जो व्यवहार हम दूसरों
से नहीं चाहते वह हमें भी उनके साथ नहीं करना चाहिए. साधक को तो मनसा, वाचा,
कर्मणा हर पल सजग रहना है, और यह भी ध्यान रखना है कि हम मन, बुद्धि अथवा शरीर पर
भरोसा नहीं कर सकते. शरीर अस्वस्थ हो सकता है, मन बदल सकता है और बुद्धि पलट सकती
है. आत्मा सदा एक सा है, ध्रुव है, अटल है, न बदलने वाला है, हमें उसी का आश्रय
लेना है, सभी के भीतर वह विद्यमान है सो सभी के प्रति हमारा भाव सम होना चाहिए,
अपने समान ही. ध्यान में जब समय का भान नहीं रहता, मन को जैसे पंख लग जाते हैं,
उसे ऑंखें भी मिल जाती है, वह सुन भी सकता है, बोल भी सकता है, छू भी सकता है, मन
तब सूक्ष्मतर हो जाता है, अपने मूल स्वरूप में आ जाता है, कोई भीतर जग जाता है. वही
आत्मा है. ध्यान है मौन धारे निश्चल बैठे रहना, उसके सान्निध्य में रहना जो हमारे
कर्मों का साक्षी है, जो हमारे विचारों को हमसे भी पहले पढ़ लेता है, जो हमने प्रेम
करता है, जो हमारे सर पर हाथ रखता है, जो हमारे साथ है, जो पुकारते ही उत्तर देता
है, जो अनंत काल से है तथा अनंत काल तक रहेगा.
प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
लगभग तीन सप्ताहों के अंतराल के
पश्चात आपसे मुखातिब हूँ, यात्रा सुखद रही, वाराणसी में देव दीवाली देखने
का सुअवसर मिला, बैंगलोर में आर्ट ऑफ लिविंग के आश्रम में रहने का, गौहाटी
में गीता मंदिर देखने का, विस्तृत विवरण कुछ समय बाद. ब्लॉग जगत में इस
दौरान कितना कुछ लिखा गया होगा, कितना कुछ पढ़ा गया होगा...सब जानने की उत्सुकता
लिए आने वाले उत्सवों की बधाई !
अनीता जी नमस्कार |वापसी पर आपका स्वागत है |हृदय आनंदित हो जाता है आपका ब्लॉग पढ़ कर ...!!कुछ निधि मिल गई ऐसा लगता है ...!!लिखते रहें ...शुभकामनायें ....
ReplyDeleteअनुपमा जी, बहुत-बहुत आभार इन सुंदर प्रेरणादायक शब्दों के लिए...
Deleteसुन्दर.......स्वागत है आपका.......इंतज़ार रहेगा आपकी पोस्टों का ।
ReplyDeleteइमरान, शुक्रिया इस स्वागत के लिए...
Deleteजो व्यवहार हम दूसरों से नहीं चाहते वह हमें भी उनके साथ नहीं करना चाहिए
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने
बहुत ही बढिया प्रस्तुति
बिल्कुल सही कहा,,,सार्थक सन्देश,,,
ReplyDeleterecent post: वजूद,
साधक को तो मनसा, वाचा, कर्मणा हर पल सजग रहना है
ReplyDeleteसार्थक सन्देश
सदा जी व धीरेन्द्र जी, बहुत बहुत आभार !
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