१२ जनवरी २०१८
संत कहते हैं, जैसे कोई सिंह शावक बाल्यावस्था में भेड़ों के
मध्य चला गया हो और स्वयं को भेड़ ही मानता रहे, वैसे ही मानव देव होने की क्षमता
रखते हुए भी असुरों के मध्य चला जाता है और स्वयं को असुर मानने लगता है. देव होने
का अर्थ है स्वयं को परमशक्ति के प्रति समर्पित मानना, सदा देने की भावदशा में
रहना, आनंद और शांति के साथ सबके सुख की कामना करते हुए जीना. असुर स्वयं को
असुरक्षित मानता है, फिर भी समर्पण नहीं करता. उसे अपने लिए ही कम पड़ता है, देने
का ख्याल कहाँ से आएगा और स्वार्थपूर्ति के लिए वह अन्यों को दुःख भी पहुँचा सकता
है. मानव यदि देवत्व को जगाने की कामना करता है तो सारी देव शक्तियाँ उसकी सहायता
के लिए आ खड़ी होती हैं. आसुरी भाव में जीने वाला व्यक्ति आसुरी शक्तियों के प्रभाव
में और भी दुर्बल हो जाता है.
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