Monday, December 24, 2012

घूँघट के पट खोल रे



संतजन कहते हैं कि हमने मन को कई परतों में लपेट रखा है, जैसे बिजली की तार पर पहले प्लास्टिक की परत, फिर कपड़े की परत लगी होने पर, छूने पर भी कुछ महसूस नहीं होता, इसी तरह हमारे मन पर भीं जाने कितनी परतें चढ़ी हैं, तभी तो ईश्वर का नाम लेते रहने पर भी कुछ नहीं होता. उसके प्रति कृतज्ञता के भाव अंतर में नहीं उपजते न ही उसकी अनंत कृपाओं का स्मरण होता है. प्रमाद और व्यर्थ की कामनाओं की परत उसे हमसे दूर ही रखती है. अतीत का विषाद और भविष्य के स्वप्न हमें ऊपर उठने से रोकते हैं, जैसे कोई पैर बड़ा होने पर भी छोटे आकार के जूते पहने ही रहे तो पैर छोटे ही रह जायेंगे. हम जैसे उसे दूर-दूर से ही याद करते हैं, उसके निकट आने से डरते हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए हमें अपने को खोलना होगा. हम उसी से शांति चाहते हैं और अशांति का साधन जुटाए रहते हैं. यह संसार जो प्रतिपल बदल रहा है, हमें स्थिर होने ही नहीं देता, दे ही नहीं सकता, स्थिरता परम का धर्म है, उससे जुड़ते ही एक आधार मिल जाता है, सहजता, सरलता और सरसता तब अनायास ही प्राप्त हो जाती है.

4 comments:

  1. सार्थक ...सारगर्भित और प्रेरक भी ...!!

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  2. मनोज जी, अनुपमा जी व धीरेन्द्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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