Monday, October 31, 2011

मिलन और मुक्ति


जून २००२ 
इस सृष्टि में जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट भी होता है. यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है. इसी बात को याद रखते हुए ध्यान में भी किसी अच्छी या बुरी संवेदना को महत्व नहीं देना है, मन का समत्व भाव बनाये रखना है. इसी से आत्मिक शक्ति प्रकट होने लगती है. हमारी चेतना खुद भी तो प्रकट होना चाहती है. इस पथ पर मिलन मध्य में होता है, अंत में नहीं. साधक यदि श्रद्धा भाव से चलता रहे तो इसी जीवन में एक दिन ऐसा आता है कि ध्यान करना नहीं पड़ता टिक जाता है. अभी चाहे लक्ष्य दूर हो पर यह निश्चय होना चाहिए कि वह परमात्मा हर क्षण हमारे साथ है. अंतर में उसी का प्रकाश है. बुद्धि में उसी का उजाला है. आत्मा में उसी का प्रेम है. वह हमारे मन पर अपना पूरा अधिकार जमा चुका है, वही एक दिन हमें मुक्त भी करेगा.

Friday, October 28, 2011

आत्मा का संगीत


जून २००२ 

ईश्वर को जानना हो तो पहले खुद को जानना होगा, अर्थात जो आज तक हम स्वयं को मानते आये हैं, उससे अलग अपने सच्चे ‘मैं’ को जानना, मन व बुद्धि के द्वारा जो खुद को जाना है उससे भी परे जहाँ मन रहता ही नहीं, और खुद को जानने के लिये वर्तमान में रहना होगा. वर्तमान में रहने से ही ध्यान सधता है. ध्यान में हम अपने तन रूपी साज को साध कर मन के पार जाकर आत्मा का संगीत उजागर करते हैं, जिसके द्वारा ईश्वर को रिझाया जाता है.

Thursday, October 27, 2011

मौन का अनुभव


जून २००२ 
उस अशब्द परमात्मा को शब्दों से नहीं जाना जा सकता. वह मौन है उसे मौन में ही ढूँढना होगा. मन जब मौन होगा तब वह धीरे से आकर अपनी उपस्थिति का अहसास कराएगा. हम जितना-जितना अपने आसपास की ध्वनियों के प्रति सजग होते जाते हैं, उतना-उतना ही हमें मौन का भी अहसास होता है. दो ध्वनियों के बीच का मौन... और वह बड़ा प्रभावशाली होता है, शब्दों से कहीं ज्यादा... उस मौन में हमें अपने होने का अहसास तीव्रता से होता है. ध्वनियाँ भी तब ज्यादा स्पष्ट हो जाती हैं. मन में उठने वाला अंधड़ शांत हो जाता है. शिराएँ शांत हो जाती हैं. एक शून्य की तरफ हम चल पड़ते हैं. ऐसा शून्य जो अर्थयुक्त है, अर्थहीन नहीं. जो शून्य होते हुए भी सारे अर्थों से परिपूर्ण है. जहाँ रस है, प्रेम है, सौंदर्य है, आनंद है, अमृत है और पूर्णता है. उसे हम कुछ भी नाम दे सकते हैं उसकी शरण में जाकर हमें कुछ भी करना नहीं है. अहं से मुक्त होकर उस अशब्द की ओर जाना ही परमात्मा को जानने की ओर पहला कदम है.

Tuesday, October 25, 2011

एकै साधे सब सधे


जून २००२ 

कबिरा इस जग आये के अनेक बनाये मीत
जिन बांधी इक सँग प्रीत वही रहा निश्चिन्त
उस एक से जब लौ लग जाती है तो जीवन फूल की तरह हल्का हो जाता है. हम रुई के फाहे की तरह गगन में उड़ने लगते हैं. वह एक इतना प्रिय है और इतना अपना कि दिल भर जाता है. उसकी कृपा असीम है. उसका बखान करना जितना कठिन है उतना सरल भी. एक शब्द में कहें तो वही प्रेम है. अंतर की गहराई में जो प्रेम है उसके लिये और सृष्टि के लिये... वह उसी का है. हमें वहीं जाना है जहाँ न राग है न द्वेष है, न संयोग न वियोग, न दिन न रात्रि, न अच्छा न बुरा. उस अद्भुत लोक में प्रवेश करने के लिये ध्यान की आवश्यकता है. ध्यान हमारे हृदय में भक्ति भाव ही उत्पन्न नहीं करता है, हमें ईश्वर का निमित्त बनाता है. हम इस महासृष्टि में अपने योगदान को दे पाने में सक्षम होते हैं.

Monday, October 24, 2011

विवेक और संयम


जून २००२ 
माया रूपी रात्रि में संयम रूपी ब्रेक और विवेक रूपी लाइट लगी जीवन की गाड़ी यदि हम चलायें तो दुर्घटना से बचेंगे और ईश्वर के प्रति श्रद्धा अविचल रहेगी. कामनाओं के वेग को जो रोक सके और क्रोध को जो सही सही देख सके वही सुख-दुःख के पार आनंद को उपलब्ध हो सकता है. हमारी चेतना का विस्तार भी तभी होता है... अभी तो हम मन के छोटे से हिस्से में जीते हैं, अचेतन मन में क्या चल रहा है हमें पता ही नहीं होता तभी कुछ ऐसा हो जाता है जिसे हमने करना नहीं चाहा था. मन की गहराई में जितना-जितना प्रवेश होगा, भीतर प्रकाश बढ़ेगा अर्थात विवेक रूपी टार्च हमें मिल जायेगी.

Saturday, October 22, 2011

वर्तमान में जीना


जून २००२ 

जीवन कितना अनमोल है और कितना मोहक, कान्हा की वंशी की तरह, उसकी मुस्कान की तरह, उसकी चितवन की तरह. मन में कोई उद्वेग न हो, कोई कामना न हो तो मन कितना हल्का-हल्का सा रहता है. किसी से भी कोई अपेक्षा न हो स्वयं से भी नहीं बस जो सहज रूप से मिल जाये उसे ही अपने विकास के लिये साधन बना लें और आगे बढ़ते चलें. होश पूर्वक जीना आ जाये तो हमें अ पने कार्यों, वाणी तथा विचारों के लिये कभी पश्चाताप नहीं करना पड़ता है. वर्तमान में जीना ही होश में जीना है. 

Friday, October 21, 2011

निर्मल ध्यान


मई २००२ 

ध्यान करते समय जब मन में कोई अन्य विचार आ जाता है तो ध्यान अधूरा ही है. परमात्मा का असल स्वरूप शुद्ध चैतन्यता है. जब मन इसमें एक हो जाता है तब अद्वैत का अनुभव होता है. एक विचार के अतिरिक्त कोई अन्य विचार न रहे तब चित्त में भगवद् प्रसाद भरने लगता है. इस प्रसाद के बिना हृदय की अशांति नहीं मिट सकती. यही एक मात्र औषधि है जो हमें रस सिक्त करती है. शरद काल के आकाश की तरह निर्मल चेतना भीतर प्रकट हो जाती है.

Thursday, October 20, 2011

ईश्वर अंश जीव अविनाशी


मई २००२ 

ईश्वर के अंश होने के कारण हम परम आनंद को पाने के अधिकारी हैं, चेतना के उस दिव्य स्तर तक पहुंचने के अधिकारी हैं जहाँ विशुद्ध प्रेम, सुख, ज्ञान, शक्ति, पवित्रता और शांति है. सम्पूर्ण प्रकृति भी तब हमारे लिये सुखदायी हो जाती है.  इस स्थिति को केवल अनुभव किया जा सकता है यह स्थूल नहीं है अति सूक्ष्म है और व्यापक भी. शरद काल के चन्द्रमा की चाँदनी कि तरह. तब यह लगता है कि ईश्वर के सिवा इस जग में जानने योग्य कुछ भी स्थायी और शाश्वत है क्या... और उसे जानने की ललक ही एक अनिवर्चनीय संतोष को जन्म देती है.  

Wednesday, October 19, 2011

परम और संसार

मई २००२ 


परमात्मा हमारे हृदय में है, वह हर पल हमारी खबर रखता है, वह जानता है कि हमारे लिये क्या अच्छा है. उसके प्रति प्रेम हमें शुद्ध करता है. हमें उच्चता की ओर ले जाता है. आत्मसंयमित करता  है. तन व मन में हल्का पन लाता है, अहंकार ही हमें भारी बनाता है, अन्यथा तो भार महसूस ही नहीं होता. जब सब कुछ उसी का है, उसी की सत्ता से चलायमान है तो बीच में इस  “मैं” को लाये ही क्यों. एक वही शाश्वत है शेष सभी कुछ न होने की तरफ जा रहा है. हमारी चेतना पर उसी की मोहर लगी है. संसार मोहक रूप धरकर हमारे सम्मुख आता है, ठगना ही उसका उद्देश्य है. संसार को उसके वास्तविक रूप में देखने पर उसकी पोल खुल जाती है, यह हमें, हम जैसे हैं उसी रूप में अपनाकर शुद्ध प्रेम का अनुभव नहीं कराता बल्कि हम जो हैं उसे अस्वीकारने में सहायक  होता है. ईश्वर हमें, हम जैसे हैं, सहज रूप में स्वीकार करता है.

Monday, October 17, 2011

अहंकार


मई २००२ 

अहंकार बहुत सूक्ष्म होता है. कई बार हमें लगता है कि हम इससे मुक्त हो रहे हैं. पर इसकी जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि थोड़ा सा अनुकूल अवसर पाने पर यह अंकुरित हो जाती हैं. हमारा अहं ही ईश्वर और हमारे बीच दीवार बन कर खड़ा है. ईश्वर कितने उपायों से इसे तोड़ना सिखाते हैं पर हम उनसे ही नाराज हो जाते हैं. जीवन में जब भी हमें मानसिक उद्वेग या पीड़ा का अनुभव होता है इसके पीछे हमारा अहंकार ही जिम्मेदार है. ऊपर से तुर्रा यह कि अहं सत्य नहीं है, इसकी परत दर परत खोलते चले जाएँ तो वहाँ कुछ बचता नहीं. स्वयं को कुछ साबित करना इसी अहं का ही एक रूप है. यदि हम खाली होकर प्रभु द्वार पर जायेंगे तभी कुछ पा सकते हैं, पूर्ण विनम्र होकर ही परम को रिझाया जा सकता है. 

Saturday, October 15, 2011

परम की खोज


मई २००२ 

हम सहज प्राप्य वस्तु को स्वयं ही दुर्लभ बनाकर इधर-उधर खोजते हैं, जैसे कि तब उसका महत्व बढ़ जायेगा, हम सहज प्राप्त ईश्वर को, आत्मा को भिन्न-भिन्न उपायों से खोजते फिरते हैं. शब्दों से और विचारों से मानसिक जुगाली का ही काम करते हैं, वह जो शब्दों से परे है, शब्दों से पकड़ में नहीं आ सकता.

Friday, October 14, 2011

परम कैसा होगा


मई २००२ 
परमात्मा सत्य स्वरूप है, सदा से है, सदा रहेगा. सबका आधार है, जिसकी सत्ता से हमारी धडकनें चल रही हैं, जो हमारे भीतर है. हमारे हर क्षण का साक्षी है. जो हमें सदा प्रेरित करता है. जिसका न आदि है न कोई अंत. न वह स्थूल है न सूक्ष्म. जिसे हम इन्द्रियों से देख नहीं सकते. जो मन की गहराइयों में भी अव्यक्त है. जो सुख का स्रोत है, प्रेम व ज्ञान का सागर है जो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है. वही शब्द है वही नाद और वही प्राण है, और वही इन सबका आधार...जो सदा वर्तमान में है उसे यदि अनुभव करना है तो इसी क्षण करना होगा वह भविष्य में भी जब मिलेगा वर्तमान के पल में ही मिलेगा.   

Thursday, October 13, 2011

ईश्वरीय प्रेम


मई २००२ 
ईष्ट, गुरु या ईश्वर के प्रति प्रेम मन से शुरू होता है और आत्मा तक पहुंचता है. उनसे मिला प्रेम या ज्ञान ही इस प्रेम को उपजाता है. कृतज्ञता और आभार की भावना भी प्रेम का ही रूप है. धीरे-धीरे यह प्रेम इतना विकसित हो जाता है कि सारी सृष्टि के प्रति बह निकलता है. जैसे प्रकृति में सभी कुछ अपने आप हो रहा है, मन सहज ही झरता, पिघलता, द्रवित होता है. तब इस प्रेम को कोई पात्र नहीं चाहिए यह खुशबू की तरह चारों ओर स्वतः ही बिखर कर न्योछावर हो जाता है.

Wednesday, October 12, 2011

साधना क्यों

मई २००२ 
साधक के मन में श्रद्धा हो और पूर्ण विश्वास भी कि सब कारणों के एक मात्र कारण परमात्मा ही हैं, उनकी प्रसन्नता में ही हमारी प्रसन्नता है. वह हमारे हृदय में रहते हैं और हमारे शुभ-अशुभ विचारों व कर्मों के भी साक्षी हैं, वही हमें कर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं. यदि उनकी शरण में चले जाएँ तो वह हमारा भार अपने पर ले लेते हैं और हम निश्चिंत बालक की तरह आनंद से भर जाते हैं. शरीर, मन और बुद्धि की दासता को त्याग कर यदि हम परमात्मा के प्रेम का बंधन स्वीकार करते हैं तो सारा का सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है. यह विश्वास अनुभव के बिना टिकता नहीं है और अनुभव के लिये ही साधना करनी है.

Tuesday, October 11, 2011

बुद्धियोग और सजगता


मई २००२ 
हमारे मन पर न जाने कितने जन्मों के संस्कार हैं, जिनकी छवि इतनी गहरी है कि पल भर की असजगता हमें पुनः वहीं ले जाकर खड़ा कर देती है, जहाँ से छूटना चाहते थे. ध्यान की निर्विकारिता के पलों में यही संस्कार मिटते हैं. शुभ-अशुभ की स्मृति न रहे तो मन शांत रहेगा, अंतरंग तत्व का  दर्शन होगा तो हमारी बुद्धि शुद्ध होगी. भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं कि यदि हम कर्मों को निष्काम भाव से करते हुए चित्त को उनमें लगाए रहेंगे तो वह हमें बुद्धियोग प्रदान करेंगे. सभी परिस्थितियों में समभाव बनाये रखना भी चित्त को प्रभु में लगाये रखने जैसा ही है. बुद्धियोग होने पर ही सजगता बनी रह सकती है.

Monday, October 10, 2011

ध्यान और मुक्ति


मई २००२ 
धरती के अंधकार, मौन और चुप्पी में ही बीज प्रस्फुटित होता है. ध्यान भी ऐसे ही घटता है, मौन मन का होना चाहिए, मन यदि व्यर्थ का प्रलाप करता रहे तो ध्यान नहीं होगा. और एक बार यदि ध्यान का अनुभव हो गया तो भीतर सुप्त प्रेम जागृत हो जाता है, वह ज्ञान जो अभी स्पष्ट नहीं है दिखाई देगा और ऐसा प्रेम हमें आनंद के उस अक्षय स्रोत से मिलाएगा जो सरस है, अनंत है. जीवन में ही मुक्ति का अनुभव साधक कर सकेगा.

Saturday, October 8, 2011

ज्ञान के मोती


मई २००२ 
हमारा मन ही हमें सुख-दुःख प्रदान करता है, कोई बाहरी व्यक्ति या परिस्थिति हमें हमारी इच्छा के बिना विषाद नहीं दे सकती. आंतरिक शत्रुओं को नष्ट करते ही सभी हमारे मित्र हो जाते हैं. जैसे-जैसे हम ज्ञान के सागर में गहरे उतरते जाते हैं, मोती और सुंदर होते जाते हैं. सदगुरु ज्ञान का सागर है जिसके वचन सुनहरे मोती हैं जिनकी चमक हमें धारण करनी है जिसके प्रकाश में हमारी आत्मा प्रकाशित होगी.  

Friday, October 7, 2011

वह पूर्ण है


ज्ञान वहीं टिकता है जहाँ वैराग्य है. मैं कुछ हूँ तो मेरा भी कुछ होगा, यदि मैं कुछ नहीं तो मेरा भी कुछ नहीं, फिर कैसा बंधन और कैसी मुक्ति? सदगुरु कामना शून्य है, अहंकार शून्य है जो स्वयं भी वैसा हो जाता है वही ईश्वर को पा सकता है. जैसे हवा है और धूप है वैसे ही ईश्वर हमारे चारों ओर मौजूद है पर कुछ होने का भाव ही उससे दूरी बना देता है. उसे एकछत्र अधिकार चाहिए. मन यदि पूरा उसे नहीं सौंपा तो वह कुबूल नहीं करता. गुरु नानक ने कहा है पूरा प्रभु आराधिए, पूरा जाका नाम, पूरा पूरे से मिले, पूरे के गुन गाम !  

Wednesday, October 5, 2011

जागृत मन


मई २००२ 
मन सोया है या जाग गया है इसका पता कैसे चले तो शास्त्र बताते हैं कि सजगतापूर्वक वर्तमान में रहना इसकी पहली निशानी है. भूत का पश्चाताप भीतर न चलता हो भविष्य की कल्पना में संकल्प न उठते हों जिस क्षण जो कार्य हम कर रहे हों पूर्ण रूप से मन वहीं टिका हो तो ऊर्जा बचती है. दूसरी पहचान है मन सहज ही आनन्दित हो कुछ करके या कुछ पाकर खुश होना सोये मन का काम है, समाहित मन तो भीतर अपने मूल से जुड़ा होने कारण सहज ही प्रसन्न होता है. अहंकार वर्तमान में नहीं होता अहंकार भूत या भविष्य के साथ ही जुड़ा है और दुख का कारण वही है. जो वस्तु, व्यक्ति, या परिस्थिति हमारे सामने आये सहज बुद्धि से उसके साथ व्यवहार करने के बाद यदि मन खाली रहता है तो मन जाग गया है. यदि प्रभाव में आ जाता है तो सोया है.   
  

Tuesday, October 4, 2011

दिव्यता


मई २००२

मन को नींद से जगाना है, शोध करते-करते ही बोध होता है. मन की गांठ जब तक नहीं खुलेगी तब तक अज्ञान नहीं मिटता और अज्ञान मिटे बिना ईश्वर का अनुभव भी नहीं होता. राग, द्वेष, अहंता, ममता आदि जीव की सृष्टि में हैं ईश्वर की सृष्टि में नहीं. अपनी प्रकृति तथा स्वभाव के अनुसार हम प्रेरित हो रहे हैं और सुख-दुःख का अनुभव कर रहे हैं. अपने तुच्छ स्वभाव को दिव्य स्वभाव में बदलना ही साधना है, और यही जागरण है, जिसके बाद ही हम मानव होने की गरिमा को प्राप्त होते हैं. 

Monday, October 3, 2011

आनंद

मई २००२ 
जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता है एक निर्दोष आनंद, एक ऐसी मुस्कान जो कोई हमसे छीन न सके. किसी को मुझसे भय न हो और किसी से मुझको भय न हो यह बहुत बड़ा गुण है. जितना-जितना हम स्वयं को व्यर्थ के संकल्पों से खाली करते जायेंगे वह आनंद जो भीतर ही है, कहीं से लाना नहीं है, भरता जायेगा, वह मुस्कान भी हमारी आत्मा प्रतिपल लुटाए जा रही है पर मन का आवरण उसे प्रकट होने नहीं देता. मन में श्रद्धा हो तो धीरे धीरे वह समाहित होने लगता है और आवरण क्षीण होने लगते हैं.

Saturday, October 1, 2011

मृण्मय और चिन्मय


अप्रैल २००२ 
हमारे विचारों का केन्द्र चिन्मय है अथवा मृण्मय, इस पर ही सब निर्भर करता है. हमारा मन, बुद्धि देह सभी मृण्मय हैं पर इनका प्रयोग हमें चिन्मय को जानने के लिए करना है. ऐसा कब होगा, कैसे होगा यह तो समय ही जानता है पर हमारी जीवन यात्रा यदि उस ओर हो तो आनंद हमारा सहचर बन जाता है. जैसे जल में प्रवेश करते ही उसकी शीतलता का अनुभव होता है, चिन्मय जो सत् चित् आनंद स्वरूप है उसका चिंतन करते ही उसकी हवा हमें छूने लगती है. पहले उसे स्थूल रूप में देखना है फिर सूक्ष्म भी अनुभव में आयेगा. प्रकृति में उसी का रूप छिपा है. जैसे मोती धागे में पिरोये होते हैं सारा जगत उसी में पिरोया हुआ है.