कान्हा हमारा परम सुह्रद है, हम उसे भुला देते हैं, प्रकृति के गुणों के अधीन होकर
स्वयं को उससे पृथक मानते हैं, पर वह हमें चेताता है. हम उससे बिछड़ जाते हैं फिर
मिल जाते हैं. प्रकृति और पुरुष का यह खेल अनन्तकाल से चल रहा है, जीव स्वयं को
प्रकृति का अंश मानकर उस पर विजय प्राप्त करना चाहता है, पर प्रकृति स्वयं पुरुष
के अधीन है, वह नित नए खेल दिखाती है ताकि थक-हार कर बंदा उसकी शरण में आ जाये. तब
वह हमारी सहायक हो जाती है, गुणातीत होने पर हम नित नवीन आनंद का अनुभव कर सकते
हैं, जो हमारा सहज स्वभाव है. सहजता को भुला देने पर हम कल्पनाओं के जाल में खुद
को उलझा हुआ पाते हैं, पर मुक्ति हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.
पर मुक्ति हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने
आभार
बढ़िया सन्देश प्रसारित करती है नव वर्ष पर्व पर यह पोस्ट .आभार .नूतन वर्ष अभिनन्दन !मूर्खों की कमी नहीं है एक ढूंढोगे हजार मिलेंगे .
ReplyDelete3hVirendra Sharma @Veerubhai1947
ram ram bhai मुखपृष्ठ http://veerubhai1947.blogspot.in/ बृहस्पतिवार, 27 दिसम्बर 2012 दिमागी तौर पर ठस रह सकती गूगल पीढ़ी
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3hVirendra Sharma @Veerubhai1947
ram ram bhai मुखपृष्ठ http://veerubhai1947.blogspot.in/ बृहस्पतिवार, 27 दिसम्बर 2012 खबरनामा सेहत का
ज्ञान देती सुंदर प्रस्तुति,,,,
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recent post : नववर्ष की बधाई
बहुत सुन्दर चिंतन...आभार
ReplyDeleteसदा जी, धीरेन्द्र जी व कैलाश जी आप सभी का स्वागत व हार्दिक आभार !
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