Thursday, December 27, 2012

पावन प्रेम परम प्रसाद


दिसंबर २००३ 
प्रेम साकार भी है निराकार भी, वह सूक्ष्म भी है स्थूल भी, प्रेम जागृति भी है, परम सुषुप्ति भी. वह  अनिर्वचनीय है, वह जब हृदय में उत्प्न्न होता है तो कोई द्वंद्व नहीं रह जाता, कोई विरोध नहीं रह जाता, तब कोई विचार भी नहीं रह जाता, क्योकि विचार की उपस्थिति का अर्थ है द्वंद्व, जहां संकल्प होगा तो विकल्प भी होगा. प्रेम की उपस्थिति में मन संकल्प-विकल्प रहित हो जाता है, उसी क्षण ध्यान घटता है, भक्ति घटती है, इस अवस्था में आकर ही हम पूर्ण सहजता का अनुभव करते हैं, और तब हमारे कार्य भी सहज होते हैं, वचन भी और विचार भी, उनमें कोई विरोध नहीं रहता, अन्तकरण की सहज प्रेरणा से उत्पन्न, जैसे धरती से निर्झर फूटता है, उसका सौंदर्य अनूठा होता है. प्रेम की यह अनुभूति जब एक बार हो जाती है तो उसकी महक जीवन में भर जाती है. वह हृदय में बार-बार प्रकट होना चाहती है. कभी जीवन की आपाधापी में हम उसे भुला भी बैठें पर वह सारी बाधाओं को पार करके स्वयं को प्रकट कर ही देती है. प्रेम ज्ञान से उपजता है और ज्ञान प्रेम से, और दोनों की उपस्थिति में किया गया कर्म बाँधता नहीं, क्योकि वह न कुछ पाने के लिए किया गया होता है न कुछ देने के लिए. प्रेमिल हृदय आकांक्षा रहित होता है, वह उस बादल की तरह होता है जो बरस कर स्वयं को हल्का कर लेता है और कुछ नहीं चाहता. उसके कर्म अस्तित्व को अर्पित हैं.

4 comments:

  1. प्रेमिल हृदय आकांक्षा रहित होता है, वह उस बादल की तरह होता है जो बरस कर स्वयं को हल्का कर लेता है और कुछ नहीं चाहता. उसके कर्म अस्तित्व को अर्पित हैं.

    शायद यही समर्पण का भाव है.

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    1. आपने सही कहा है रमाकांत जी, प्रेम ही समर्पण है.

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  2. सार्थक ...बहुत सुंदर आलेख ...अनीता जी ।

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  3. जय श्री कृष्णा....अति सुन्दर....

    समर्पण की भावना से ही प्रेम का स्वरूप जानना संभव है।

    जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं।
    प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहीं॥

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