हर आत्मा प्रेम से उपजी है, प्रेम ने उसे सींचा है और प्रेम ही उसकी तलाश है. माता-पिता शिशु की देह को जन्म देते हैं, आत्मा उसे अपना घर बनाती है. शिशु और परिवार के मध्य प्रेम का आदान-प्रदान उस क्षण से पहले से ही होने लगता है जब बालक बोलना आरम्भ करता है. अभी उसमें अहंकार का जन्म नहीं हुआ है, राग-द्वेष से वह मुक्त है, सहज ही प्रेम उसके अस्तित्त्व से प्रवाहित होता है. बड़े होने के बाद जब प्रेम का स्रोत विचारों, मान्यताओं, धारणाओं के पीछे दब जाता है, तब प्रेम जताने के लिये शब्दों की आवश्यकता पडती है. जब स्वयं को ही स्वयं का प्रेम नहीं मिलता तो दूसरों से प्रेम की मांग की जाती है. दुनिया तो लेन-देन पर चलती है इसलिए पहले प्रेम को दूसरे तक पहुँचाने का आयोजन किया जाता है. यह सब सोचा-समझा हुआ नहीं होता, अनजाने में ही होता चला जाता है. प्रेम पत्रों में कवियों और लेखकों के शब्दों का सहारा लिया जाता है. दूसरे के पास भी तो प्रेम का स्रोत भीतर छिपा है, उसे भी तलाश है. जीवन तब एक पहेली बन जाता है.
अर्थपूर्ण मंथन।
ReplyDeleteसस्नेह।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० मई २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteजब स्वयं को ही स्वयं का प्रेम नहीं मिलता तो दूसरों से प्रेम की मांग की जाती है।
ReplyDeleteबहुत सटीक, सार्थक सृजन ।
स्वागत व आभार सुधा जी !
Deleteईश्वर के अंश जीव बनकर शरीर धारण हुए और स्वर्ग पर रहे पर फल की इच्छा के चलते धरती पर पसीना बहाकर खाना खाने की नौबत आई और अब यही जीव अपने स्वामी ईश्वर की शरण मे जाने से असमर्थ हो गए है। ईश्वर अंश अविनाशी जीव से शरीर का मोह छूटता नही तबतक अपने स्वामी समर्थ ईश्वर की शरणागति मे जा सकता नही है। 🙏🙏🙏 मन-बुद्धि के बल से ही मनुष्य जन्म सिद्ध अधिकार ईश्वर साक्षात्कार तक पहुंच सकता है। 🙏🙏🙏
ReplyDeleteसही है, स्वागत व आभार !
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