Friday, December 28, 2012

साध्य ही जब बनता साधन


दिसंबर २००३ 
हमारा प्राप्तव्य यदि ऊँचा होगा तो साधन भी उत्तम अपनाएंगे. साध्य और साधन जब एक हो जाते हैं, तब जीवन में समता आती है. हृदय जब समभाव में स्थित रहता है तब कर्मों के बंधन नहीं बंधते. लक्ष्य यदि विस्मृत हो गया तो जीवन में पुलक नहीं रहती, रंग नहीं रहता और ऐसा जीवन भारस्वरूप ही होता है खुद के लिए और अन्यों के लिए भी. मृत्यु का सामना करने की तैयारी यदि हमने नहीं की तो सिवाय पछताने के कुछ हाथ नहीं आयेगा. उस समय जो हमारे साथ जायेगी वह  हमारी चेतना होगी, प्रज्ञावान चेतना...प्रज्ञा तभी जगेगी जब जीवन में ध्यान होगा, मन स्थिर होगा, उसके लिए ज्ञान चाहिए, ज्ञान भक्ति के बिना नहीं टिकता. भक्ति तभी मिलेगी जब सुमिरन होता रहे औए सुमिरन तभी होगा जब परम ही हमारा लक्ष्य हो, उसे जानने व पाने की चाह भीतर उठे. मन रूपी चरखे में जब श्वास रूपी धागा काता जाता है, और उन श्वासों में उसके नाम की गूंज उठती है तब जो चादर बिनी जाती है वही प्रज्ञा है. तब अंतर में आनंद का स्रोत छलकता है, उस सोते में सारे शिकवे-शिकायतें, चाहते डूब जाती हैं, रह जाती है मात्र शीतलता और सहजता.

Thursday, December 27, 2012

पावन प्रेम परम प्रसाद


दिसंबर २००३ 
प्रेम साकार भी है निराकार भी, वह सूक्ष्म भी है स्थूल भी, प्रेम जागृति भी है, परम सुषुप्ति भी. वह  अनिर्वचनीय है, वह जब हृदय में उत्प्न्न होता है तो कोई द्वंद्व नहीं रह जाता, कोई विरोध नहीं रह जाता, तब कोई विचार भी नहीं रह जाता, क्योकि विचार की उपस्थिति का अर्थ है द्वंद्व, जहां संकल्प होगा तो विकल्प भी होगा. प्रेम की उपस्थिति में मन संकल्प-विकल्प रहित हो जाता है, उसी क्षण ध्यान घटता है, भक्ति घटती है, इस अवस्था में आकर ही हम पूर्ण सहजता का अनुभव करते हैं, और तब हमारे कार्य भी सहज होते हैं, वचन भी और विचार भी, उनमें कोई विरोध नहीं रहता, अन्तकरण की सहज प्रेरणा से उत्पन्न, जैसे धरती से निर्झर फूटता है, उसका सौंदर्य अनूठा होता है. प्रेम की यह अनुभूति जब एक बार हो जाती है तो उसकी महक जीवन में भर जाती है. वह हृदय में बार-बार प्रकट होना चाहती है. कभी जीवन की आपाधापी में हम उसे भुला भी बैठें पर वह सारी बाधाओं को पार करके स्वयं को प्रकट कर ही देती है. प्रेम ज्ञान से उपजता है और ज्ञान प्रेम से, और दोनों की उपस्थिति में किया गया कर्म बाँधता नहीं, क्योकि वह न कुछ पाने के लिए किया गया होता है न कुछ देने के लिए. प्रेमिल हृदय आकांक्षा रहित होता है, वह उस बादल की तरह होता है जो बरस कर स्वयं को हल्का कर लेता है और कुछ नहीं चाहता. उसके कर्म अस्तित्व को अर्पित हैं.

Wednesday, December 26, 2012

राधे, राधे ! श्याम मिला दे



कान्हा हमारा परम सुह्रद है, हम उसे भुला देते हैं, प्रकृति के गुणों के अधीन होकर स्वयं को उससे पृथक मानते हैं, पर वह हमें चेताता है. हम उससे बिछड़ जाते हैं फिर मिल जाते हैं. प्रकृति और पुरुष का यह खेल अनन्तकाल से चल रहा है, जीव स्वयं को प्रकृति का अंश मानकर उस पर विजय प्राप्त करना चाहता है, पर प्रकृति स्वयं पुरुष के अधीन है, वह नित नए खेल दिखाती है ताकि थक-हार कर बंदा उसकी शरण में आ जाये. तब वह हमारी सहायक हो जाती है, गुणातीत होने पर हम नित नवीन आनंद का अनुभव कर सकते हैं, जो हमारा सहज स्वभाव है. सहजता को भुला देने पर हम कल्पनाओं के जाल में खुद को उलझा हुआ पाते हैं, पर मुक्ति हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.

Tuesday, December 25, 2012

मानव होना सीखें हम


दिसंबर २००३ 
मानव एक पुल है, जिसके एक ओर पशुता है और दूसरी ओर देवत्व, चुनाव उसके हाथ में है, क्रोध, हिंसा उसे पशु के समान बनाते हैं, प्रेम, उदारता देवों के समान. ऊर्जा भीतर एक ही है, दिशा भिन्न है, हर पल उसे दोनों में से चुनाव करने का अवसर मिलता है, यही तनाव उसे व्यथित किये रहता है, पशुता में उसका आकर्षण है क्योंकि वहाँ कोई जिम्मेदारी नहीं, देवत्व उसे चाहिए पर कीमत चुकाए बगैर, इसी कशमकश में मानव कहीं भी नहीं पहुंच पाता. नशा करके वह इस चुनाव से मुख मोड़ लेता है, यह नशा मादक द्रव्य का भी हो सकता है, धन, पद या यश का भी. वह अपनी एक मनमोहक छवि बना लेता है, और स्वयं ही धोखे में आ जाता है. इस पुल से निजात पाने का एक उपाय है, एक नई दिशा की तलाश, केवल मानव होने की आकांक्षा, जहां है वहीं रहकर स्वयं में टिक जाने का प्रयास, अपने भीतर जाने का प्रयत्न, तब चुनाव से परे होकर जीना होगा, जब जो मिले उसे सहज ही स्वीकारना, अमृत हो या विष दोनों को समता की भावना से ग्रहण करना. न कुछ पाने की चाह हो न कुछ त्यागने की, ऐसा मन ही परमात्मा की निकटता को अनुभव कर सकता है.

Monday, December 24, 2012

घूँघट के पट खोल रे



संतजन कहते हैं कि हमने मन को कई परतों में लपेट रखा है, जैसे बिजली की तार पर पहले प्लास्टिक की परत, फिर कपड़े की परत लगी होने पर, छूने पर भी कुछ महसूस नहीं होता, इसी तरह हमारे मन पर भीं जाने कितनी परतें चढ़ी हैं, तभी तो ईश्वर का नाम लेते रहने पर भी कुछ नहीं होता. उसके प्रति कृतज्ञता के भाव अंतर में नहीं उपजते न ही उसकी अनंत कृपाओं का स्मरण होता है. प्रमाद और व्यर्थ की कामनाओं की परत उसे हमसे दूर ही रखती है. अतीत का विषाद और भविष्य के स्वप्न हमें ऊपर उठने से रोकते हैं, जैसे कोई पैर बड़ा होने पर भी छोटे आकार के जूते पहने ही रहे तो पैर छोटे ही रह जायेंगे. हम जैसे उसे दूर-दूर से ही याद करते हैं, उसके निकट आने से डरते हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए हमें अपने को खोलना होगा. हम उसी से शांति चाहते हैं और अशांति का साधन जुटाए रहते हैं. यह संसार जो प्रतिपल बदल रहा है, हमें स्थिर होने ही नहीं देता, दे ही नहीं सकता, स्थिरता परम का धर्म है, उससे जुड़ते ही एक आधार मिल जाता है, सहजता, सरलता और सरसता तब अनायास ही प्राप्त हो जाती है.

Sunday, December 23, 2012

लो फिर आया नया साल


दिसम्बर २००३ 
नया साल मनाने का सबसे बड़ा उद्देश्य क्या यह नहीं कि हम समय के महत्व को जानें, समय बीत रहा है, पल-पल करके पूरा वर्ष बीत गया और हम अपने लक्ष्य की ओर कितना कम बढ़ पाए ! कितना अच्छा होगा कि हम नए वर्ष में नए बनें, पुरानी व्यर्थ हो चुकी मान्यताओं को छोड़ते चलें, जो भी बोझ हमने अपने मन पर यूँ ही ओढ़ रखा है उसे उतार रखें और हल्के हो जाएँ, क्योंकि जो बीत चुका है, वह मृत है, चाहे वह कितना भी स्वर्णिम क्यों न रहा हो, लौटने वाला नहीं है, और भविष्य अनिश्चित है, निश्चित केवल हमारा वर्तमान ही उसे बना सकता है. वर्तमान में रहना आ जाये तो नूतनता कभी साथ छोड़ती नहीं. हमें वर्तमान में रहकर नित नवीनता का अनुभव करते हैं, संवेदनशील रहते हैं, जागृत रह सकते हैं, ऊर्जावान रह सकते हैं, ऊर्जा का संरक्षण कर सकते हैं. वर्तमान में हमारे पिछले कर्मों की गांठ खुलती है, नया वर्ष आकर यही तो सिखाता है.

Friday, December 21, 2012

जिस मरने से जग डरे


जिसने मृत्यु को जान लिया है, वही जीवन को भी जान सकता है. हमारा जीवन एक अनंत यात्रा है, मृत्यु जिसमें आने वाले पड़ाव हैं, यह पड़ाव कितना लम्बा होगा अथवा कितना छोटा होगा यह हम नहीं जानते. उस दौरान हम भौतिक इन्द्रियों से परे होते हैं, आत्मा को स्वयं को जानने के लिए शरीर का साथ चाहिए, यह तन दुर्लभ है तभी ऐसा कहा गया है. जब तक यह है तब तक यदि सत्य को जान लें तो अशरीरी अवस्था में भी सजगता बनी रहेगी. ध्यान की गहनता मृत्यु का ही अनुभव है. ईश्वर की लीला अचिन्त्य है, वह अपने भक्त को अपना सान्निध्य देता है, इस जन्म में, मृत्यु के बाद और अगले जन्म में भी. यह ज्ञान बंधन से मुक्त करने वाला है, यह ऐसा पथ है जहां कुछ नहीं हुआ जाता है, अहम का वहाँ कोई स्थान नहीं.  

Thursday, December 20, 2012

चाह गयी चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह


ईश्वर के प्रति अनन्य विश्वास कितना सहज है एक भक्त के लिए पर कितना कठिन है एक अभक्त के लिए, जो हवा, धूप और जल की भांति सहज उपलब्ध है, जो है तो हम हैं, बल्कि वही है जो स्वयं को विभिन्न रूपों में प्रकट कर रहा है, वह लीला प्रिय है. वह स्वयं को भक्त के वश में होने देता है. सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, विशाल से भी विशाल वह अप्रमेय है. उसकी कृपा होते ही मन अपनी सीमाएं तोड़ देता है, क्षुद्र स्वार्थ की सीमाएं, परमार्थ की बात सोचने लगता है. धीरे-धीरे मन अमनी भाव में आ जाता है. तब कोई चाह नहीं रहती, प्रकृति भक्त के साथ हो जाती है, उसके द्वारा अर्थपूर्ण काम होने लगते हैं, भीतर की छिपी शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं. जगत के अधिपति का प्रिय पात्र बन जाने पर जगत का जोर चल भी कैसे सकता है.

Wednesday, December 19, 2012

बरसे हर पल प्रेम किसी का


नवम्बर २००३ 
गुरुमुख होना तलवार की धार पर चलने के समान है. साधक को यह सतत् स्मरण रखना है. लोभ हमें भटकाता है, कृपण बनाता है. सद्गुरु एक दर्पण की तरह है जो हमारे भीतर की सारी कमजोरियों को स्पष्ट दिखाता है. अपनी भूलों पर वेदना होगी तभी उनमें सुधार की गुंजाइश है. सुमिरन होगा तो स्वयं पर नजर जायेगी ही, जैसे चालक का ध्यान पल भर के लिए भी सड़क से हट जाये तो दुर्घटना घट सकती है, वैसे ही यदि सजगता नहीं रही तो हम अपने व्यवहार, अपनी वाणी तथा अपने मन के प्रति उदासीन हो जाते हैं. हमारे स्वयं का हमें ज्ञान नहीं रहता. हमारी शक्ति का दुरूपयोग होने लगता है. संसार रूपी जल मन रूपी नाव में भर जाता है और नाव डोलने लगती है, तब सुमिरन रूपी पतवार ही उसे बचा सकती है. जिसने एक बार भी परम का आश्रय लिया है उसे वह अकेले नहीं छोड़ते. जो एक बार उनके साथ हो लेता है, वह अगर पीछे भी रह जाये तो वहीं से वह उसे अपने साथ ले लेते हैं. हमारा निर्णय हमारे अपने हाथ में है, हम गुरुमुख होना चाहते हैं या मनमुख होना, श्रेय का मार्ग अपनाते हैं अथवा प्रेय का. हमारा लक्ष्य सुख है या आत्मा का आनंद. सुख के पीछे दुःख छिपा है, आत्मा के पीछे परमात्मा स्वयं हैं.

Tuesday, December 18, 2012

एक भरोसा उसी का


जो व्यवहार हम दूसरों से नहीं चाहते वह हमें भी उनके साथ नहीं करना चाहिए. साधक को तो मनसा, वाचा, कर्मणा हर पल सजग रहना है, और यह भी ध्यान रखना है कि हम मन, बुद्धि अथवा शरीर पर भरोसा नहीं कर सकते. शरीर अस्वस्थ हो सकता है, मन बदल सकता है और बुद्धि पलट सकती है. आत्मा सदा एक सा है, ध्रुव है, अटल है, न बदलने वाला है, हमें उसी का आश्रय लेना है, सभी के भीतर वह विद्यमान है सो सभी के प्रति हमारा भाव सम होना चाहिए, अपने समान ही. ध्यान में जब समय का भान नहीं रहता, मन को जैसे पंख लग जाते हैं, उसे ऑंखें भी मिल जाती है, वह सुन भी सकता है, बोल भी सकता है, छू भी सकता है, मन तब सूक्ष्मतर हो जाता है, अपने मूल स्वरूप में आ जाता है, कोई भीतर जग जाता है. वही आत्मा है. ध्यान है मौन धारे निश्चल बैठे रहना, उसके सान्निध्य में रहना जो हमारे कर्मों का साक्षी है, जो हमारे विचारों को हमसे भी पहले पढ़ लेता है, जो हमने प्रेम करता है, जो हमारे सर पर हाथ रखता है, जो हमारे साथ है, जो पुकारते ही उत्तर देता है, जो अनंत काल से है तथा अनंत काल तक रहेगा.


प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
लगभग तीन सप्ताहों के अंतराल के पश्चात आपसे मुखातिब हूँ, यात्रा सुखद रही, वाराणसी में देव दीवाली देखने का सुअवसर मिला, बैंगलोर में आर्ट ऑफ लिविंग के आश्रम में रहने का, गौहाटी में गीता मंदिर देखने का, विस्तृत विवरण कुछ समय बाद. ब्लॉग जगत में इस दौरान कितना कुछ लिखा गया होगा, कितना कुछ पढ़ा गया होगा...सब जानने की उत्सुकता लिए आने वाले उत्सवों की बधाई !