Sunday, April 28, 2013

तोरा मन दर्पण कहलाये


  अगस्त २००४ 
हमें अपने भीतर उस प्रज्ञा को जगाना है जो मन को धूमिल न होने दे, जैसे धूल से ढके दर्पण में चित्र स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ता वैसे ही अशुद्ध बुद्धि होने पर हम व्यक्तियों, घटनाओं तथा वस्तुओं को उनके सही रूप में नहीं देख पाते, सत्य का भान हमें नहीं होता. सत्य को परखने के लिए हमें उसे कई कोणों से देखना होगा. हम जो भी हैं अथवा हमारे इर्द-गिर्द का संसार, वातावरण जैसा भी है, उसे हमने ही बनाया है. हमारे भूतकाल की छाया हमारे वर्तमान पर पड़ रही है, हमारा वर्तमान ही भविष्य को बनाएगा. समस्त पूर्वाग्रहों को छोड़कर जो बुद्धि निर्णय देती है, जिस पर भूत की छाया न हो, वह शुद्ध है. मन को सारे संकल्पों-विकल्पों से मुक्त रखते हुए हमें वर्तमान का हर पल जीना है. ऐसा होते ही हम परम ऊर्जा से भर जाते हैं, हमारे भीतर सामर्थ्य आता है अंतर्मन को भेदकर भीतर छिपी क्षमताओं को बाहर लाने का. तभी भीतर ज्ञान के मोती निकलेंगे और जब ज्ञान स्थिर होगा वही प्रेम में बदल जायेगा. प्रेम जो हमारे व्यवहार द्वारा अन्यों तक जायेगा, स्वतः जैसे झरना बहता है.

Friday, April 26, 2013

सुख की आस सदा भरमाये


अगस्त २००४ 
कृष्ण कहते हैं, कामना यदि पूरी न हो तो क्रोध को जन्म देती है, क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति लोप और स्मृति विभ्रम से अशांति, अशांत व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता. कामना यदि पूर्ण हो जाये तो मन पर उसका संस्कार गहरा होता जाता है और बार-बार हम उसकी पूर्ति चाहते हैं. अपने सहज सुख को भुलाकर, जो बचपन में हम कांच-मिट्टी के खिलौनों से ही अथवा तो ऐसे ही पाए हुए थे, हम क्षणिक सुखों के गुलाम बनते जाते हैं. लगता है जैसे हम अपनी आँखें बंद किये बैठे हैं. जो दाता है वह भिक्षु बना हुआ है. सुख की परिभाषा ही यदि गलत होगी तो सच्चा सुख हमें मिलेगा भी कैसे? जो किसी व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति पर निर्भर न हो. जो मुक्त करता हो, ऊर्जा से भर देता हो. जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, ऐसा सुख ही हमें पूर्णता की और ले जाता है.

Thursday, April 25, 2013

साईं नाथ तेरे हजारों हाथ


  मन की व्यग्रता इस बात की द्योतक है कि हमें अभी जगत में रहना नहीं आया, जगत में रहना जब किसी को आ जाता है तो वह परमात्मा के द्वार पर रहने लायक भी हो जाता है. मान-अपमान, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों रूपी चक्की के पाटों में वही पिसने से बच जाता है. व्यर्थ की बातों में फंसकर जब हम स्वयं को उलझा लेते हैं, कल्पनाओं के जाल में फंसकर स्वयं को सुखी-दुखी करते हैं, तब हम यह भूल जाते हैं कि कल्पना का यह महल कब तक रहेगा, इसे तो गिरना ही होगा. प्रामाणिकता यदि हमारे आचरण में नही है तो सुख भी प्रामाणिक नहीं हो सकता. हमें तो उस शांति को पाना है जो हमारी निज की सम्पत्ति है, उस प्रेम को, जो हमारा स्वरूप है. जगत में जो कुछ भी घट रहा है वह  अनंत करवा रहा है, वही हमारा शत्रु बन कर आता है, वही मित्र बनकर, वही हमारे भीतर है, हमें अपने मूल स्रोत तक पहुँचाने के लिए वह निरंतर हम पर दृष्टि रखे है. हम सुरक्षित हाथों में हैं. 

Wednesday, April 24, 2013

एक ही जीवन रूप अनेक


 अगस्त २००४ 
 जीवन का उपवन कभी एक सा नहीं रहता, कभी वसंत तो कभी पतझड का सामना उसे करना ही पड़ता है, लेकिन इस परिवर्तन के पीछे भी जीवन स्वयं तो एक ही है, उस एक को स्थिर मानकर ही हम अस्थिरता का अनुभव करते हैं. मन है तो कभी उसमें संसार झलकता है कभी आत्मा, अब यह मन पर निर्भर करता है कि वह स्वयं को किस के साथ जोड़े. आत्मा से जुड़कर अपनी ऊर्जा को बचा सकता है, सहज रह सकता है, तब संसार में बिना आसक्ति के रहा जा सकता है. 

Tuesday, April 23, 2013

सबसे बड़ा संतोष धन


जुलाई २००४ 
संतजन कहते हैं, जो भी हम करें, सौ प्रतिशत लगकर करें तो हमारा वह कार्य भी सफल होगा और भीतर संतोष भी जगेगा. संतोष से सुख उपजता है जो भीतर के आनंद की ही झलक देता है. आनंद किसी कार्य का मोहताज नहीं बल्कि वह तो कार्यों के रूप में प्रकट होता है, वह सहज होता है जैसे इस जगत में सहज ही दिन-रात घटते हैं. उसके होने का कोई कारण नहीं, वह तो सब कारणों का कारण है. इसलिए सहज संतोष भाव में जब कोई होता है तो यह उसके भीतर से वैसे ही छलकता है जैसे फूल से उसकी सुगंध, झरने से उसका निनाद, तथा आकाश से उसकी नीलिमा. प्रकृति सहज है तभी तक सुंदर है वरना तो विनाश भी ढा सकती है, वैसे ही मानव जब तक सहज है, आनंद का स्रोत है, वरना उसके भीतर ज्वालामुखी भी फट सकते हैं. अपनी असहजता के कारण वह खुद के साथ-साथ औरों को भी पीड़ा देता है. 

Monday, April 22, 2013

समाधि ही देती समाधान


 जुलाई २०१३ 
 चित्त के समाधान के लिए पहला कदम है विनम्रता, उद्दन्डता से चित्त समाधि में प्रविष्ट नहीं हो सकता. अपना ही दृष्टिकोण सही है, यह दुराग्रह रखने वाला समर्पित नहीं हो सकता. चित्त यदि व्याकुल है तो अवश्य अपने मार्ग से भटका है. सुख मिलने पर सुखी और दुःख मिलने पर दुखी तो पशु भी हो लेते हैं, साधक दोनों से परे होने की कला सीखता है., आत्मारामी होता है. आत्मा अव्यय है, अविनाशी है, अप्रमेय है, प्रकृति इसके विपरीत है. समपर्ण के द्वारा ही प्रकृति के पार जाया जा सकता है. एकनिष्ठ चित्त ही समाहित होता है. समाहित चित्त ही समाधि तक पहुंचता है. 

Friday, April 19, 2013

नित नवीन सृष्टि का क्रम यह


जुलाई २००४ 
जीवन सभी प्राणधारियों में है, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु सभी के भीतर चेतना है. जब हमें यह लगता है कि जानने योग्य सब जान लिया तब हम जड़वत हो जाते हैं. हमारे भीतर जब तक सीखने की प्रवृत्ति काम कर रही है, तभी तक हममें चेतना जागती रहती है. जीवन प्रतिपल नया है, जन्म से लेकर आजतक हर पल हमारे लिए नया है, हर दिन एक नया सूर्योदय लेकर आता है, हर सुबह एक नया  संदेश लेकर आती है. हर दिन कुछ नया सिखाने ही आता है. हमारी हर श्वास पहले वाली श्वास से भिन्न होती है. इसी तरह वह ब्रह्म भी जो नूतन ढंग लेकर हरेक से मिलता है, नित नवीन है, कोई उसे पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर सकता, अथवा वह कब का पुराना पड़ गया होता. अनगिनत संतों, महात्माओं व भक्तों को उसका अनुभव हुआ है, पर सभी ने उसे अपने-अपने ढंग से बतलाया है. 

समता का सूत्र



संत कहते हैं कि हम जब तक पांच स्कन्धों को अपना मानते हैं तब तक मुक्त नहीं हो सकते, सर्व प्रथम यदि हम देह को ‘मेरा’ अथवा ‘मैं’ मानते हैं तो कोई न कोई कष्ट उसे होगा और हम विचलित हो जायेंगे. दूसरा है मन, मन के चार भाग हैं, विज्ञान, संज्ञा, अनुभव और प्रतिक्रिया. किसी घटना को जब हम देखते हैं तो वह विज्ञान हुआ उसे पहचानना संज्ञा, वह सुखद है अथवा दुखद इसे जानना अनुभव है, तथा अनुकूल या प्रतिकूल संवेदना जगाना ही प्रतिक्रिया करना हुआ. मन के ये चारों भाग अपना-अपना काम करते हैं, यह उनका स्वभाव है, हमें इस स्वभाव को पलटना है, उसके साथ अपने एकता नहीं दिखानी, अन्यथा ऊपर-ऊपर से लगेगा कि हम सुख-दुःख से ऊपर हो गए, भीतर भेदभाव अब भी है. द्रष्टा होकर जगत को प्रतिक्षण बदलने वाला जानकर हम निरपेक्ष रह सकते हैं. जब भीतर तटस्थ रहना आ जायेगा तब हम बाहर भी समता को धारण कर सकेंगे.  

Thursday, April 18, 2013

कर्मगति अति गहन, हे अर्जुन !


जुलाई २००४ 
जो कर्म वर्तमान में हम करते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं, जो कर्म बीज रूप में हमारे सूक्ष्म शरीर के साथ रहते हैं, वे संचित कर्म कहलाते हैं और जब वे परिपक्व हो जाते हैं व फल देने का कार्य करते हैं, तब उन्हें प्रारब्ध कर्म कहते हैं. साधना के द्वारा जब कोई साधक संचित कर्मों के बीजों को भून देता है तब उनमें फल नहीं लगते, और साधना के रूप में नए शुभ क्रियमाण कर्म करता है, तो नए बीज शुभ ही बो रहा है जो वक्त आने पर शुभ फल ही देगें. भक्त अपने सभी कर्मों को समर्पण करके मुक्त हो जाता है. ज्ञानी जानता है कि भीतर आत्मा व परमात्मा दो सखाओं की भांति विद्यमान हैं, परमात्मा द्रष्टा है, आत्मा भोक्ता है, यदि आत्मा भी द्रष्टा भाव में आ जाये, तो जगत एक मनोहारी सुखद कर्मक्षेत्र बन जायेगा. 

Wednesday, April 17, 2013

अंतर्मुखी सदा सुखी



हमारे जीवन का लक्ष्य सुख ही तो है, सुखी व्यक्ति अपने चारों और सुख ही बांटता है, संतुष्ट व्यक्ति अपने इर्द-गिर्द संतोष का भाव फैलाता है और शांत व्यक्ति शांति. ये सभी हमें अंतर्मुखी होने से प्राप्त होते हैं. ध्यानस्थ व्यक्ति कामनाओं की आहूति देता है, कामनाएं जो अग्नि की तरह हैं, जिनकी पूर्ति होने पर वे और बढ़ती हैं, उन्हें त्याग कर ही शांति का अनुभव होता है. भीतर भी ऊर्जा का प्रवाह हो रहा है, सब कुछ गतिशील है, लेकिन इन सभी गतियों के परे ऐसा कुछ है जो अचल है, जो सदा है. हमारी श्वास के सहारे हम भीतर की यात्रा पर उतरते हैं, प्रकाश का एक बिंदु या धीमी सी गुंजन हमारा मार्ग प्रशस्त करती है, हम एक अनोखे आनंद का अनुभव करते हैं, एक ऐसा आनंद जो बाहर की दुनिया में भी हमें संतुलित करता है. भीतर का बल बाहर भी कम आता है. हम निरपेक्ष होकर जीना सीखते हैं, हमारी स्वयं की मांग शेष नहीं रहती. हम देना चाहते हैं, क्योंकि तब जगत फीका लगता है, वह उस सुख का पासंग भी नहीं दे सकता, जगत तो निरंतर बदलने वाला है, वह नश्वर है, जबकि हम सदा थे, और सदा रहेंगे. 

Monday, April 15, 2013

तू ही रस्ता तू ही मंजिल


जुलाई २००४ 
“रामकथा के तेहि अधिकारी, जिन्ह के सत्संगति अति प्यारी” रामकथा तत्वज्ञान भी कराती है, और भीतर तक शांति का प्रसार भी करती है. ‘संयम और अनुशासन’ का पाठ भी पढाती है, संयम और अनुशासन के दो पदत्राण जिसके पास हों उसे कांटे नहीं चुभते, जगत के रास्तों पर वह निर्भीक होकर चल सकता है. हमारे जीवन को सुखमय बनाने के लिए बाहरी साधनों की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी भीतरी साधनों की. भीतर की यात्रा इतनी मधुर है और इतनी सुखद लेकिन उसके लिए जो उस पर चलना चाहता है. इस पथ के एक ओर सद्गुरु है और दूसरी ओर परमात्मा है, एक राह दिखाता है और दूसरा हाथ पकड़ कर लिए चलता है. इस रास्ते पर ‘संयम और अनुशासन’ के पदत्राण के साथ साथ भक्ति का छत्र भी चाहिए. हमारा लक्ष्य जब स्वयं ब्रह्मांड का नियंता है तो उस तक जाने का मार्ग भी उसी के अनुरूप ही होगा. उसे जानने की इच्छा जब किसी के हृदय में जगती है तो हृदय के कपाट स्वयं खुल जाते हैं, वह स्वयं ही फिर अपना पता बताता है, उसे और कोई नहीं जना सकता. वह जैसा स्वयं है वैसा ही अपने भक्तों को बना देता है.  

Sunday, April 14, 2013

खुद की याद जिसे आ जाये



हमारा जीवन स्वयं के लिए जब आनंददायी हो जायेगा तब ही हमारा होना सार्थक होगा हमारे परिवेश के लिए. हमारा हर पल जब उस परमपिता की स्मृति से पूर्ण होगा, तभी वह आनंदमय होगा. हम अपने प्रतिदिन के कार्यों में इतने उलझ जाते हैं कि अपनी स्मृति ही भुला देते हैं. मिथ्या अहंकार के तल से दुनिया को और स्वयं को देखते हैं. ईश्वरीय चेतना से ओतप्रोत हम स्वयं को उससे अलग मानने की भूल करते हैं तभी संशय की उत्पत्ति होती है, मन के दर्पण पर धूल छा जाती है. पर जब हमें कुछ सीखने की ललक उठती है, तब जगत ही हमारा गुरु बन जाता है. हमारा व्यवहार क्षेत्र ही हमारी कसौटी है. हमारा मन जब आत्मा के आनंद में सराबोर होकर कुछ भी बोलेगा तो वह सहज होगा और अहंकार से बोलेगा तो तो वह दुःख का कारण ही बनेगा. 

Saturday, April 13, 2013

प्रेम मयी आनंद मयी.....


जुलाई २००४ 
कभी-कभी बादल बरसते हैं तो बरसते ही चले जाते हैं, न जाने कितने हजार युगों से बादल बरस रहे हैं, पुनः पुनः जल, धरा से गगन में उठता है, गिरता है. पुनः पुनः वृक्ष पनपते हैं, नष्ट होते हैं. हम भी न जाने इस धरा पर कितनी बार आ चुके हैं. एक बार और आए हैं, और स्वयं का परिचय हमें मिला है, पिछले जन्म में भी हो सकता है किसी ने हमें यह मार्ग बताया हो, पर हमने यह न चुना हो. इस जन्म में हमने परमात्मा को अपने रहबर माना है. वह हमारे हृदय की ग्रंथियों को काट रहे हैं. कोई राग-द्वेष नहीं है, चाह नहीं है, उसके प्रेम ने अंतर को ऐसा भर दिया है कि और कुछ भी भरने की जगह नहीं है. हम आत्मनिष्ठ होकर जीना सीख गए हैं. आत्मा पूर्णकाम है, वह  आनन्दपूर्ण है, शांतिमयी और सुखमयी है, वह है, वह सहज है, झरने की तरह, पंछी की तरह, फूल की तरह और नन्हे बच्चे की तरह, उसे कोई अपेक्षा नहीं, उसके हृदय में उपेक्षा भी नहीं, वह जैसी भी परिस्थिति आये सहज रूप से व्यवहार करती है, वह प्रेमिल है, वह सूर्य की भांति सारे शरीर को प्रकाशित करती है. वह हमें चेतना से भर देती है. अपार ऊर्जा का भंडार है उसके पास. उससे मिलकर ही दर्शन होता है, अनंत का दर्शन.

Wednesday, April 10, 2013

कहत कबीर सुनो भई साधो


जुलाई २००४ 
कबीर कहते हैं, गहरी नदिया, नाव पुरानी, खेवटिया से मिले रहना.....कुछ लेना न देना मगन रहना...
संसार की नदी गहरी है..तन की नाव जर्जर हो रही है..भीतर वाले से मिलकर जो नहीं रहेगा वह तो डूबेगा ही. नित्य से मिले रहना है, अनित्य तो वैसे भी छूटने ही वाला है. असत्य टिकने वाला नहीं  है, सत्य का आश्रय लेने में ही हमारी जीत है, तब हमें किसी के अधीन नहीं रहना होगा, हर क्षण एक स्वतंत्रता का भास होगा. हम तब तक सम्पूर्ण रूप से आनन्दित नहीं रह सकते, जब तक हमारे भीतर तृष्णा की छोटी सी भी चिंगारी जलती रहेगी. जब अहंता, ममता नहीं रहती तब भीतर अखंड शांति आ विराजती है. 

Tuesday, April 9, 2013

सूक्ष्म ही पा सकता सूक्ष्म को


जुलाई २००४ 
हमसे सुबह से शाम तक न जाने कितने अपराध होते रहते हैं, वाणी का अपराध उनमें सबसे ज्यादा होता है, हम स्वभाव वश कटु भाषा का प्रयोग करते हैं, अप्रिय बात भी बोल देते हैं, असत्य तथा बढा-चढ़ा कर भी बोलते हैं. जो जैसा है वैसा का वैसा प्रकट नहीं करते. व्यर्थ ही हम जोर से बोलते हैं, बिना आवश्यकता के बोलते हैं, और अपनी बहुमूल्य ऊर्जा का अपव्यय होने देते हैं. यह सभी तब होता है जब हम खुद की याद भुला देते हैं, हमें यह बोध नहीं रहता कि वास्तव में हम पावन ऊर्जा हैं, जिसकी एक-एक बूंद अनमोल है, अपने शुद्ध स्वरूप में होने पर कोई कभी भी असत्य का आश्रय नहीं ले सकता. मन के स्तर पर होने से हम उसी के धर्म का शिकार हो जाते हैं. मन चंचल है, वह हमें भी अस्थिर कर देता है, संसार को जिस रूप में दिखाता है, बाध्य होकर हम उसी रूप में देखते हैं. साधना में हम इसी मन को यहाँ-वहाँ से, इधर-उधर से, पचासों जगहों से जहाँ-जहाँ यह अटका है, वहाँ-वहाँ से लाकर अपने भीतर लाना सिखाते हैं, जहाँ परमात्मा का वास है, ऐसा मन सौम्यता धारण करता है, ईश्वरीय प्रसाद पाने लगता है. सूक्ष्म को पाकर वह स्थूल से मोह नहीं कर  सकता. सूक्ष्म को पाने की क्षमता यदि एक बार मन विकसित कर ले तो वह एकाकी नहीं रह जाता, वह तत्व सदा उसके साथ रहता है. मन आत्मारामी हो जाता है. मन की धारा संसार से उलट कर  राधा हो जाती है, कृष्ण का आश्रय जिसे सदा ही प्राप्त है.

एक ही सत्ता रूप बदलती


जुलाई २००४ 
हमारे भीतर जो चेतना है, वह परम है, पवित्रतम है, जो हमारे माध्यम से काम कर रही है. यह देह, मन, बुद्धि सब उसी के उपकरण हैं, वह इनके माध्यम से स्वयं को प्रकट कर रही है. जब “मैं हूँ” यह भाव नष्ट हो कर ‘वह है’, ‘तुम हो’ यह भाव प्रमुख होता है तब धीरे-धीरे सब कुछ एक समष्टि में बदल जाता है. सभी कुछ उस एक का ही प्रतिबिम्ब है यह भाव दृढ़ हो जाता है. जब ऐसा हो जाये तब अपना कुछ नहीं रह जाता और अपना सभी कुछ है. तब कुछ भी नहीं करना और सभी कुछ करना है, सारे कृत्य अपने ही लगते हैं और फिर भी कर्ता भाव नहीं रहता, सभी अपने हैं पर ममता भाव नहीं, मैं ही वह हूँ पर अहंता भाव नहीं....और ऐसा तभी होता है जब अनवरत बरसती कृपा के प्रति कोई सचेत होता है. 

Sunday, April 7, 2013

परम स्वतंत्रता है मानव को



  हजारों वर्ष पहले मानव यह जान चुका था कि ईश्वर उसके ही हृदय में निवास करते हैं, वही  सर्वोच्च शक्ति का वाहक है, वही परमात्मा का अंश है, जो परमात्मा का परिचय दे सकता है, वही है  जो अनंत प्रेम बाँट सकता है, वही है जिसके लिए परमात्मा ने इस सुंदर सृष्टि का निर्माण किया है, उसी के पास बुद्धि रूपी अस्त्र है, ज्ञान रूपी अग्नि है. उसमें देवत्व की सारी सम्भावनाएं मौजूद हैं, पर उसको परम स्वतंतत्रा भी है कि वह इन सबका उपयोग ऊपर उठने के लिए करे या नीचे गिरने के लिए. क्योंकि उसमें दानव बनने की भी समस्त सम्भावनाएं हैं, वह स्वयं को दुखी भी बना सकता है और चाहे तो परमपद भी पा सकता है, जहाँ शांति की अजस्र धारा बहती है. 

Friday, April 5, 2013

खो गयी है चाबी कोई


जुलाई २००४ 
हमारी अनुभूतियाँ जितनी सच्ची होंगी, उतना हमारा मन खाली होता जायेगा, हमारा मन जितना खाली होगा उतना प्रेम उसमें समाता जायेगा. हम कटुता से तभी भरते हैं जब भीतर की अनुभूति को छू नहीं पाते, एक पर्दा सेवार का मन की झील पर छा जाता है. हमें सरल होना है, कोई दुराव या छिपाव नहीं क्योंकि हमारे भीतर कोई है जो सब देखता है, सब जानता है, वह हमारे पक्ष में है, सुह्रद है, हितैषी है, वह हमें प्रगति के पथ पर देखना चाहता है, मन की झील जब स्वच्छ होगी पारदर्शी होगी तभी हम भीतर की उस गरिमा को देख पाएंगे. हमारा जीवन तब एक मधुर गीत की तरह विश्व में गूंज उठेगा, उन्मुक्त पंछी की तरह गा उठेगा. जंगल के नीरव एकांत में बहते झरने का संगीत भीतर से सुनाई देगा. हम जो ऊर्जा के अनंत स्रोत हैं, पर स्वयं की कीमत नहीं जानते, परमात्मा तब हमारे माध्यम से स्वयं को प्रकट करेगा. हम जिसके पास एक खजाना है और जन्मों से इस खजाने की चाबी को खोजे बिना ही चले गए हैं, इस बार उस खजाने को पाकर यहीं लुटा देना है. 

Thursday, April 4, 2013

घर खाली देख चला आता


जुलाई २००४ 
ज्ञान और दुःख एक-दूसरे के विरोधी हैं, जहाँ ज्ञान है वहाँ दुःख नहीं टिक सकता और जहाँ दुःख है वहाँ भीतर का अज्ञान ही प्रकट हो रहा है. वास्तविक ज्ञान वही है जो सदा के लिए समस्त दुखों से छुटकारा दिला दे. संत उसी ज्ञान को देना चाहते हैं, वह जगत में रहते हुए भी उससे ऊपर हैं, सुखद-दुःखद परिस्थितियाँ तो आती-जाती रहेंगी, पर दुखी होना अथवा न होना हमारी मानसिक परिपक्वता पर निर्भर करता है. सुख की दौड़ खत्म होते ही दुःख अपने आप मिटता जायेगा. जीवन जैसा मिला है उसे कृतज्ञतापूर्वक स्वीकारना सीखना होगा. हम जीवन को अपनी रूचि के अनुसार चलाना चाहते हैं, तभी दुःख के भागी होते हैं. हर क्षण को वैसा ही स्वीकार करने से मन में द्वंद्व नहीं रहता, मन खाली हो जाता है, खाली मन में ही ईश्वर की महिमा प्रकट होती है.

सहज हुए से सुख आता है



यदि कोई किसी भौतिक वस्तु, परिस्थिति या व्यक्ति से ही सुख प्राप्त करने का प्रयास करेगा तो दुःख का भागी भी उसे होना ही पड़ेगा. सुख के पीछे भागो तो नियम के अनुसार दुःख पीछे-पीछे आता ही है, इसी तरह यदि सुख का केन्द्र ज्ञान है तो आनंद पीछे-पीछे आयेगा. इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले भोग अक्सर रोग के कारण बनते हैं और ज्ञान से प्राप्त होने वाला आनंद योग कराता है. ईश्वर ने हमें बुद्धि प्रदान की है जो ज्ञान की आकांक्षी है, जो भीतर के रस से ही तृप्त हो सकती है, उस रस से, जिसका स्रोत प्रेम है. जीवन में प्रेम नहीं है तो आनंद निज की वस्तु बनकर रह जायेगा, उसका व्यवहारिक रूप प्रेम है. भीतर के आनंद का बाहर प्राकट्य हमारे कर्मों से होगा, अन्यथा बादलों में बिजली की चमक की तरह उसका आना होगा. जो चिर स्थायी है, ऐसी तेल धारवत् शांति जब हृदय में छायी रहे वही आनंद है.

Tuesday, April 2, 2013

मन देखे मन खाली होता


जून २००४ 
चिदाकाश में आत्मा तथा परमात्मा साथ-साथ हैं पर दोनों के बीच मन का पर्दा है, जैसे-जैसे मन खाली होता है, वैसे वैसे वे प्रकट होने लगते हैं. उनकी निकटता का अहसास होता है, जब तक पूर्णता का अनुभव नहीं होता मन बना ही रहता है, पर कृपा सदा हम पर बनी रहती है. पूर्णता मानव के भीतर बीज रूप में विद्यमान रहती है, पर मन के संकल्प-विकल्प उसे प्रस्फुटित होने से रोकते हैं. संत जन अपने विशाल हृदय में अनंत प्रेम, ज्ञान और आनंद समेटे हैं, उनके दर्शन से हमारे भीतर भी गाँठें खुलने लगती हैं, वह हमारे दर्पण बन जाते हैं, हमें मन को देखने की कला आ जाती है.

पूर्णमदः पूर्णमिदं



पांच तत्वों से मिलकर हमारा तन बना है और तीन तत्वों से मन, वे हैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश. जब हम सृजनशील होते हैं, पोषण करते हैं अथवा परिवर्तन करते हैं तो ये तीनों तत्व क्रियाशील होते हैं. सभी के भीतर किसी न किसी अंश में ये तीनों होते हैं, लेकिन जब हमारे कर्म स्वार्थ की पूर्ति के लिए न होकर सहज हों अथवा तो आनंद के फलस्वरूप हों तो वे तीनों से पार चले जाते हैं, यही तीनों सत्व, रज, तम गुण के भी परिचायक हैं, हमें गुणातीत होना है. आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहना तभी सम्भव है. बाहर का सुख मृग मरीचिका के अतिरिक्त कुछ नहीं, भीतर का सुख निरपेक्ष है, अनंत है, अपरिमेय है, इसका आश्रय लेकर जब हम जगत में व्यवहार करते हैं तो वह पूर्ण होता है, प्रामाणिक होता है. पूर्ण की उपासना ही हमें पूर्ण बनाती है.