अगस्त २००४
हमें अपने भीतर उस प्रज्ञा को जगाना है जो मन को धूमिल न
होने दे, जैसे धूल से ढके दर्पण में चित्र स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ता वैसे ही अशुद्ध बुद्धि
होने पर हम व्यक्तियों, घटनाओं तथा वस्तुओं को उनके सही रूप में नहीं देख पाते,
सत्य का भान हमें नहीं होता. सत्य को परखने के लिए हमें उसे कई कोणों से देखना
होगा. हम जो भी हैं अथवा हमारे इर्द-गिर्द का संसार, वातावरण जैसा भी है, उसे हमने
ही बनाया है. हमारे भूतकाल की छाया हमारे वर्तमान पर पड़ रही है, हमारा वर्तमान ही
भविष्य को बनाएगा. समस्त पूर्वाग्रहों को छोड़कर जो बुद्धि निर्णय देती है, जिस पर
भूत की छाया न हो, वह शुद्ध है. मन को सारे संकल्पों-विकल्पों से मुक्त रखते हुए
हमें वर्तमान का हर पल जीना है. ऐसा होते ही हम परम ऊर्जा से भर जाते हैं, हमारे
भीतर सामर्थ्य आता है अंतर्मन को भेदकर भीतर छिपी क्षमताओं को बाहर लाने का. तभी
भीतर ज्ञान के मोती निकलेंगे और जब ज्ञान स्थिर होगा वही प्रेम में बदल जायेगा. प्रेम
जो हमारे व्यवहार द्वारा अन्यों तक जायेगा, स्वतः जैसे झरना बहता है.