को खपाते, रुलाते और सताते, तपाते हैं. हम जीवन के मर्म को जाने बिना ही जीवन जीते हैं. तत्व को जाने बिना मुक्ति नहीं, विकारों से मुक्ति, कुविचारों से मुक्ति, सुविचारों से भी अन्ततः मुक्ति, कोई द्वंद्व नहीं, केवल सहज भाव से अपने होने का अनुभव, कितना विचित्र है यह अनुभव, कितना प्रेम भरा, नित्यता की खोज हमें प्रेम तक पहुंचाती है. हमारी साधना का लक्ष्य प्रेम ही तो है, ईश्वरीय प्रेम, जो हमें उसकी हर वस्तु से प्रेम करना सिखाता है. पुलक फिर रग-रग में भर जाती है और जीवन का रहस्य हथेली पर रखे आंवले सा समझ में आने लगता है.

Monday, October 15, 2012

छुप गया कोई रे..


सितम्बर २००३ 
उपनिषदों के अनुसार पहले ‘एक’ था, ‘एक’ से अनेक हुए. उस ‘एक’ को अकेलापन खला होगा जो उसने अपने समान अनेकों को रचा. प्रकृति पर दृष्टिपात करके उसमे चेतना का संचार किया, एक विभु आत्मा से अनेकों अणु आत्माओं की सृष्टि हुई, जो उसके सान्निध्य में प्रसन्न थीं, फिर उसे एक खेल सूझा, आँख मिचौली का खेल. हमारी आँखों पर माया की पट्टी बांध दी और स्वयं को खोजने को कहा, सभी भिन्न-भिन्न स्थानों पर सुख, शांति, प्रेम व आनंद की तलाश करते हैं, क्योंकि यही तो उसकी पहचान है, पर वह बार-बार कहता है, “नहीं, मैं यहाँ नहीं हूँ”. मानव उसे बाहर खोजता रहता है पर वह छिप गया है उसके भीतर ही कहीं गहराई में. जो पट्टी खोलकर थोड़ी सी झलक पा लेता है, वह जान जाता है. उनका अनुभव यदि हमारा भी अनुभव बन जाये तो हम भी जान जायेंगे कि यह जो न मालूम सी प्यास हृदय में जगी है, यह जो उत्कंठा, व्याकुलता, यह जो कसक, कचोट, यह जो एक फांस सी दिल में अटकी है, यह उसी की चाहत है, हमारी आशाओं, आकाँक्षाओं का केन्द्र वही तो है, एकमात्र वही !  

Friday, October 12, 2012

वह छुप न सकेगा परमात्मा


सितम्बर २००३ 
अनंत-अनंत ब्रह्मांडो का रचियता वह परब्रह्म रसमय है. जिसकी सत्ता से सृष्टि अनंत काल से चली आ रही है, न जाने कितनी बार कितने रूपों में हम इसके अनोखे खेल देखते आये हैं, हम प्रथम बार कब इस धरा पर आये थे, कौन जानता है ? शायद जब से यह सृष्टि है तभी से हम भी यहाँ हैं, और शरीर के न रहने पर भी हमारी सत्ता ऊर्जा के रूप में तो यहाँ रहेगी ही, तो जैसे वह परम सत्य अनादि है, अनंत है, वैसे ही उसने हमें भी बनाया है. उसका हमारा सम्बन्ध बहुत पुराना है, वह जानता है पर हम भूले रहते हैं. माया का आवरण डालकर वह जादूगर हमें भुलावे में डाल देता है. पर कभी-कभी किसी जन्म में संत कृपा से माया का पर्दा हटता है, और हमें अपने वास्तविक स्वरूप की झलक मिलती है, तब लगता है जिन वस्तुओं को हम इतना महत्व दे रहे हैं, वे तो बिना नींव की हैं, उनका कोई आधार ही नहीं है, वे हर पल बदल रही हैं. हमारा शरीर भी निरंतर अनित्य की ओर जा रहा है, ऐसा हो सकता है कि किसी एक दिन यह जगत हमारी आँखों से लुप्त हो जाये, हम पुनः एक नए शरीर में डाल दिए जाएँ, उससे पूर्व ही इन रहस्यों को जीना होगा. संत बताते हैं कि जैसे बादल, चाँद, तारे आदि आकाश में स्थित है पर आकाश उनसे अलिप्त है, वैसे भी वह परमात्मा हमारे भीतर है और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से परे है. 

Thursday, October 11, 2012

मन लहर आत्मा सागर


सितम्बर २००३ 
सागर में निरंतर लहरें उठती-गिरती हैं, तट से टकरा कर लौट जाती हैं, तट पर बैठा व्यक्ति उन्हें देखता है, उनसे पृथक रहकर वह उन्हें अनुभव करता है वैसे ही हमारे मन-सिंधु में निरंतर सुख-दुःख की लहरें आती-जाती हैं, हम उन्हें देखते रहें तो वे अपने-आप ही चली जाती हैं, इस तरह हम पूर्व जन्मों के तथा इस जन्म के पूर्व कर्मों के फलों को काटते जाते हैं, यदि सुख-दुःख के भोक्ता बने तो नए बीज डाल दिए, जिन्हें भविष्य में काटना होगा तथा यह चक्र अनवरत चलता ही रहेगा. सत्संग से हमारे पूर्व संस्कार नष्ट होते हैं तथा नित नए सात्विक संस्कार बनते हैं जो बंधन में डालने के लिए नहीं वरन् मुक्त करने के लिए हैं. इस ज्ञान में स्थित हैं तो कोई भय प्रतीत नहीं होता, कोई भी इच्छा बांधती नहीं. मन पंछी मुक्त हो उड़ता है. हमारे भीतर ही पशुता, मानवीयता और देवत्व छिपा है. साक्षी भाव मानवीयता को विकसित करते हुए देवत्व तक ले जाता है, हम मांगने की प्रथा छोड़कर देने की स्थिति में आ जाते हैं. आत्मा स्वयं में पूर्ण है, संसार से हमें ऐसा कुछ भी नहीं मिल सकता जो पहले से ही उसमें नहीं है, फिर पूर्ण अपूर्ण को क्या दे सकता है. प्रेम, आनंद, शांति, संतुष्टि, ज्ञान यह सभी भीतर हैं और एक बार मिल जाने के बाद कभी खोते नहीं. साक्षी अलिप्त है, सदा एकरस और सदा उत्साह से परिपूर्ण. वह नित्य सक्रिय है, वह ऊर्जा है, ऊर्जा का अपरिमित भंडार, वह द्रष्टा है और स्रष्टा भी वही है.

Wednesday, October 10, 2012

जग वैसा जैसा हम देखें


जब तक हमारे भीतर विकार है तभी तक हमारी दृष्टि दूसरों में विकार देखती है. जब हमारा चित्त पूरी तरह निर्मल हो जाता है तो दुनिया में कहीं भी कोई त्रुटि नहीं दिखाई देती. संतों का ऐसा कहना है. यदि दिखाई दे भी तो उसके प्रति द्वेष नहीं जगता बल्कि स्नेह से उसे दूर करने का प्रयास अथवा तो शक्ति वह जगत को देता है. हम दोष देखकर स्वयं को ही पीड़ित करते हैं, और अपनी ऊर्जा का ह्रास करते हैं. हमें प्रतिक्रिया व्यक्त न करके उसके लिए कुछ करना होगा. यदि हम कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं तो अपने मन की शांति तो बनाये रख ही सकते हैं, उतना ही पर्याप्त होगा. यह जगत वैसा ही दिखाई पड़ता है जैसा हम इसे देखना चाहें, यह जगत उस प्रभु का ही तो उपहार है, वह स्वयं भी इसके कण-कण में ओत-प्रोत है. “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरति देखि तिन तैसी”. हम अपने अपने स्वभाव, रूचि और मन स्थिति के अनुसार एक कल्पना गढ़ लेते हैं और अस्तित्त्व की आवाज को अनसुना करते हैं, जो मन की कल्पनाओं से परे है, वह आनन्दमय, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और अनंत है. आकाश की तरह वह सभी कुछ अपने में समेटे हुए है अच्छा-बुरा उसके लिए समान है, वह राग-द्वेष से परे है. उसके सान्निध्य में रहकर हृदय में कोई अशुभ विचार टिक नहीं सकता, तत्काल भीतर से एक संदेश आता है और कोई सद्वचन जैसे हवा के झोंके की तरह आकर उस नकारात्मकता को अपने साथ लिए जाता है. 

भक्ति कहो या प्रेम..


प्रेम कितने-कितने रूपों में हमारे सम्मुख आता है कई बार हमें स्वयं भी ज्ञात नहीं होता कि किसी के प्रति इतना प्रेम हमारे अंतर में छिपा है, पर वह अपना मार्ग स्वयं ही ढूँढ लेता है. यदि हमें किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति से प्रेम है तो वह वहाँ तक जाने का मार्ग स्वयं ही तलाश कर लेगा, प्रेम सच्चा है यही उसकी परख है. उसके सम्मुख फिर संसार की कोई बाधा नहीं रह जाती, वह ऊँचा हो जाता है, हमारा मन, बुद्धि, भावनाएँ सभी उस पावन प्रेम की बाढ़ में बह जाती हैं. जिस क्षण हम ऐसा विशुद्ध प्रेम पाते हैं, वह क्षण भी दैवीय होता है और वह क्षण एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया की परिणति होता है, यकायक हम इतना सारा प्रेम तभी अनुभव करते हैं जब अचानक कोई निधि मिल जाये, फिर उसे धीरे-धीरे अपने भीतर समोने लगते हैं, जब पोर-पोर में वह रिस रहा होता है तो हम यह जानते भी नहीं, फिर एक क्षण में वह प्रकट होता है अपने पूर्ण वैभव के साथ. ईश्वर के प्रति प्रेम भी ऐसे ही धीरे-धीरे मन में एकत्र होता जाता है. ईश्वर से जो प्रेम हमें हर पल मिलता है हम उसे सहेजते जाते हैं अन्जाने ही, फिर वही प्रेम कभी आँखों से बह निकलता है, तो कभी कोई गीत बनकर. प्रेम एक बहुत उच्च भावना है, यह कचोटती भी है, सहलाती भी है, यह हमें उदात्त बनाती है, हम प्रिय का हित चाहते हैं और अधिक प्रेम में भर जाते हैं. संत इसी प्रेम को भक्ति का नाम देते हैं, प्रेम के लिए प्रेम ! एक अनवरत धारा जो प्रिय के प्रति हमारे मन में बहती है, चाहे वह उसे जाने अथवा नहीं हमें इसकी परवाह नहीं होती, क्योंकि प्रेम अपना मार्ग खोज ही लेता है. 

Tuesday, October 9, 2012

भीतर एक शांति अनुपम


सितम्बर २००३ 
मौन में जो आनंद है, वह अन्यत्र नहीं है, चुपचाप बैठकर भीतर-बाहर मधुर संगीत को सुनने का अनुभव अनुपम है. ध्यान की गहन शांति मोहती है. मौन में एक अनोखा आकर्षण है. मन जब भीतर से खाली हो जाता है, संकल्प-विकल्प, आशा-निराशा, सुख-दुःख के द्वंद्वों से अतीत तब भीतर जो गूंज उठती है उसका संग-साथ प्रेरणास्पद है. वह आश्वासन भरा मौन है, वह हम सहज करने वाला है, वह हमें प्रेम से भर देने वाला है, प्रेम भी ऐसा, जो निःशब्द है, जो हित चाहता है, जो मुक्त करता है, जो प्रश्न नहीं करता, जो बस है, न ही वह प्रमाण देता है. ओढ़ा गया मौन हम असहज बना सकता है. पर जो मौन भीतर से आता है वह अडोल है, जिसे कोई बाहरी व्यवधान भंग नहीं कर सकता. मानो पूरे ब्रह्मांड में साधक अकेला हो, पर इसमें कोई भय नहीं है, यह एकांत परम के सामीप्य में रहने का अवसर देता है, यह सुखद है.

Monday, October 8, 2012

ज्ञान साधना है


सितम्बर २००३ 
ज्ञान हमें मुक्त करता है. आत्मभाव में स्थित रहें यही तो ज्ञान है. ज्ञान में स्थित रहकर यदि कोई सत्य का अनुसंधान करता है, जगत उसके लिए अमृत बन जाता है. अनन्य निष्ठा तथा अनवरत सुमिरन और उसे पाने की चाह यदि बनी रहे तो ज्ञान हृदय में स्थिर होगा. हमारा मन उन्मुक्त गगन में विचरण करेगा. भीतर जो कतरा है वही दरिया बन जायेगा. कभी ऐसा भी प्रतीत हो कि कहीं न कहीं हमारे कर्त्तव्य निर्वाह में त्रुटि हो रही है, पर इससे मन की प्रसन्नता तथा शांति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह अखंड है, वह परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती. आत्मभाव में रहने वाला मन अब यूँही विषादग्रस्त कैसे हो सकता है. वह निर्भार, निर्दोष और सहज होकर पल-पल आनंद में जीता है.

Thursday, October 4, 2012

साहेब तब पीछे फिरत


सितम्बर २००३ 
संत जन कहते हैं अध्यात्म के मार्ग पर लापरवाही नहीं चलेगी. हमारा हर कर्म शुद्ध से शुद्धतर फिर शुद्धतम बनता जायेगा तभी मन निर्मल होगा. कबीर कहते हैं “ कबीर मन निर्मल भया ज्यों गंगा का तीर, साहेब तब पीछे फिरत कहत कबीर कबीर” जीवन का उद्देश्य ही जब प्रेम प्राप्ति हो तो लापरवाही अथवा शरीर के आराम की चिंता में ही लगे रहना मूर्खता ही कही जायेगी. ईश्वर के प्रेम का अनुभव जिसे एकबार हो जाये उसे अन्य रस नहीं भाते, प्रेमसुधा का रस इतना प्रभावशाली होता है कि एक बार चढ़ता है तो उसका असर समाप्त नहीं होता क्योंकि मन भीतर ही भीतर उसे स्वयं में पाने लगता है. मीरा जब दैवीय प्रेम से भरकर गाती थी तो उसका मन इसी रस से छलक रहा होता था, काश हम सभी उसे महसूस कर पाते तो यह दुनिया बहुत सुंदर होती. हम एक-दूसरे को तब अपना बैरी नहीं समझते, सभी के भीतर एक सत्ता है जो आनंद मय है, प्रेममय है, शांतिमय है, ज्ञानमय है, हम सभी को इन्हीं की चाह है, इसी के कारण हम जगत में विभिन्न कार्यकलाप करते हैं. यदि यह ज्ञात हो जाये कि जो हम बाहर ढूँढ रहे हैं वह तो पहले से ही हमारे पास है तो यह स्वार्थ की दौड़ थम जाय. तब भी कार्य तो होंगे पर वे बंधन का कार्य नहीं बनेंगे, तब हम मुक्त होंगे, सही अर्थों में तो आजादी तभी मिलती है जब मन मुक्त होकर उस अपरिमेय, अनिवर्चनीय, अद्भुत रस का अनुभव कर सके, पर उसका स्वाद लेना कोई–कोई ही जानता है, ईश्वर की कृपा और हृदय में सच्ची प्यास ही हमें इस पथ का राही बना सकती है. 

Wednesday, October 3, 2012

प्रेम ही साधना है


सितम्बर २००३ 
यीशु के उपदेश दिल को छू लेते हैं, प्रेम से छलकता उसका हृदय हमारे हृदयों को स्पंदित कर जाता है. वह गड़रिया है और हम उसकी शरण में हैं, हम उसकी अंगूर की बारी हैं वह हमें रोपता है फिर हमारा ध्यान रखता है. हम उसके आश्रित हों तो वह हमें धरती का नमक भी बना सकता है. वह चुन-चुन कर हमारे दोषों को दिखाता है फिर उन्हें दूर करने को कहता है. वह प्रेम को सर्वोपरि मानता  है, हम सभी मूलतः प्रेम की उपज हैं. यह जगत प्रेम के आश्रित है. यीशु भी भक्त को कान्हा की तरह प्रिय हैं, वैसे ही जैसे कबीर, नानक, तुलसी, और अन्य संत, माँ शारदा, रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानंद. प्रीति ही हमें जगत में स्थिरता प्रदान करती है. प्रीति यदि सच्ची हो तो हृदय को पवित्र बनाती है और उसमें दृढ़ता भी भरती है, तब संसार भयभीत नहीं करता, अज्ञान ही भय का कारण है, और अहंकार ही अज्ञान का कारण है. अहंकारी अंतर प्रेम नहीं कर सकता और न ही उस प्रेम का अनुभव कर सकता है जो दिव्य है, जो किसी बाह्य वस्तु पर आश्रित नहीं है. वह रस अमृत के समान है जिसे एकबार पा लेने के बाद संसारी सुख उसी तरह फीके पड़ जाते हैं जैसे सूर्य निकलने पर चन्द्रमा. ईश्वर की कृपा के बिना यह रस हमें नहीं मिलता. ध्यान के लिए योग्यता और सामर्थ्य हमें प्राप्त नहीं होता. सद्गुरु के कितने उपकार हैं कि उनका ज्ञान एक पथ दिखाता है जिस पर चलकर हम लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं, लक्ष्य है-अंतहीन प्रेम..अनंत प्रेम. 

नानक दुखिया सब संसार


सितम्बर २००३ 
हमें कृष्ण की परा प्रकृति का अंश होना है, जो शाश्वत है, चिन्मय है, नित्य है, सत्य है. यह संसार दुखों का घर है. विभिन्न प्रकार के रोगों, कष्टों, और तापों से ग्रस्त प्राणी यहाँ अनवरत दुःख पा रहे हैं. कहीं आतंक का शिकार होते हैं, कहीं प्राकतिक आपदाओं के, कहीं अपनी ही गलती के कारण  दुर्घटना का शिकार तो कहीं दूसरों की गलती के कारण. कौन है जो इस भट्टी में नहीं तप रहा है. एक मात्र सद्गुरु ही ऐसा है जो इन सबसे परे है, जगत के व्यापर उसे छू भी नहीं पाते. दुःख देखकर उसका हृदय द्रवित तो होता है पर पीड़ित नहीं होता. वह स्वयं के ज्ञान से इतना परिपूर्ण हो चुका है कि कुछ पाना उसके लिए शेष नहीं रह गया है. वह सिर्फ देना चाहता है. उसके पास जो है वह जगत के पास नहीं है. जिसमें सहज स्वाभाविक रूप से संतों के प्रति प्रेम है, सद्वचनों तथा सत्संग के प्रति गहरा आकर्षण है, उस पर ईश्वर की कृपा ही तो है. ईश्वर हमारे हजार दोषों को नजरअंदाज कर देते हैं, बस अपने प्रति सच्चे प्रेम को देखते हैं, वह प्रेम की भाषा जानते हैं और कुछ भी उन्हें रिझाने के लिये नहीं चाहिए. सच्चा, शुद्ध, एकांतिक निर्मल प्रेम यदि किसी के हृदय में उत्पन्न हो जाये तो उसे तत्क्षण प्रभु दर्शन हो सकते हैं. फिर उन्हीं की छवि भीतर-बाहर दिखती है, उनकी कृपा के अतिरिक्त कौन हमारा सहाय है, और वह हमारे कितने निकट है, हमसे भी निकट, हमारे व स्वयं के मध्य तो कल्पनाओं का एक बड़ा झुण्ड है पर उसके व हमारे बीच तो कुछ भी नहीं. हवा और रौशनी की तरह वह हर क्षण हमें सहज प्राप्त है.  

Monday, October 1, 2012

सत्य ही साधना है


अगस्त २००३ 
सुना है एक बार ब्रह्मा जी ने मानव को दो थैले दिए और कहा कि अपनी कमियाँ तो सामने वाले थैले में रखना और अन्यों के दोष पीछे वाले में, किन्तु मानव इसे भूल गया. हम अपने दोषों को तो नजरंदाज कर जाते हैं और अन्यों में देखने लगते हैं. धीरे-धीरे वही दोष हमारे भीतर आने लगते हैं, और जो हमारे भीतर है वही बाहर भी दीखता है, एक दुष्चक्र आरम्भ हो जाता है. तब मन नीचे गिर जाता है और उसे ऊपर उठाने में ऊर्जा लगती है, ऐसी ऊर्जा जो साधना से ही भीतर जगती है. मन यदि शांत है, प्रसन्न है, स्थिर है तो सारी सृष्टि प्रसन्न दिखती है. सत्य वही है जो नित्य है, यह जगत पल-पल बदल रहा है, इसे जैसा है वैसा ही स्वीकारना होगा, असत्य में सुधार करें तो भी वह असत्य ही रहेगा, सुधार की गुंजाइश तो सत्य में ही हो सकती है, अर्थात यदि हमारा वास्तविक रूप अभी स्पष्ट नहीं दीख रहा तो उस पर से मैल झाड़नी है, पाना उसी को चाहिए जिसे पाकर खोना नहीं पड़ता. यदि खोना ही पड़े तो एक मिले या दस कोई अंतर नहीं पड़ता.