नवम्बर २००३
गुरुमुख होना तलवार की धार पर चलने के समान है. साधक को यह सतत् स्मरण रखना है. लोभ
हमें भटकाता है, कृपण बनाता है. सद्गुरु एक दर्पण की तरह है जो हमारे भीतर की सारी
कमजोरियों को स्पष्ट दिखाता है. अपनी भूलों पर वेदना होगी तभी उनमें सुधार की
गुंजाइश है. सुमिरन होगा तो स्वयं पर नजर जायेगी ही, जैसे चालक का ध्यान पल भर के
लिए भी सड़क से हट जाये तो दुर्घटना घट सकती है, वैसे ही यदि सजगता नहीं रही तो हम
अपने व्यवहार, अपनी वाणी तथा अपने मन के प्रति उदासीन हो जाते हैं. हमारे स्वयं का
हमें ज्ञान नहीं रहता. हमारी शक्ति का दुरूपयोग होने लगता है. संसार रूपी जल मन
रूपी नाव में भर जाता है और नाव डोलने लगती है, तब सुमिरन रूपी पतवार ही उसे बचा सकती
है. जिसने एक बार भी परम का आश्रय लिया है उसे वह अकेले नहीं छोड़ते. जो एक बार
उनके साथ हो लेता है, वह अगर पीछे भी रह जाये तो वहीं से वह उसे अपने साथ ले लेते
हैं. हमारा निर्णय हमारे अपने हाथ में है, हम गुरुमुख होना चाहते हैं या मनमुख
होना, श्रेय का मार्ग अपनाते हैं अथवा प्रेय का. हमारा लक्ष्य सुख है या आत्मा का
आनंद. सुख के पीछे दुःख छिपा है, आत्मा के पीछे परमात्मा स्वयं हैं.
sundar abhivyakti
ReplyDeleteगुरु बिन ज्ञान अधूरा.........सुन्दर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक आलेख ...
ReplyDeleteबेहतरीन,सार्थक प्रस्तुति,,,
ReplyDeleterecent post: वजूद,
मधु जी, इमरान, अनुपमा जी, व धीरेन्द्र जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
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