हमारे अस्तित्त्व में
देह, प्राण, मन बुद्धि, स्मृति, और अहंकार हैं. इनमें से आत्मा के निकटतम रहने
वाला अहंकार ही वह पर्दा है जो हमें शांति, आनंद और ज्ञान से दूर रखता है. हम सदा
स्वयं को बड़ा सिद्ध करना चाहते हैं, बड़ी बातों में ही नहीं छोटी से छोटी बात में
भी हमें दूसरे से पीछे रहना स्वीकार नहीं. हम स्वयं ही नहीं हमारी वस्तुएं, हमारी
संतानें, हमारा घर, यानि हमारा सब कुछ, सबसे बेहतर हों, इसकी फ़िक्र हमें रहती है,
रहनी भी चाहिए लेकिन हम उसका प्रदर्शन भी करते हैं और चाहते हैं कि इसके लिए लोग
हमारी प्रशंसा करें. इस भागदौड़ में हम आत्मा से यानि स्वयं से दूर निकल जाते हैं. संत
कहते हैं, एक बार स्वयं में टिकना जिसको आ जाता है, वह जान लेता है कि इस जगत में
कोई दूसरा है ही नहीं. जब तक जगत के साथ आत्मीयता का भाव नहीं पनपेगा, जगत हमारा
प्रतिद्वंदी ही जान पड़ेगा. स्वयं के भीतर जाकर जब एक आश्वस्ति भरी सुरक्षा का अनुभव
हमें होता है, सारी दौड़ खत्म हो जाती है.
Monday, April 22, 2019
Friday, April 19, 2019
स्वयं के बीज को जाना जिसने
जीवन को यदि पूर्णता
तक पहुँचाना है, तो हमें अपने स्रोत को ढूँढना होगा. यदि हमारा स्रोत पूर्ण है तभी
हमारा लक्ष्य भी श्रेष्ठ हो सकता है. हम कहते हैं कमल कीचड़ से निकलता है, लेकिन यह
भूल जाते हैं कि कमल का जन्म अपने बीज से होता है, बीज अपने आप में पूर्ण है इसलिए
कमल भी पूर्ण है, चाहे उसके आस-पास पंक ही क्यों न हो. देह पंचतत्वों से बनी है,
और चेतना परम चैतन्य से. तत्व पूर्ण हैं और चैतन्य भी. अपने भीतर इनका अनुभव ही
हमें पूर्णता का अनुभव कराता है. योग का मार्ग इसी और ले जाता है. मन को साधना के
पथ पर ले जाना एक चुनौती है, जिसका सामना साधक को करना होता है. अपने भीतर झाँकने
पर पहले-पहल पीड़ा भी होगी और बेचैनी भी, लेकिन जैसे-जैसे मन गहराई में जाता है,
समाधान मिलने लगता है.
Wednesday, April 17, 2019
चुनना जिसने सीख लिया है
जैसे मानव देह में
मस्तिष्क का मुख्य स्थान है, वैसे ही एक देश में संसद का. मस्तिष्क यानि बुद्धि,
जिस प्रकार का ज्ञान बुद्धि में होगा, वैसा ही निर्देश कर्मेन्द्रियों व
ज्ञानेन्द्रियों को मिलेगा. यदि बुद्धि सात्विक होगी तो आहार-विहार भी सात्विक
होगा, कर्म भी शुद्ध होंगे और शरीर स्वस्थ रहेगा. स्वस्थ का अर्थ है देह का मालिक
यानि आत्मा अपने आप में स्थित रहेगा, जिससे अनवरत ऊर्जा का प्रवाह देह, मन
इन्द्रियों को मिलता रहे. यदि देह अस्वस्थ होती है तो चेतना रुग्ण अंग में ही सिमट
जाती है और ऊर्जा का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है. इसी प्रकार यदि संसद में देश और
धर्म के प्रति समर्पित सांसद होंगे तो वैसा ही निर्देश अधिकारियों और जनता को
मिलेगा. यदि सांसद निष्ठावान होंगे तो विकास भी सही दिशा में और शीघ्र होगा. देश
समर्थ बनेगा, समर्थ का अर्थ है अपनी रक्षा करने में सक्षम और जनता के हर वर्ग को
एक सुंदर व स्वस्थ वातावरण प्रदान करने में सक्षम. यदि ऐसे व्यक्ति चुनकर आते हैं
जो दीर्घसूत्री हैं, उच्च आदर्शों के प्रति जिनके मन में सम्मान नहीं है, जो निज
हितों को देश से ऊपर रखते हैं तो विकास की गति अवेरुद्ध हो जाएगी. देश कमजोर
बनेगा. निर्णय हमें करना है कि हम चरित्रवान और कर्मठ लोगों को चुनें.
Tuesday, April 16, 2019
सागर में इक लहर उठी
परमात्मा को हम
सच्चिदानंद कहते हैं. सत्, चित् और आनन्द स्वरूप परमात्मा यूँ तो हर प्राणी के
अंतर में छुपा है. मात्र सत्ता के रूप में वह जड़-चेतन दोनों में है, चेतना के रूप
में सजीव प्राणियों में है और आनन्द के रूप में सच्चे संतों में प्रकट होता है. मानव
जीवन की सार्थकता इसी में है कि जीते जी उस चेतना का अनुभव करे जो दिव्य है,
स्वाधीन है, शांत है और प्रेम से भरी है. हमारे शास्त्र एक स्वर से उसी का बखान
करते हैं. अर्जुन को विषाद योग से निकलने के लिए कृष्ण उसी का उपदेश करते हैं. वही
शिव के रूप में कल्याणकारी है और शक्ति के रूप में उत्साहित करने वाली है. लहर
रूपी मन की चंचलता को विश्राम देने वाली सागर स्वरूप भी वही है. आकाश में उड़ते हुए खग को
आश्रय देने वाली नीड़ रूपी वह चेतना सदा ही हमारे भीतर है.
है अपार महिमा उसकी
हम परमात्मा की
महिमा के गीत गाते हैं, कि वह सर्वज्ञ है, वह अनादि है, अनंत है, वह परम कृपालु
है, अन्तर्यामी है और परम स्नेही है. यदि हमारी भावनाएं सच्ची हैं तो ऐसा करके हम
अपनी ही सम्भावनाओं को तलाशते हैं. परम की महिमा एक दिन हमें अपने भीतर के सत्य से
मिला देती है. हर व्यक्ति अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहता है, किसी को भी अपने जन्म का
कोई अनुभव नहीं, हम सदा से ही स्वयं को जानते हैं और न ही हमें कभी यह लगता है कि
एक दिन हम नहीं रहेंगे. उसकी कृपा को अनुभव करने वाला हृदय अन्यों पर दया करना अनायास
ही सीख जाता है. स्नेह का वह स्रोत, जो सबके भीतर गहराई में बहता है और ज्यादातर
लोग जीवन भर उससे अछूते ही रह जाते हैं, उसके जीवन में प्रवाहित होने लगता है और उसे ही
नहीं आसपास के लोगों को भी भिगोता हुआ बहता है.
Sunday, April 14, 2019
दो के पार ही मिलता जीवन
जीवन विरोधाभासी है.
यहाँ रात है तो दिन भी है, सुख के साथ दुःख भी है, इसी तरह प्रेम है तो घृणा भी
है. पक्ष है तो विपक्ष भी है. हम सुख का वरण करना चाहते हैं, और दुःख से बचना
चाहते हैं, लेकिन जीवन का यह नियम है कि एक के साथ दूसरा स्वतः ही मिलता है. यदि
दुःख से बचना है तो सुख का भी त्याग करना होगा, घृणा से बचना है तो प्रेम का भी
मोह छोड़ना होगा. जगत को साक्षी भाव से देखकर स्वयं को द्वन्द्वों से ऊपर उठाना ही
साधना है. रात और दिन दोनों से ऊपर संध्या काल है, जिसका बहुत महत्व शास्त्रों में
गाया गया है. सुख-दुःख दोनों से ऊपर आनंद है, जो आत्मा का स्वभाव है. प्रेम व घृणा
दोनों से ऊपर करुणा है, जिसकी आज जगत को बहुत आवश्यकता है. इसी तरह हर द्वंद्व के
पार जाकर ही समाधान मिल सकता है.
Thursday, April 11, 2019
मन में हो स्वीकार भाव जब
साधक का लक्ष्य उस ‘एक’ को पाना है, जो प्रेम, शांति, ज्ञान,
शक्ति व पवित्रता का सागर है. यदि वह कुछ और पाने के लिए परमात्मा से प्रार्थना
करता है, तो वह अभी साधक ही नहीं हुआ. जिसके हृदय में कृतज्ञता का भाव हो और मन
में प्रसन्नता का फूल खिला हो, उससे सत्य अपने को ज्यादा देर तक छुपा नहीं सकता.
यदि किसी के भी प्रति हृदय में शिकायत का भाव है तो कृतज्ञता अभी सधी नहीं है, यदि
किसी भी कारण से मन कुम्हला जाता है तो प्रसन्नता पर अभी अधिकार नहीं हुआ.
परमात्मा आनंदित रहकर ही पाया जा सकता है. जब हम जगत को जैसा वह है वैसा ही
स्वीकार कर लेते हैं तब भीतर से कृतज्ञता का भाव जगता है और मन में जगत के प्रति कोई
द्वेष नहीं रहता.
Tuesday, April 9, 2019
जब जागेगा भीतर कोई
जीवन एक पाठशाला है, जाने कितनी बार हम ये शब्द सुनते हैं. लेकिन इस पाठशाला का
शिक्षक कौन है, बिना शिक्षक के कोई विद्यार्थी चाहे वह कितना ही होशियार हो, नहीं
पढ़ सकता. जीवन की इस पाठशाला का शिक्षक हमारी चेतना है, हमारा जमीर. यदि वह स्वयं
ही सोया हुआ है तो जीवन लाख पाठ पढ़ाये हमारी समझ में कुछ नहीं आता. मोह के कारण न
जाने कितनी बार व्यक्ति दुःख उठाता है, किन्तु मोह किये बिना रह नहीं पाता.
अनावश्यक बोलने के कारण भी कितनी बार हमें पछताना पड़ता है पर हर विषय में अपनी राय
बताने का लोभ संवरण नहीं होता. यदि मन ही हमारा शिक्षक है तो ये भूलें बार-बार
होती रहेंगी. मन की गहराई में सुप्त चेतना जब जाग जाती है तभी हर अनुभव हमें आगे
ले जाने वाला होता है. जीवन में व्रत हो, तप हो और साधना का नियम हो, और मन में
श्रद्धा हो तब यह चेतना सहज ही जाग जाती है.
Sunday, April 7, 2019
तीनों गुणों के पार हुआ जो
चित्त सत्व, रज व तम से बना है, जड़ है. चित्त में ज्ञान, क्रिया
और स्थिरता तीनों हैं. सत्व से ज्ञान होता है, रज से प्रवृत्ति होती है तथा तम से स्थिति
होती है. चित्त कार्य द्रव्य है, यह उत्पन्न हुआ है, नष्ट भी होगा. यह कार्य जगत
भी इन्हीं तीनों गुणों से बना है. भीतर जो संघर्ष चल रहा है वह जड़ और चेतन में
होता है. हर क्षण हम जो जान रहे हैं, वह चित्त के सत्व गुण के कारण है. जब इसमें
रजो या तमो गुण बढ़ा हुआ होता है, हम प्रामाणिक ज्ञान से दूर हो जाते हैं. समाधि का
लक्ष्य है सत्व गुण को बढ़ाना. चित्त की एकाग्र व निरुद्ध अवस्था में समाधि घटती
है. पतंजलि योग सूत्रों के आधार पर मुख्यतः समाधि दो प्रकार की है सम्प्रज्ञात व
असम्प्रज्ञात. वितर्क, विचार, आनन्द व अस्मिता अनुगत ये चार समाधियाँ सम्प्रज्ञात
के अंतर्गत आती हैं. वितर्क में स्थूल विषयों पर एकाग्रता रहती है. विचारानुगत में
सूक्ष्म का ज्ञान होता है. आनंद व अस्मिता में क्रमशः आनंद व स्वयं के होने का भान
होता है. जब सभी वृत्तियाँ रुक जाती हैं उसे असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं.
Thursday, April 4, 2019
समाधान जब मिल जाएगा
योग के साधक का लक्ष्य समाधि अवस्था प्राप्त करना
है, समाधि अर्थात समाधान ! जब-जब हम कुछ
जानते हैं, उस समय समाधान अवस्था में होते हैं. यह चित्त का वह धर्म है जो उसकी
सभी भूमियों में रहता है. चित्त का अर्थ है, अंतःकरण यानि मन, बुद्धि, चित्त व
अहंकार ! मन से तर्क-वितर्क करते हैं, बुद्धि से निर्णय लेते हैं, यहाँ चित्त से
तात्पर्य है स्मृति. संस्कार भी चित्त में रहते हैं, तथा अहंकार से अहंता का बोध होता है. चित्त की
पांच भूमियाँ होती हैं, क्षिप्त, मूढ़, एकाग्र, विक्षिप्त और निरुद्ध. क्षिप्त चंचल
अवस्था है जिसमें मन में रजो व तमो दोनों गुण होते हैं. इसमें विवेक की कमी होती
है. मूढ़ अवस्था में तमोगुण अधिक होता है. यह आलस्य, तंन्द्रा से भरी विवेक शून्य
अवस्था है. विक्षिप्त अवस्था में मन एक विषय में रुक जाता है, रजोगुण तथा तमोगुण
बने रहते हैं. एकाग्र अवस्था में सतोगुण बढ़ जाता है, मन एक ही विषय पर स्थिर रहता
है. निरुद्ध अवस्था में चित्त स्थिर हो जाता है. पूरी तरह से वृत्तियाँ रुक जाती हैं
Tuesday, April 2, 2019
पुरुषार्थी बने जब कोई
पुनर्जन्म और कर्म फल
सिद्धांत हिन्दू धर्म की बुनियाद में है जो इसे विशिष्ट बनाते हैं. इनके कारण ही यह
धर्म मानव को परम स्वाधीनता भी प्रदान करता है. परमात्मा यहाँ किसी शासक के रूप
में न होकर मात्र द्रष्टा है, जिसकी उपस्थिति मात्र से सब कुछ हो रहा है. कोई
व्यक्ति जैसे कर्म करता है उसके अनुसार ही उसे फल मिलता है और मन पर संस्कार के
रूप में उस कर्म की जो छाप पड़ जाती है, वह उसे वैसा ही कर्म भविष्य में करने के
लिए प्रेरणा भी देती है. इसीलिए बचपन से शुभ संस्कारों को देने की बात कही जाती
है. जो अशुभ संस्कार मन पर गहरे हो जाते हैं, उन्हें बदलने के लिए योग साधना से
बढ़कर कोई उपाय नहीं है. यदि कोई आत्मा की अमरता में विश्वास करता है तो उसे इन
संस्कारों को बदल कर अपने जीवन को निर्मल बनाने की पूर्ण स्वतन्त्रता है. धर्म,
अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के द्वारा कोई भी परम अवस्था को प्राप्त कर
सकता है.
Monday, April 1, 2019
सेवा धर्म निभायेगा जो
चुनावों का मौसम है, सभी
दल अपनी अपनी उपलब्धियों को गिना रहे हैं और तरह-तरह के वायदों से मतदाताओं को
लुभाने का प्रयत्न कर रहे हैं. पांच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण करने के बाद यदि कोई
नेता अपने क्षेत्र में पुनः वोट मांगने जाता है तो उसका काम ही यह तय करता है, वह
इस बार जीतेगा या नहीं. समय के अनुसार चलने वाले नेता को सम्मान भी मिलता है और
समर्थन भी, सामन्ती विचारधारा के दिन खत्म हुए, अब जनता का राज है और राजनीति में
उसी को जाना चाहिए जिसके भीतर सेवा करने का भाव हो. अब राजनीति को धर्म के अनुसार
चलना होगा. बदलते हुए समय में सच्चे, कर्मनिष्ठ और देशभक्त नेता ही राजनीति में
सफल हो सकते हैं. कितना विशाल है हमारा देश और कितने भिन्न विचारधारा के लोग यहाँ
निवास करते हैं, सभी को खुश करना एक नेता या पार्टी के लिए सम्भव नहीं है, लेकिन लोकतंत्र
में जितना हो सके सबको साथ लेकर काम करना होता है. भारत जैसे विशाल देश में जनता
भी कितने ही वर्गों में बंटी है, पर लोकतंत्र की कितनी महानता है कि सबके मत की
कीमत एक समान है. यहाँ हरेक नागरिक को वोट देने का अधिकार है और अपनी पसंद की
सरकार चुनने का भी.
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