Friday, June 28, 2019

बने सार्थक जीवन अपना



चेतना अपने आप में पूर्ण है. जब उसमें जगत का ज्ञान होता है, वह दो में बंट जाती है. जहाँ दो होते हैं, इच्छा का जन्म होता है, और फिर उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए कर्म होते हैं. कर्म का संस्कार पड़ता है, और कर्मफल मिलता है. जिससे पुनः-पुनः कर्म होते हैं. कर्मों की एक श्रंखला बनती जाती है. 'ध्यान' में हम पहले सब कर्म त्याग देते हैं. फिर सब इच्छाओं का विसर्जन कर देते हैं. भीतर केवल स्वयं ही बचता है, जब वह भी विलीन हो जाये, अर्थात अपने होने का बोध भी खो जाये तब शुद्ध चैतन्य प्रकट होता है. लेकिन उसको देखने वाला वहाँ कोई नहीं है, इसीलिए कहते हैं, भगवान को कोई देख नहीं सकता. समाधि से बाहर आने के बाद संतों ने अनुमान से ही उसका वर्णन किया है. साधक के लिए पहले स्वयं को जानना ही पर्याप्त है. इससे इच्छाओं पर उसका नियन्त्रण हो जाता है. व्यर्थ के कर्म अपने आप छूट जाते हैं. सार्थक जीवन में घटने लगता है. निष्काम कर्म बंधन पैदा नहीं करते और न ही उनका कोई फल ही साधक को मिलता है.

Thursday, June 27, 2019

स्वयं को जान लिया है जिसने



संत और शास्त्र कहते हैं, 'स्वयं को जानो', इसके पीछे क्या कारण है ? अभी हम स्वयं को देह मानते हैं, इस कारण जरा और मृत्यु का भय कभी छूटता ही नहीं. देह वृद्ध होगी और एक न एक दिन उसे त्यागना होगा. यदि कोई स्वयं को प्राण ऊर्जा मानता है, तो उसे भूख व प्यास सदा सताते रहेंगे. समय पर या पसंद का भोजन न मिले तो कितने लोग संतुलन ही खो देते हैं. भोजन के प्रति आसक्ति का कारण है प्राणमय कोष में निवास. कोई-कोई इससे आगे बढ़ जाते हैं और मन में रहने लगते हैं, कलाकार, कवि, लेखक उनका मन ही उनका संसार होता है. पर मन कभी शोक और मोह से मुक्त होता ही नहीं. अतीत का शोक और भविष्य के प्रति मोह उन्हें चैन से कहाँ रहने देता है. जब हम स्वयं को शुद्ध चेतन स्वरूप में जान जाते हैं, जरा-मृत्यु, भूख-प्यास, शोक-मोह सभी से परे जा सकते हैं. अपने भीतर एक शांत, आनन्दमयी स्थिति को अखंड रूप से अनुभव कर सकते हैं, तब भी देह अशक्त होगी, इसका अंत भी होगा पर इसका भय नहीं होगा. भूख लगने पर भोजन भी करेंगे और प्यास लगने पर जल भी ग्रहण करेंगे पर इनके प्रति आसक्ति नहीं होगी. समुचित आहार स्वस्थ रहने में भी सहायक होगा. विषाद का सदा के लिए अंत हो जायेगा और मोह की जगह निस्वार्थ प्रेम सहज ही प्रकट होगा. इसीलिए शास्त्र कहते हैं, स्वयं को जानना खुद के लिए ही सच्चा सौदा है.

Wednesday, June 26, 2019

इक मुस्कान छिपी है भीतर



प्रकृति की ओर नजर डालें तो परमात्मा की असीम कृपा का बोध होता है. पंचभूत अहर्निश बांट रहे हैं. सूर्य अपनी ऊष्मा से हमारी पृथ्वी को जीवन के योग्य बना रहा है, पृथ्वी निरंतर भ्रमण करती हुई स्वयं को उसकी किरणें ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत कर रही है. हवाएं बादलों का निर्माण करती हैं, वृक्ष अन्न प्रदान करते हैं. विज्ञान के अनुसार मानव के इस सृष्टि पर आने से पूर्व ही यह सारा आयोजन प्रकृति द्वारा कर दिया गया था. परमात्मा ने स्वयं को पर्वतों, वनस्पति जगत, पंछियों और पशुओं के द्वारा अभिव्यक्त करके अंत में मानव के रूप में अभिव्यक्त किया. मानव के आनंद के लिए ही विविधरंगी फूलों और फलों का सृजन हुआ होगा. यदि कोई अपने भीतर जाकर स्वयं से मिले और फिर पूछे, यहाँ किस लिए आये हो, तो सिवा एक मुस्कान के कोई उत्तर नहीं मिलेगा. संत कहते हैं, मानव का इस जगत में आने का उद्देश्य स्वयं के भीतर उस आनंद स्वरूप परमात्मा को अनुभव करना और फिर बाहर उस आनंद को लुटाना, इसके सिवा और क्या हो सकता है.  

तू ही जाननहार



ध्यान की गहराई में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी खो जाती है. जानने वाला ही जानने का विषय बन जाता है, अंत में केवल ज्ञान ही शेष रह जाता है. इस ज्ञान का कारण कभी ज्ञेय नहीं होता. जैसे तीव्र गति से दौड़ते समय धावक को अपना बोध नहीं रहता, वहाँ केवल दौड़ना होता है. नाचते समय नर्तक खो जाता है, केवल नर्तन ही रहता है. शुद्ध ज्ञान ही परमात्मा का स्वरूप है. जिसका कोई कारण नहीं, बल्कि वही सबका कारण है.

Monday, June 24, 2019

परहित सरिस धर्म नहीं भाई



परोपकार का अर्थ है, दूसरों के जीवन को आसान बनाना. जरूरत पड़ने पर किसी का हाथ बंटा देना. यदि खुद में सामर्थ्य है तो किसी की मदद करने का अवसर आने पर पीछे न हटना. यह सब करते हुए यदि भीतर यह भाव जगाया कि हम अन्यों से श्रेष्ठ हैं, हम सेवा करते हैं, तो यह परोपकार नहीं कहा जायेगा. इसमें अपनी हानि छिपी है, जो काम स्वयं के लिए ही लाभप्रद नहीं है वह दूसरों के लिए भी आनंद का सृजन नहीं कर सकता. सहयोग करके हमें किसी के स्वाभिमान, सम्मान तथा निजता का हनन नहीं करना है और न ही स्वयं की किसी से तुलना करनी है. यदि मन तृप्त है, परम से जुड़ा हुआ है तो उसमें से सहज ही मैत्री भाव जगता है. इसी भाव से युक्त होकर संत जगत में कार्य करते हैं, जिन्हें हम परोपकार कहते हैं.

Sunday, June 23, 2019

एकोहं बहुस्याम



वेदों में कहा गया है, ब्रह्म एक था, उसमें इच्छा हुई, एक से अनेक होने की, और इस सृष्टि का निर्माण हुआ. किंतु अनेक होने के बाद भी उसके एकत्व में कोई अंतर नहीं पड़ा. जैसे कोई बीज एक होता है, किंतु समय पाकर एक से अनेक हो जाता है. पहले अंकुर फूटता है, फिर तना, डालियाँ, पत्ते, फूल, फल और अंत में बीज रूप में वह अनेक हो जाता है, किंतु हर बीज उस पूर्व बीज के ही समान है. उसमें भी अनेक होने की पूरी सम्भावनाएं हैं. जैसे अंकुर, तना, या डालियाँ, फूल आदि सभी उस बीज में से ही निकले हैं, पर वे बीज नहीं हैं, इसी प्रकार ब्रह्म से ही जड़ जगत, वृक्ष, पशु, पंछी आदि हुए हैं पर वे ब्रह्म के एकत्व का अनुभव नहीं कर सकते, केवल मानव को ही यह सामर्थ्य है कि वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके.

Friday, June 21, 2019

मुक्ति का जो मार्ग चाहता



जीवन की भव्यता और दिव्यता को समझना हो तो योग ही एकमात्र साधन है. योग ही हमें अपने पथ पर अचल रखता है. आत्मा को अल्प से सुख नहीं मिल सकता, वह अनंत से ही संतुष्ट हो सकती है. संस्कारों को दग्ध बीज किये बिना अनंत में टिका नहीं जा सकता. संस्कारों को दग्ध करने के लिए योग को अपनाना है. योगी का अंतिम गन्तव्य सन्यास अर्थात त्याग है. जो विवेक और वैराग्य का महत्व जान ले वही सन्यासी है. जो अपने भीतर के दोषों का, दुर्बलताओं का त्याग कर सकता है वही आत्मबोध प्राप्त कर सकता है. भीतर द्वंद्व हैं, लोभ है, वासना और कामना है. जो आत्मा को जंजीरों से कैद रखती है. योग है इन सबसे मुक्ति का मार्ग !

योगी बनें उपयोगी बनें



जीवन शब्द को यदि दो शब्दों में तोड़ें तो मिलता है जीव और न, ऐसे मन को दो वर्णों में तोड़ने पर मिलता है म और न, जीव का अर्थ है व्यक्तिगत आत्मा, म का अर्थ भी वही है 'मैं' यानि एक व्यक्ति, जब दोनों 'न' हो जाते हैं तब समष्टिगत के साथ योग घटता है. इसका अर्थ हुआ जब जीव न बचे तब असली जीवन है और जब अहंकार न रहे तब असली मन है. योग का लक्ष्य यही है. देह, प्राण, मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार को साधते हुए इन सबके पार ले जाता है योग. इसका आरम्भिक आसन है, लेकिन उससे भी पूर्व पंच यमों और नियमों का ज्ञान भी आवश्यक है. सत्य का पालन, ज्यादा संग्रह न करना, मन की समता, किसी अन्य की संपदा का लोभ न होना, शुचिता, संतोष आदि इनमें आते हैं. इसके बाद प्राणों का निग्रह प्राणायाम के द्वारा किया जाता है. देह स्वस्थ रहे, मन शांत रहे, बुद्धि में स्पष्टता हो तभी योग जीवन में प्रस्फुटित होता है. इसके बाद व्यक्ति पहले जैसा संकुचित नहीं रह जाता, वह जगत के साथ एक मैत्री का अनुभव सहज ही करता है.

Thursday, June 20, 2019

जीवन में जब योग घटे



कल योग दिवस है. देश और दुनिया भर में इसकी तैयारियां हो रही हैं. योग के अनगिनत लाभ जो पहले कुछ ही लोगों तक सीमित थे आज सबके लिए उपलब्ध हैं. योग की बहती गंगा में जो भी चाहे डुबकी लगा ले और अपने लिए आवश्यक वरदान को पा ले. वाकई योग कल्पतरु की तरह है, इसके नीचे बैठ कर आप जो भी पाना चाहते हैं, मिल सकता है. शारीरिक स्वास्थ्य व सौन्दर्य हो या मानसिक सबलता और स्थिरता या आत्मिक सुख और शांति, ये सभी नियमित योग साधना करने वाले को सहज ही प्राप्त होते हैं. योग एक व्यायाम नहीं एक संतुलित जीवनचर्या का नाम है. बचपन से ही यदि बच्चों को योग सिखाया जाये तो वे भावनात्मक रूप से कमजोर नहीं रहेंगे, अपने भीतर एक शक्ति का अहसास उन्हें जीवन की किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए प्रेरित करता रहेगा. भारत की इस अमूल्य संपदा का जितना अधिक प्रसार व प्रचार दुनिया में होगा, लोग उतना अधिक आत्मीयता का अनुभव करेंगे और 'वसुधैव कुटुम्बकम' का ऋषियों का स्वप्न साकार होता नजर आएगा.

Wednesday, June 19, 2019

वही व्यक्त होता मानव से



हमारे जीवन का हर पल कितना कीमती है, इसका अनुभव हमें नहीं हो पाता. जीवन किसी भी क्षण जा सकता है, खो सकता है, जब तक जीवन है तभी तक हम सत्य को उपलब्ध कर सकते हैं. हम अपने जीवन से संतुष्ट हैं या नहीं इसका उत्तर ही हमें यह बता देगा कि हम सत्य की राह पर हैं या नहीं. हमारा मन चेतना के उच्च स्तर का अनुभव करके ही तृप्त होता है. जब तक हम तुच्छ से सुख लेते रहेंगे भीतर तृप्ति का अनुभव नहीं कर पायेंगे. चेतना विकसित होती है जब उसकी शक्तियों का पूर्ण उपयोग हो सके. जितना-जितना हम अपनी शक्तियों का उपयोग करते हैं, अस्तित्त्व हमें भरता जाता है. यह जगत का नियम है कि यहाँ खाली स्थान तत्क्षण भर दिया जाता है, पृथ्वी के गड्ढे मिट्टी से और निर्वात हवा से अपने आप भर जाते हैं. चेतना स्वयं को देह व मन के द्वारा व्यक्त करती है. प्रेम, आनंद, शांति, शक्ति, सुख, ज्ञान और पवित्रता उसके लक्षण हैं. जब हम स्वयं के द्वारा इनको प्रकट होने देते हैं तो यह स्वतः और पुष्ट होती जाती है.

Monday, June 17, 2019

सभी रोग जब मिट जायेंगे



बुद्ध कहते हैं, आरोग्य सबसे बड़ा लाभ है, आरोग्य का अर्थ है सारे रोगों से मुक्ति, देह, मन व आत्मा, सभी के रोगों से मुक्ति हो तभी आरोग्य लाभ हुआ मानना चाहिए. देह के रोग हैं जड़ता और आलस्य. मन के रोग हैं व्यर्थ का चिन्तन और पंच विकार. आत्मा का रोग है स्वयं को न जानना, व स्वयं को देह या मन ही जानना. सभी रोगों का केंद्र है अहंकार. अहंकार सिखाता है जब काम करने के लिए और लोग हैं तो क्यों न हम आराम से ठाठ करें. अहंकार मन में हो तभी अतीत के सुख-दुःख याद आते हैं तथा भविष्य के सुंदर सपने मन सजाता रहता है. अहंकार स्वयं ही आत्मा का स्थान लेना चाहता है, इसलिए वह उसे अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान नहीं होने देता. जब सब रोग गिर जाते हैं तब अहंकार भी गिर जाता है. तब जीवन में परम संतोष आता है.

Sunday, June 16, 2019

योग रखे निरोग



अनादि काल से सृष्टि का आयोजन चल रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा. हमारा जीवन इसकी तुलना में कितना छोटा है, साठ, सत्तर, अस्सी या अधिकम से अधिक सौ वर्ष हम जीने वाले हैं. हमारे जन्म से पहले भी दुनिया थी, अच्छी-खासी चल रही थी, और हमारे जाने के बाद भी इसी तरह चलती रहेगी. कुछ लोग कुछ समय तक हमें याद करेंगे, लेकिन उससे हमें कोई अंतर नहीं पड़ेगा. संत कहते हैं, इस क्षण भंगुर जीवन में क्या हम दुखी होने के लिए आये हैं, अस्तित्त्व में हर तरफ उल्लास है, उसकी मंशा हमें आनंदित करने की तो लगती है, उदास करने की नहीं. नीला आकाश, हरे मैदान, रंग-बिरंगे फूल, चहकते हुए पंछी, फुदकते हुए शावक और वर्षा की बौछारें इनका सान्निध्य हमें सहज ही मिल सकता है, पर हम इनकी ओर ध्यान ही नहीं देते. हम वही कार्य करते हैं जिसका कोई प्रत्यक्ष भौतिक लाभ होता दिखाई देता है. सात्विक आहार, समुचित योग और व्यायाम, सादगी और सरलता मानव को स्वस्थ रखने का बिना पैसे का नुस्खा है. आज पचास वर्ष के ऊपर शायद ही कोई हो जिसे किसी न किसी प्रकार की नियमित दवाई की जरूरत न पड़ती हो. इस योग दिवस पर हम सभी मिलकर यह संकल्प लें तो कितना अच्छा हो, कि नियमित योग करेंगे और करवाएंगे, भारत को एक स्वस्थ राष्ट्र बनायेंगे.

तुम मात-पिता हम बालक तेरे



आज पितृ दिवस है. माता-पिता दोनों के अंश से एक बच्चे का जन्म होता है. जीवन में दोनों का समान महत्व है. माँ शिशु को पालती है और पिता उसे आश्रय देता है. पिता के अनुशासन और माँ के स्नेह की छाया में ही एक शिशु का पूर्ण विकास सम्भव है. गहराई से देखें तो दोनों के भीतर एक साथ दोनों का निवास है. एक माँ जब बच्चे को ताड़ना देती है तो उसके भीतर का पिता पक्ष प्रमुख होता है, वैसे ही जब पिता दुलार देता है तो उसके भीतर की माँ सशक्त हुई होती है. हम परमात्मा को भी माता-पिता दोनों एक साथ कहते हैं, अनुकूल परिस्थतियाँ देकर वह हमें आनंदित करता है और विपरीत परिस्थतियाँ भेजकर मजबूत बनाता है.

Friday, June 14, 2019

समता एक साधना ही है



किसी भी व्यक्ति, घटना अथवा वस्तु को गलत कहते ही हम अपने भीतर द्वेष भाव उत्पन्न कर लेते हैं. जिसका फल दुःख के रूप में हमें ही प्राप्त होता है. कोई भी व्यक्ति जैसा है वैसा होने के लिए उसे न जाने कितने कर्मों का प्रवाह ले आया है. इसमें वह स्वाधीन नहीं है. हम स्वाधीन हैं अपने अंतर की समता बनाये रखने में, क्योंकि वही आत्मा में रहना है. हम तभी भूल जाते हैं जब अहंकार वश स्वयं को कर्त्ता मानते हैं. अतीत का भय हमें तभी सताता है जब भविष्य में हम कुछ पाना चाहते हैं. वर्तमान का क्षण निर्दोष है जिसमें न कोई भय है न पश्चाताप, क्योंकि अतीत में जो हुआ वह उन क्षणों की उपज था, भविष्य में जो होगा वह वर्तमान के कार्यों का परिणाम होगा. वर्तमान में हम नये कर्म नहीं बाँध रहे क्योंकि समता में रहना आ गया है, तो भविष्य सुधरने ही वाला है.

Thursday, June 13, 2019

जैसे कर्म करेगा मानव



हमारे आस-पास जो भी परिस्थितियाँ प्रकृति के द्वारा रचित हैं, वे उन्हीं कारणों के परिणाम स्वरूप हमें मिली हैं, जिनके बीज हमने कभी डाले थे. जैसे कोई छात्र यदि पढ़ाई नहीं करता और फेल हो जाता है तो यह उसके ही कर्म का फल है. अब उसे दुखी होने या शिकायत करने का क्या अधिकार है. इस वक्त यदि वह दुखी होकर अपना स्वास्थ्य खराब करेगा या जीवन ही समाप्त कर लेगा तो इस नये कर्म का परिणाम भविष्य में और दुःख के रूप में उसे मिलेगा. अज्ञानवश स्वयं को कर्त्ता मानकर हम भविष्य के लिए कारण रूप में बीज डालते रहते हैं. जब फल हमारी इच्छा के विपरीत आता है तो उसे स्वीकारते भी नहीं. आत्मज्ञान होने के बाद जब कोई स्वयं को कर्त्ता मानना छोड़ देता है, तब भोक्ता भी नहीं रहता. मन, बुद्धि व देह द्वारा जो भी कर्म पहले हुए हैं, उन्हीं का परिणाम मन, बुद्धि व देह को मिल रहा है. आत्मा सदा अलिप्त है, यह ज्ञान ही हमें मुक्त करता है.

जहाँ दूसरा हो न कोई



ध्यान का लक्ष्य है देहात्मभाव की निवृत्ति ! देह को स्थिर इसलिए रखते हैं कि मन के प्रति सजग हो जाएँ. देह और आत्मा को जोड़ने वाला पुल है मन. देह को आसन में बैठकर उसे भूल जाना है. मन से चिन्तन करना है, हम देह नहीं हैं. स्वयं को देह से अन्य मानने का अर्थ है हम निराकार हैं. दृष्टि व मन में आकार हैं, इनका आदि-अंत है, चैतन्य का आदि-अंत नहीं. हम एक हैं. हममें कोई अवयव नहीं. एक में मन खो जाता है. हमारे चारों ओर यदि देखें तो आकाश निराकार है, हम भी आकाशवत हैं. स्थूल आकाश आधिभौतिक है, चित्ताकाश आधिदैविक है तथा चिदाकाश आध्यात्मिक है. चिदाकाश न स्थूल है न सूक्ष्म, यह दोनों के पार है.  इसका अनुभव ही ध्यान है. 

Tuesday, June 11, 2019

सृष्टि स्वयं से निर्मित होती



हम सबने सुना है, 'जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि' इसका एक अर्थ तो यह है कि जगत को हम जिस नजरिये से देखते हैं, जगत हमें वैसा ही नजर आता है. यदि एक डाक्टर की नजर से देखें तो लोग  रोगी या निरोगी दिखेंगे. अध्यापक की नजर से बुद्धू या होशियार. संत की नजर से देखें तो उसे सभी परमात्मा स्वरूप ही दिखेंगे. धन की दृष्टि से देखें तो अमीर या गरीब. कवि या गायक की दृष्टि से देखें तो उसे हर कहीं श्रोता ही नजर आयेंगे. लेकिन इस बात का एक और अर्थ भी है, हम स्वयं को और जगत को जैसा देखना चाहते हैं, अपने इर्द-गिर्द का वातावरण जैसा देखना चाहते हैं, वैसा ही दृष्टिकोण हमें अपनाना होगा. अपने विचारों और भावों का सृजन उसके अनुकूल ही करना होगा. यह सूक्ति हमें पूर्णरूप से आत्मनिर्भर होना सिखाती है. इसके अनुसार हर कोई जहाँ विचरता है, उस सृष्टि का निर्माण स्वयं ही करता है. एक ही बगीचे में भिन्न-भिन्न लोग भिन्न उद्देश्यों के लिए आते हैं. वहाँ के सौन्दर्य का दर्शन भी वे अपनी क्षमता के अनुसार ही करते हैं. परमात्मा की कैसी अद्भुत महिमा है, वह किसी के लिए बाल-गोपाल बन जाता है, तो किसी का पिता, माता भी वही है और मित्र भी. एक तरह से यह जगत उस परमात्मा की निरंतर चलती हुई कथा ही तो है. इसीलिए तो कवि कहते हैं, हरि अनंत, हरि कथा अनंता..  

कोई जान रहा है सब कुछ



बगीचे से कोकिल की आवाज निरंतर आ रही है. खिड़की से बेला के फूलों की गंध आकर सहज ही नासापुटों को आकर्षित करती है. आँखें कम्प्यूटर की स्क्रीन पर लगी हैं तो कभी की बोर्ड पर. अभी भोजन का समय नहीं हुआ है और कोई सम्मुख नहीं है, इसलिए मुख बंद है. पंखे की हवा का स्पर्श त्वचा को शीतलता प्रदान कर रहा है. पंच इन्द्रियों के माध्यम से मन ही तो प्रकट हो रहा है. मन ही सुन, सूँघ, देख, व महसूस कर रहा है. इसके साथ-साथ यह लेखन का कार्य भी मन के द्वारा ही हो रहा है, जिसने तय किया है कि सुबह का यह समय लेखन के लिए देना है. लिखने में कोई त्रुटी होने पर बुद्धि इसमें सुधार करवा देती है. किंतु मन के पीछे बैठकर भी कोई यह सब देख रहा है, वह मौन है, पर सब जानता है, वह उस बुजुर्ग की तरह है जो घर की बैठक में रहते हुए भी घर की  सारी हलचल को भांपता रहता है और सदा सबके लिए शुभ आशीषें देता रहता है. उस साक्षी को मन नहीं जान सकता, बुद्धि उसकी तरफ इशारा कर सकती है, कुछ देर शांत होकर उसमें खो सकती है. तब वही रहता है और रहती है एक सरस शांति. उस शांति का अनुभव करके बुद्धि जब लौट आती है तो पहले से ज्यादा सशक्त हो जाती है. ध्यान का यही परिणाम है.

Monday, June 10, 2019

एक साधना ऐसी भी हो



हम जीवन को सुख मानकर चलते हैं पर कदम-कदम पर हमारा सुख बाधित होता है. हमने मान लिया है कि धन में सुख है, यश में सुख है, इन्द्रियों की मांग पूरी करने में सुख है. किंतु जरा गहराई से देखें तो पता चलता है, यह सुख कितना क्षणिक है, इन सबकी प्राप्ति से पूर्व दुःख है, इनके खो जाने के भय में दुःख है. यदि हम यह मानकर चलें कि जिस जीवन से हम परिचित हैं, उसमें सुख नहीं है, तो दुःख मिलने पर हमें कोई धक्का तो नहीं लगेगा. दुःख को हम सहज रूप से स्वीकार कर लेंगे और हमारी ऊर्जा व्यर्थ ही उसका प्रतिरोध करने में नहीं लगेगी. एक बात और होगी, जिस जीवन में सचमुच सुख है क्या कोई ऐसा भी जीवन है, इसकी तलाश भी भी हमारे भीतर जगेगी. उसी तलाश का नाम साधना है, योग है. जिस सुख की प्राप्ति के पहले भी कोई दुःख न हो, जिसके खो जाने का भय भी न हो और जो शाश्वत हो ऐसा सुख केवल ध्यान के द्वारा ही मिल सकता है.

Friday, June 7, 2019

पाना था सो मिला हुआ है



जगत में हम जब तक कुछ पाने की इच्छा से विचरते हैं, हम सत्य से चूक जाते हैं. कुछ लाभ की आशा में हमारा मन तनाव से भरा रहता है, क्यों कि जो भी मिलेगा वह भविष्य में ही मिलेगा. इसी उहापोह में हम वर्तमान के पल से चूक जाते हैं. सृष्टि में प्रतिपल उत्सव चल रहा है, इसमें भागीदार होना है न कि निज के सुख की आशा कुछ न कुछ संग्रह किये जाना है. पंछी गा ही रहे हैं, आकाश की नीलिमा हजारों मील तक फैली है, हवा में फूलों की गंध बिन बुलाये ही चली आती है. परमात्मा हर ढंग से हमें आनन्दित करने को आतुर है. हम न जाने क्या चाहते हैं जो भविष्य की आशा में प्रकृति के इस विशाल आयोजन को अनदेखा कर देते हैं. किसी तितली के पीछे भागते नन्हे बच्चे को उस क्षण में क्या मिल जाता है जब एक पल को तितली किसी फूल पर ठहर जाती है. उसका मन खो जाता है और उसका पूरा अस्तित्त्व ही उस तितली से एकाकार हो जाता है, उसी में वह आनन्दित हो जाता है. हमारा मन जब वर्तमान के पल में सहज होकर जीना सीख लेता है, अतीत का भूत उसका पीछा नहीं करता, भविष्य की कल्पना के जाल में नहीं उलझता, तब प्रकृति अपना द्वार खोल देती है.

Thursday, June 6, 2019

निकट आ गया जो स्वयं के ही



दिन-रात, सुबह-शाम, सर्दी-गर्मी सभी कुछ तो अपने आप हो रहे हैं. जन्म-मृत्यु, स्वास्थ्य-रोग, सुख-दुःख, यश-अपयश भी अपने आप आते-जाते हैं. मानव की भूमिका इसमें कहाँ आरम्भ होती है ? कितना अच्छा हो कि पूर्वजों की सीख के अनुसार वह दिन में पूरी निष्ठा से कार्य करे और रात्रि को विश्राम करे. सुबह-शाम दोनों समय संध्या करे अर्थात कुछ देर शांत होकर बैठे और अस्तित्त्व के साथ अपनेपन को अनुभव करे. सर्दी में सर्दियों का आहार-विहार अपनाये और गर्मियों में उस ऋतु के अनुसार स्वयं को ढाले. जन्म-मृत्यु दोनों का स्वागत करे, स्वास्थ्य-रोग दोनों में पथ्य-अपथ्य का ध्यान रखे. सुख-दुःख में मन को समता में रखे. यश-अपयश को साक्षी भाव से सहन करे. आज विश्राम खो गया है, संध्या खो गयी है, ऋतुु के अनूरूप आहार-विहार खो गया है और भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक भी नहीं रहा. जन्म को रोका जा रहा है, मृत्यु को दूर खिसकाया जा रहा है. नकली मुस्कान को सुख का पर्यायवाची मान लिया गया है और दुःख से सीखने की बजाय किसी न किसी तरह उसे भुलाने का प्रयत्न चलता है. स्वयं ही स्वयं का यशगान होता है और जरा सी उपेक्षा आहत कर देती है. मानव जैसे अस्तित्त्व से दूर हो गया है. जरूरत है एक बार फिर अपने भीतर लौटने की, और सब कुछ बदल जाता है.

Tuesday, June 4, 2019

स्वच्छ रहे परिवेश हमारा



पर्यावरण संरक्षण से तात्पर्य है जो आवरण हमें हमारे चारों ओर से घेरे हुए है, उसका बचाव. कोई सोचता है कि हवा, पानी और जल जो हमसे बाहर हैं उनका बचाव. किंतु इस आवरण का आरंभ हमारी देह की सीमा आरंभ होते ही हो जाता है, यानि भीतर से ही. हमारा शरीर साठ प्रतिशत जल तत्व से बना है, अशुद्ध जल भीतर जाते ही भीतर का जलीय वातावरण बिगड़ जाता है. देह के कण-कण में वायु तत्व है, जो श्वास हम ग्रहण करते हैं यदि वह अशुद्ध है तो भीतर स्वच्छता की कामना रखना व्यर्थ है. इसी तरह पृथ्वी यानि भोजन का जो अंश हम रोज ग्रहण करते हैं यदि रासानियक रूप से प्रदूषित है तो देह के अंग स्वस्थ नहीं रह सकते. मन बनता है भोजन के सूक्ष्म अंश से, प्राण बनता है वायु के सूक्ष्म अंश से, यदि मन व प्राण ही साफ-सुथरे नहीं हैं तो रोग को हम स्वयं ही आमन्त्रण दे रहे हैं. इसका अर्थ हुआ पेड़ लगाना, नदियों को स्वच्छ रखना, रसायन मुक्त खेती करना, आज यह विश्व के लिए या देश के लिए जरूरी नहीं है बल्कि हमारे खुद के अस्तित्त्व की रक्षा के लिए आवश्यक हो गया है. जीवन का सम्मान यदि हमें करना है तो अपने परिवेश की स्वच्छता के प्रति सजग होना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.

Sunday, June 2, 2019

योग की महिमा कौन बखाने



जून का महीना आते ही 'योग दिवस' की याद आ जाती है. 'इक्कीस जून' को ही 'योग दिवस' के रूप में क्यों चुना गया होगा, सम्भवतः इसलिए कि इस दिन भोर जल्दी होती है और शाम देर से होती है, वर्ष का सबसे दीर्घ दिन है इक्कीस जून. योग भी हमारे जीवन को कई तरह से दीर्घ बनाता है. योग एक जीवन पद्धति है जो शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक, और आध्यात्मिक रूप से मानव जीवन को समृद्ध करती है. योग का एक अर्थ है जोड़ना, इसका साधक पहले खुद से जुड़ता है, फिर समष्टि से. आसन करने से देह व श्वास जुड़ते हैं, प्राणायाम करने से देह, श्वास व मन जुड़ते हैं, ध्यान से देह, श्वास, मन, बुद्धि तथा चेतना जुड़ते हैं. योग का एक अर्थ समाधि भी है, जिसमें टिकने से साधक पूरे अस्तित्त्व से जुड़ जाता है, उसके लिए कोई पराया नहीं रहता. यदि कोई समाधि तक न भी पहुँचे तब भी स्वयं से जुड़ना एक असीम आनंद की उपलब्धि कराता है. निय्मिओत और सही ढंग से योग करने वाला व्यक्ति सहज ही प्रसन्न रहना सीख जाता है, उसके जीवन में अनुशासन आ जाता है. एक साथ योग करने से समूह भावना का जागरण होता है. शरीर बिना दवाओं के स्वस्थ रहता है. मन बिना मनोरंजन के शांत रहता है. बुद्धि तीव्र होती है और स्वतः ही उसकी दिनचर्या सात्विक होने लगती है. आज की भौतिकतावादी जीवन शैली के कितने दुष्प्रभाव हमें देखने को मिल रहे हैं, इस सबसे यदि आने वाली पीढ़ी को दूर रखना है तो उन्हें बचपन से ही योग सिखाना होगा.

Saturday, June 1, 2019

चाहें तो इस पल में जी लें



वर्तमान के लघु क्षण में विराट छिपा है, जिसने ध्यान के इस राज को जान लिया, वह मुक्त है. मन सदा अतीत में ले जाता है या भविष्य की कल्पना में. वर्तमान में आते ही मन मिट जाता है, उसे टिकने के लिए कोई न कोई आधार चाहिए. वर्तमान का पल इतना छोटा है कि उसमें कोई शब्द नहीं ठहर सकता. मन शब्द के सहारे ही जीवित रहता है. मौन का अनुभव वर्तमान का अनुभव है. अतीत में जाकर कभी मौन को अनुभव नहीं किया जा सकता. मौन ही सत्य का अनुभव है. यदि कोई इस क्षण में टिकना सीख ले तो वह ऊर्जा के परम स्रोत से जुड़ जाता है. ऊर्जा का यह स्रोत प्रेम, आनंद और शांति का संगम है.