Sunday, November 26, 2023

जिस पल में मन मुक्त हुआ

संत कहते हैं और यह हमारा अनुभव भी है कि ज्ञान मन को मुक्त कर देता है. जब तक हमें किसी बात की पूरी जानकारी नहीं है, मन में संशय बने रहते हैं, पर ज्ञान होते ही मन ठहर जाता है। ठहरे हुए मन में अपने आप ही आनंद का अनुभव होता है, क्योंकि मन का मूल अथवा आत्मा आनंदस्वरूप  ही है। आत्मा का ज्ञान पाकर ही बुद्धि भी वास्तव में बुद्धि कहलाने की अधिकारिणी है. उसके पहले मन तो अज्ञान के पाश में बंधा होता है, बुद्धि भी एक अधीनता का जीवन जीती है. बुद्धि मन की आधीन, इन्द्रियों की आधीन, धन, प्रसिद्धि, प्रशंसा की आधीन, मोह, क्रोध, अहंकार की आधीन होती है। इसके अतिरिक्त अवचेतन मन की सुप्त प्रवृत्तियों की अधीनता भी उसे स्वीकारनी पड़ती है. किन्तु आत्मा का ज्ञान होने के बाद जैसे कोई परदा उठ जाता है. मन, बुद्धि स्वयं को हल्का महसूस करते हैं. 


Wednesday, September 20, 2023

गुरु बिन ज्ञान कहाँ से पाएँ

गुरु व ज्ञान पर्यायवाची शब्द  हैं, यदि ऐसा कहें अतिशयोक्ति नहीं होगी। गुरु का हर शब्द गहरे चिंतन-मनन के बाद हुए दर्शन से प्रकटता है। वह जीवन की गुत्थियों को पल में हल कर देता है। चीजें उनके आगे अपने गुहतम स्वरूप में प्रकट होती हैं। शास्त्र उनके ही वचनों से बने हैं। वे ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। ईश्वर ने हमें सिरजा है, वह इस जगत का आधार है, वह नहीं चाहता कि आनंद स्वरूप बनाने के बाद मानसिक दुख की हल्की सी रेखा भी हमें छू जाये। वह भीतर से हमें प्रेरित करता है और गुरुज्ञान का अधिकारी बनाता है। मानव को जब अपने अंतर में प्रकाश का अनुभव होता है तो उसे जगत ढक न ले, इसकी व्यवस्था गुरु सिखाता है। नियमित साधना, श्रवण तथा मनन का अभ्यास ही समरसता को बनाये रखने में सहायक है। 


Tuesday, September 5, 2023

कृष्ण जन्माष्टमी पर हार्दिक शुभकामनाएँ

कृष्ण को चाहने वाले इस जगत में हजारों नहीं लाखों हैं, या करोड़ों भी हो सकते हैं, किंतु कृष्ण की बात को समझने वाले और उसका स्वयं के भीतर अनुभव करने वाले बिरले ही होते हैं. उनके जीवन के हर पहलू से हमें कुछ न कुछ सीखने को मिलता है. कारागार में जन्म लेना क्या यह नहीं सिखाता कि आत्मा का जन्म देह की कैद में ही सम्भव है. मानव जन्म लिए बिना कोई आत्मा का अनुभव कर ही नहीं सकता. जन्म के बाद वह गोकुल चले जाते हैं, नन्द और यशोदा के यहाँ, अर्थात आत्मअनुभव के बाद नन्द रूपी आनंद की छत्र छाया में ही रहना है और यशोदा की तरह अन्यों को यश बांटते रहना है. बांटने की कला कोई कृष्ण से सीखे, वह मक्खन चुराते हैं ग्वाल-बालों और बंदरों में बांटने के लिए. बांसुरी बजाते हैं यह जताने के लिए कि सृष्टि संगीत मयी है, जीवन में यदि गीत और संगीत न हो तो कैसा जीवन. आज के युग में जीवन को संघर्ष का नाम दिया जाता है, जबकि कृष्ण की परिभाषा है जीवन एक उत्सव है. जन्माष्टमी पर हम कृष्ण के बालरूप को सजाते हैं, संत भी बालवत हो जाते हैं, इसका अर्थ हुआ यदि हमारे भीतर बचपन अभी जीवित है तो हम भी आत्मा के निकट हैं.  

शिक्षक दिवस पर शुभकामनाएँ

सृष्टि में ज्ञान के आदान-प्रदान का क्रम आदि काल से चला आ रहा है।सर्वप्रथम आदिगुरु शिव ने ऋषियों को जगत का ज्ञान दिया था। इसके बाद ब्रह्मा ने प्रजापति को ज्ञान दिया जिसके द्वारा मनुष्यों के सुखद जीवन के लिए नियम आदि बनाये गये। जब बच्चा जन्म लेता है, उसे कुछ भी बोध नहीं होता, माँ उसकी पहली गुरु होती है। इसके बाद विद्यालय में वह जीवन के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करता है। शिक्षक और विद्यार्थियों के मध्य जो संबंध है, उसकी मिसाल किसी से नहीं दी जा सकती। यह रिश्ता बहुत अनोखा है जिसमें दोनों तरफ़ से निःस्वार्थ प्रेम की एक धारा बहती है। एक शिक्षक अपने जीवन में अनेक विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं, पर उनका उत्साह और प्रेम कभी चुकता नहीं।वे सदा-सर्वदा उनका हित चाहते हैं। विद्यार्थी उन्हें अपना आदर्श मानते हैं, उनकी वाणी पर अटूट विश्वास करते हैं। उनका स्नेह भरा मार्गदर्शन जीवन भर साथ रहता है। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे अपने प्राइमरी स्कूल के शिक्षकों का नाम याद नहीं है। आज उन सभी शिक्षकों को प्रणाम करने का दिन है, जिनसे कभी न कभी हमने शिक्षा ग्रहण की है। 


Wednesday, August 23, 2023

पुरुषार्थ का करे जो साधन

भारतीय प्राचीन शास्त्रों के अनुसार मानव के चार पुरुषार्थ हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चारों की प्राप्ति के लिए किए गये प्रयत्न हमें परमात्मा की ओर ले जाते हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में ज्ञान को भगवद प्राप्ति का एक मार्ग बताया है। धर्म का पालन करते हुए ही मानव अंततः ज्ञान का अधिकारी बनता है।परमात्मा आनंद स्वरूप है और ज्ञान से बढ़कर आनंद का प्रदाता और कौन हो सकता है। ज्ञान चाहे जगत के रहस्यों का हो या मन की गहराई में छिपे अपने स्वरूप का हो, दोनों ही मन को प्रेम और शांति से भर देते हैं। दूसरा पुरुषार्थ है अर्थ,  जिसकी प्राप्ति श्रम पूर्वक कर्म करने से होती है। यह कर्मयोग का मार्ग बन सकता है। यदि मानव धर्म पूर्वक अर्थ का उपार्जन करे तो समाज-संसार में अन्यों के लिए व अपने लिए भी वह आनंद प्राप्ति का कारण बन सकता है। बड़े-बड़े धनपति हों या कोई भी व्यक्ति जो अपने भीतर जिस विशालता का अनुभव करते हैं, और अपने धन का उपयोग समाज की भलाई के लिए करते हैं, वह उन्हें परम की  निकटता अनुभव कराता है। उन्हें लगता है सारा संसार ही उनका अपना हो गया है। तीसरे पुरुषार्थ काम का मार्ग भक्ति का मार्ग है। यहाँ साधक प्रकृति के सृष्टि चक्र में सहायता करने हेतु गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सात्विक उपायों से धन का उपार्जन करता है।एक ऐसा घर जहां सन्तान वात्सलय, प्रेम, स्नेह, आदर सभी का अनुभव करते हुए बड़ी होती है, भक्ति के पथ पर अपने आप ही पहुँच जाती है।अपने व दूसरों के हित के लिए की गई कामनाओं की पूर्ति आनंद प्रदान करती है, और परमात्मा आनंद स्वरूप है। कोई भी व्यक्ति अंतिम साधन मोक्ष तक तभी पहुँचता है जब पहले के तीनों का अनुभव कर चुका हो।जीवन में रहते हुए भी कमलवत् साक्षी भाव में रहना ही जीते जी मोक्ष प्राप्त करना है। यह आनंद की सहज अवस्था है।   


Wednesday, August 9, 2023

जीवन पग-पग पर सिखलाये

जीवन एक पाठशाला ही तो है, जहां हर कदम पर हमें सीखना होता है। किसी की उम्र चाहे कितनी हो, वह बालक हो या वृद्ध, सीखने की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। कोई भी यहाँ पूर्ण नहीं है, पूर्णता की ओर बढ़ रहा है। अहंकार का स्वभाव है वह स्वयं को पूर्ण मानता है, अत: व्यक्ति सीखना बंद कर देता है; और अपने को मिथ्या ही पूर्ण मानता है। ऐसे में उसके भीतर एक कटुता, कठोरता तथा  दुख का जन्म होता है। सीखते रहने की प्रवृत्ति उसे बालसुलभ कोमलता प्रदान करती है। बच्चे जैसा लचीला स्वभाव हो तभी हम आनंद के राज्य में प्रवेश पा सकते हैं। प्रकृति या अस्तित्त्व हमें ऐसी परिस्थितियों में रखते हैं, जहां अहंकार को चोट पहुँचे। यदि दुख का अनुभव अब भी होता है, शिकायत का भाव बना हुआ है अहंकार का साम्राज्य बना हुआ है। स्वाभिमान जगा नहीं है। स्वाभिमान में व्यक्ति अपने प्रेमस्वरूप होने का अनुभव करता है। वहाँ कोई दूसरा है ही नहीं। कृतज्ञता की भावना से वह भरा रहता है। जो उसे कटु वचन कह रहा है मानो वह उसकी परीक्षा ले रहा है, मानो परमात्मा ने उसे वहाँ रखा हुआ है। जब मन कृतज्ञता से भरा हो तो उसमें कैसी पीड़ा ! हर श्वास जब परमात्मा की कृपा से मिली है तब जिस परिस्थिति में रखा जाये वह किसी बड़ी योजना का भाग है ऐसा मानना होगा। यह सृष्टि किसी विशाल आयोजन की तरह किसी शक्ति द्वारा चलायी जा रही है, यहाँ यदि हम स्वयं को जानकर उसमें परमात्मा के सहायक बनना चाहते हैं तो हमें विनम्र होना सीखना होगा, यह पहली सीढ़ी है। 


Monday, July 31, 2023

आनंद की जब चाह जगे

जीवन यात्रा में चलते हुए मानव के सम्मुख लक्ष्य यदि स्पष्ट हो और सार्थक हो तो यात्रा सुगम हो जाती है। योग के साधक के लिए मन की समता प्राप्त करना सबसे बड़ा लक्ष्य हो सकता है और भक्त के लिए परमात्मा के साथ अभिन्नता अनुभव करना. कर्मयोगी अपने कर्मों से समाज को उन्नत व सुखी देखना चाहता है. मन की समता बनी रहे तो भीतर का आनंद सहज ही प्रकट होता है. परमात्मा तो सुख का सागर है ही, और निष्काम कर्मों के द्वारा कर्मयोगी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, जिससे सुख का अनुभव होता है, अर्थात तीनों का अंतिम लक्ष्य तो एक ही है, वह है आनंद और शांति की प्राप्ति. सांसारिक व्यक्ति भी हर प्रयत्न सुख के लिए ही करते हैं, किन्तु दुःख से मुक्त नहीं हो पाते क्योंकि जगत का यह नियम है कि सुख-दुख यहाँ एक साथ मिलते हैं, अर्थात जो वस्तु आज सुख दे रही है, वही कल दुख देने वाली है। साधक, भक्त व कर्मयोगी तीनों को इस बात का ज्ञान हो जाता  है, तभी वह साधना के पथ पर कदम रखते हैं; और सदा के लिए दुखों से मुक्त हो जाते हैं।