Wednesday, January 31, 2018

सहज बंटे है नेमत उसकी

१ फरवरी २०१८ 
जीवन एक प्रसाद है. एक अनोखा उपहार. जीवन कितना भव्य है और कितना गरिमापूर्ण भी. जीवन का होना मात्र ही अपनेआप में इतना सुख से भरा है कि जीवन से कुछ मांगने की बात ही बेमानी है. संत सदा से कहते आये हैं, मानव जन्म अनमोल है, इसका अहसास उसी को होता है जो जीवन के मर्म को समझ लेता है. देह तो मात्र बाहरी आवरण है, इसको चलाने वाली ऊर्जा जो चेतन भी है और रसपूर्ण भी है, उसका अनुभव किये बिना जीवन का मोल नहीं लगाया जा सकता. मीरा ने जिस राम रतन को पाया और बुद्ध ने जिस शून्य को अपने भीतर पाया वह परम सत्य हर मानव पा सकता है. एक बार उसके लिए भीतर आकांक्षा जगे और परम के प्रति अटूट श्रद्धा हो तो जीवन का हर पल आनंद से भर जाता है.   

खाली होगा जब अंतर्मन

३१ जनवरी २०१८ 
कभी-कभी कहने को कुछ नहीं होता, मन शून्य की भांति रिक्त हो जाता है. एक अनजाना सा रस भीतर प्रकट होता है और उसका स्रोत कहीं नजर नहीं आता. कुछ करना है यह भान तो रहता है पर कुछ विशेष करने की चाह नहीं होती. एक तृप्ति का अहसास होता है जो आगे बढ़ने को प्रेरित तो करता है पर कोई दिशा नहीं दिखाता. जीवन विविधरंगी है, मन की ऐसी अवस्था भी जीवन का एक नया रंग है. जहाँ सब कुछ अपने आप घटित हो रहा है, इतना विशाल ब्रह्मांड किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा एक व्यवस्थित ढंग से चल रहा है, वहाँ यह छोटा सा मन भी उसी अनाम ऊर्जा से ही प्रकाशित है. विराट की उपासना से क्षुद्र की पकड़ अपने आप छूट जाती है, सम्भवतः इसी कारण किसी लक्ष्य की ऐसे मन को चाह नहीं रहती.

Monday, January 29, 2018

दूर नहीं है मंजिल अपनी

३० जनवरी २०१८ 
संत कहते हैं, हम स्वयं ही अपनी गति हैं. हम जहाँ पहुँचना चाहते हैं, पहुँचे ही हुए हैं, जो पाना चाहते हैं, हमें मिला ही हुआ है. हम ही राही हैं और मंजिल भी हम ही हैं. जब पहुँचे ही हुए हैं तो राह है ही नहीं, चलना नहीं है, कहीं जाना नहीं है. जहाँ हैं, वहाँ विश्राम करना है. ऐसा कोई पल खोजना है जब देह के साथ चेतना भी पूर्ण विश्राम में हो, मन में न कोई हलचल हो न कोई संवेदना ही. विचार थम जाएँ और चेतना अपने आप में ठहर जाये, ऐसा एक भी पल हमें अपनी मंजिल का पता बता देता है. उसकी झलक दे देता है, फिर जगत में सभी कार्य करते हुए भी उस घर की याद बनी रहती है. 

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत

२९ जनवरी २०१८ 
संसार कार्य है, परमात्मा कारण है. संसार व्यक्त है, परमात्मा अव्यक्त है. जन्म से पहले हम भी अव्यक्त थे, मृत्यु के बाद फिर अव्यक्त हो जायेंगे. परमात्मा अव्यक्त होते हुए भी सदा विद्यमान  है, वही संसार रूप में व्यक्त हुआ है. इसी तरह हम भी व्यक्त व अव्यक्त दोनों एक साथ हैं. जैसे बीज में वृक्ष छिपा है और वृक्ष में बीज. जो व्यक्त रहते हुए स्वयं के अव्यक्त रूप से परिचित हो जाता है, उसे मृत्यु का भय नहीं रहता. 

Thursday, January 25, 2018

दिल है छोटा सा

२५ जनवरी २०१८ 
कितना छोटा सा है मानव का हृदय और उसमें वह अनंत समा जाता है जैसे कितना छोटा सा है मोबाइल फोन और उसमें सारा जहाँ समा गया है. सूक्ष्म में स्थूल समाया है या स्थूल में सूक्ष्म, यह पहेली हल नहीं होती. देह स्थूल है, मन सूक्ष्म, बुद्धि मन से भी सूक्ष्म और आत्मा बुद्धि से, परमात्मा आत्मा से भी परे है, यानि उससे भी सूक्ष्म. वह अति सूक्ष्म सत्ता हर जड़-चेतन का आधार है. उसमें सतत् वास करने से ही आत्मा समता को प्राप्त होती है, वरना मन तो पीपल के पते की तरह डोलता ही रहता है. मन चाह जगाता है, फिर उसे पूर्ण करने के लिए प्रयत्न करता है, सफल या असफल होने पर सुख-दुःख का अनुभव करता है, यश अथवा अपयश का भागी भी बनता है. एक चक्र पूरा होने पर दूसरी चाह...मन कभी थकता नहीं. आत्मा सदा तृप्त है. उसे विश्राम मिल गया है. वह उस पुष्प की तरह सुगंध फैलाती है जिसे न खिलने की चाह है न मुरझाने का भय, जिसका स्वभाव ही है खिलना. 

Wednesday, January 24, 2018

रहे ऊर्जित हर पल अपना

२४ जनवरी २०१८ 
जीवन एक ऊर्जा है, जो हजार-हजार रूपों में स्वयं को व्यक्त कर रही है. मानव इस उर्जा को पहचान कर उसे दिशा दे सकता है. जब तक हम स्वयं को नहीं जानते नियति के द्वारा संसार सागर में इधर-उधर बहाए जाते हैं. हमारे कर्म पूर्वाग्रहों से संचालित होते हैं, जो पूर्व संस्कारों के कारण बनते हैं. न चाहते हुए भी हम मनसा, वाचा, कर्मणा स्वयं दुःख पाते हैं और अन्यों को दुःख देने के साधन बन जाते हैं. एक बार अपने भीतर इस ऊर्जा को अनुभव करने के बाद भीतर स्वराज्य का जन्म होता है. यही असली मुक्ति है. विकारों, संस्कारों, मान्यताओं और विश्वासों से मुक्त होते ही ऊर्जा खिलने लगती है और जीवन के एक नये आयाम से परिचय होता है.

Friday, January 19, 2018

स्वयं में होगा मिलन परम से

२० जनवरी २०१८ 
परमात्मा की कृपा को अनुभव करेगा कौन ? देह जड़ है, मन स्मृति और कल्पना से पूर्ण है. बुद्धि सदा हानि-लाभ की उधेड़बुन में लगी रहती है. चित्त न जाने कितने जन्मों के संस्कारों से भरा हुआ है. अहं चाहता है जैसे संसार मिला है वैसे ही परमात्मा भी मिल जाये. उसे यह ज्ञात ही नहीं जिस शक्ति से वह बना है, जो उसके भीतर ओत-प्रोत है, उसके शांत होते ही स्वयं को देख सकती है. संत कहते हैं, एक ही तत्व से यह सारा जगत बना है. देह, मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार की गहराई में भी वही छिपा है. उसे जानने के लिए कहीं दूर नहीं जाना है. ध्यानपूर्वक मन आदि को ठहराना है, आत्मा स्वयं ही प्रकट हो जाएगी और परमात्मा का अनुभव उसे ही होगा. बाद में देह, मन आदि पर उसका प्रभाव अवश्य ही देखा जा सकेगा.    

Wednesday, January 17, 2018

कर्मशील हो जीवन सबका

१७ जनवरी २०१८ 
मुख में नाम, हाथ में काम’, ऐसे वचन हम बड़ों के मुख से सुनते आये हैं. कोई इसका अर्थ यह लगा सकता है कि कार्य करते समय भगवान का नाम लेते रहो, किन्तु नाम जपना कभी-कभी औपचारिक भी हो जाता है और यांत्रिक भी. ऐसा भी हो सकता है कि कार्य में लगे रहने पर मन उसी में सलंग्न हो जाये और नाम लेना भूल ही जाये. इसलिए इस सुंदर वचन का भाव कुछ और होना चाहिए. हमारा मन शांत हो अर्थात भीतर कोई हलचल न हो पर बाहर से हम निरंतर कार्य में लगे रहें. प्रमाद और आलस्य के वश होकर भक्ति के नाम पर बैठे न रहें बल्कि अपना हृदय परमात्मा को समर्पित करके उसकी सृष्टि को सुंदर बनाने के लिए अपना योगदान देते रहें. 

Saturday, January 13, 2018

अग्नि सम उन्नत हो जीवन

१३ जनवरी २०१८ 
सत्संग, सेवा, साधना और स्वाध्याय इन चार स्तम्भों पर जब जीवन की इमारत खड़ी हो तो वह सुदृढ़ होने के साथ-साथ सहज सौन्दर्य से सुशोभित होती है. उत्सव बार-बार इसी बात को याद दिलाने आते हैं. हर उत्सव का एक सामाजिक पक्ष होता है और धार्मिक भी, यदि उसमें आध्यात्मिक पक्ष भी जोड़ दिया जाये तो उसमें चार चाँद लग जाते हैं. मकर संक्रांति ऐसा ही एक उत्सव है. इस समय प्रकृति में आया परिवर्तन हमें जीवन के इस अकाट्य सत्य की याद दिलाता है कि यहाँ सब कुछ बदल रहा है, भीषण सर्दी के बाद वसंत का आगमन होने ही वाला है. छोटे-बड़े, धनी-निर्धन आदि सब भेदभाव भुलाकर जब एक साथ लोग अग्नि की परिक्रमा करते हैं तो सामाजिक समरसता का विकास होता है. तिल, अन्न आदि के दान द्वारा भी सेवा का महत कार्य इस समय किया जाता है. जीवन की पूर्णता का अनुभव उत्सव के माहौल में ही हो सकता है. कृषकों द्वारा नई फसल को प्रकृति की भेंट मानकर उसका कुछ अंश अग्नि को समर्पित करने की प्रथा हमें निर्लोभी होना सिखाती है.     


Friday, January 12, 2018

देवों का आशीष सदा है

१२ जनवरी २०१८
संत कहते हैं, जैसे कोई सिंह शावक बाल्यावस्था में भेड़ों के मध्य चला गया हो और स्वयं को भेड़ ही मानता रहे, वैसे ही मानव देव होने की क्षमता रखते हुए भी असुरों के मध्य चला जाता है और स्वयं को असुर मानने लगता है. देव होने का अर्थ है स्वयं को परमशक्ति के प्रति समर्पित मानना, सदा देने की भावदशा में रहना, आनंद और शांति के साथ सबके सुख की कामना करते हुए जीना. असुर स्वयं को असुरक्षित मानता है, फिर भी समर्पण नहीं करता. उसे अपने लिए ही कम पड़ता है, देने का ख्याल कहाँ से आएगा और स्वार्थपूर्ति के लिए वह अन्यों को दुःख भी पहुँचा सकता है. मानव यदि देवत्व को जगाने की कामना करता है तो सारी देव शक्तियाँ उसकी सहायता के लिए आ खड़ी होती हैं. आसुरी भाव में जीने वाला व्यक्ति आसुरी शक्तियों के प्रभाव में और भी दुर्बल हो जाता है.

Wednesday, January 10, 2018

जग जायेगी जब जिज्ञासा

१० जनवरी २०१८ 
देह प्रतिक्षण बदल रही है, मन कहीं ठहरता ही नहीं, इन्हें देखने वाला द्रष्टा मात्र साक्षी है. बचपन की देह अब नहीं रही, युवावस्था भी बीत गयी और प्रौढ़ावस्था भी अधिक देर तक नहीं रहेगी. एक दिन देह भी गिर जाएगी, उस क्षण भी एक तत्व अखंड बना रहेगा. उस एक तत्व को जो जान लेता है और उसमें टिकना सीख जाता है, वह सुख-दुःख के पार चला जाता है. जगत में रहकर कार्य करते हुए, गाढ़ निद्रा में अथवा स्वप्न देखते समय वह एक तत्व निरंतर देखता रहता है. हम संसार को देखते हैं पर उस देखने वाले को नहीं देखते. नींद से जगकर जब हम कहते हैं, रात अच्छी नींद आयी तो यह जवाब वहीं से आता है. हर साधना का लक्ष्य बुद्धि में उस एक तत्व को जानने की लालसा जगाना ही है.

Tuesday, January 9, 2018

बुल्लाह, की जाना मैं कौन ?

९ जनवरी २०१८ 
“मैं कौन हूँ” इस प्रश्न का जवाब खोजे नहीं मिलता. बुल्लेशाह तभी कहते हैं, बुल्लाह, की जाना मैं कौन ? हम किताबें पढ़ते हैं, शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, संतों की वाणी सुनते हैं, पर यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है. बाहर संसार है भीतर विचार है, ध्यान की गहराई में जाएँ तो वहाँ कुछ भी नहीं, पूछने वाला ही नहीं रहा, यदि पूछने वाला है तो ध्यान घटा ही नहीं. जहाँ कुछ नहीं रहता वहाँ परमात्मा है, और परमात्मा ने अखंड मौन धारण किया हुआ है. वास्तव में प्रकृति और परमात्मा के इस खेल में ‘मैं’ तभी तक है, जब तक अज्ञान है, अर्थात जब तक खोज शुरू ही नहीं हुई. देह और मन से परे ‘मैं’ एक अविनाशी सत्ता है, इसका ज्ञान होने पर ही पता चलता है, कि वहाँ कुछ भी नहीं है. जीवन तब एक खेल या नाटक ही प्रतीत होता है.