Tuesday, February 23, 2021

सुख की जिसे न रहे कामना

हमारे कर्म बांधने वाले न हों, इसके लिए आवश्यक है कि हम उनसे न फल की आशा रखें और न ही उनका कोई संस्कार मन पर पड़ने दें। दो ही तरह से कर्म बंधनकारी है यदि वह भविष्य में कोई फल दे या बाध्य  होकर हमें पुन: उस कर्म को करना पड़े। उदाहरण के लिए यदि हमने किसी अखाद्य पदार्थ का सेवन किया तो उसका परिणाम रोग के रूप में मिलेगा तथा उसकी छाप मन पर पड़ जाएगी तथा भविष्य में हम पुन: उसे ग्रहण करने के लिए लालायित होंगे। यदि हमारी आदतें आज दुख का कारण हैं तो हमने ही उन्हें करते समय सुख की कामना की थी और इससे उनका संस्कार गहरा हो गया था। वास्तव में बांधती है सुख की कामना। यदि कोई चीनी का कण कहे, मुझे मीठा खाना है, तो कोई क्या कहेगा ? यदि कोयल कहे, मुझे पंचम राग सीखना है तो ? यदि फूल कहे मुझे खिलना है तो ? जो मिठास है वही तो चीनी है, जो पंचम सुर में गा सकती है वही तो कोयल है। पर हम सुख स्वरूप हैं इसे भुलाकर हमें सुख चाहिए का राग अलापते हैं। आत्मा स्वयं प्रेम स्वरूप है और इसके उसके दो मीठे बोलों की कामना करती रहती है। यदि कोई न दे तो हम अपमानित महसूस करते हैं। यह अपमानित महसूस करना ही कर्म का बंधन है जो हमने किसी से मीठे बोल बोलते समय अपने हृदय पर बांधा था। जबकि हृदय में प्रेम का सागर भरा है, पर उस बंधन के कारण वह गहराई में ही रह जाता है और हम जीवन के उत्सव में शामिल होने से वंचित ही रह जाते हैं। 

 

Sunday, February 14, 2021

मन की ताकत जो पहचाने

 

हमने न जाने कितनी बार यह पढ़ा है और सुना है कि हम जैसा सोचते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। हमारा भाग्य पल-पल हमारी सोच के द्वारा ही लिखा जाता है। अपने विचारों में यदि उच्चता, दृढ़ता और एकाग्रता हो तो हमारा जीवन स्वयं के लिए व औरों के लिए भी सहज, सरल और सुंदर होगा। किन्तु अक्सर हम पाते हैं विचार बिखरे हुए हैं, एक-दूसरे के विरोधी हैं और दृढ़ नहीं रह पाते। इसलिए जीवन भी उलझा हुआ, अस्पष्ट तथा दुरूह प्रतीत होने लगता है। इसका कारण है कि हमने मन की शक्तियों को कभी समझा ही नहीं, शास्त्र कहते हैं मन परमात्मा की तीन शक्तियों से सम्पन्न है, वे हैं इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति। जैसी इच्छा हमने जगायी, उसी के अनुरूप क्रिया जाने-अनजाने होने लगती है। उदाहरण के लिए यदि किसी के भीतर चोरी की इच्छा जगी तो उसके लिए वैसी ही परिस्थतियों का निर्माण हो जाएगा। बाद में वह कहता है कि उसने ऐसा नहीं किया, न जाने कैसे उससे हो गया, क्योंकि उस क्षण वह मन की उस कामना से बाहर था। मन जितना सकारात्मक होगा, जीवन में वैसी ही परिस्थितियाँ प्रकट होंगी, यदि नकार की तरफ झुका होगा तो उन्हीं घटनाओं व व्यक्तियों को जीवन में आकर्षित कर लेगा जो नकारात्मक हैं। वास्तव में हम मन नहीं हैं, आत्मा हैं, किन्तु जब तक यह अनुभव के रूप में नहीं आता, जब तक हम मन के घाट पर ही जीते हैं, पल-पल सचेत रहना होगा। जाने-अनजाने जो विचार भीतर चलते हैं वे ही वस्तु, व्यक्ति और घटना बनकर हमारे सम्मुख आते रहेंगे।

Monday, February 8, 2021

निज संस्कृति का सम्मान करे जो

 आज भारत में कोरोना से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या अन्य देशों की तुलना में काफी कम है और स्वस्थ होने की दर भी अधिक है. काफी हद तक इसका श्रेय जन-जन में बसे आयुर्वेद के ज्ञान को दिया जा सकता है. हम बचपन से ही घरेलू वस्तुओं जैसे अदरक, हल्दी, हींग, तुलसी, त्रिफला, मुलेठी, अजवायन, जीरा, सौंफ आदि का  सामान्य रोगों के लिए उपयोग करते आ रहे हैं. किसी वस्तु की तासीर या प्रकृति गर्म है या ठंडी इसका निर्देश वास्तव में आयुर्वेद में ही दिया गया है.  भारतीय संस्कृति विश्व की पुरातन संस्कृति होने के साथ-साथ अपने भीतर ज्ञान के अथाह सागर को समेटे हुए है. इसके मूल स्रोत और आधार वेद हैं. इन्हीं वेदों का एक उपवेद  आयुर्वेद विश्व का प्राचीनतम चिकित्सा शास्त्र है. आयुर्वेद का उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना है और रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना है. इसमें इलाज से भी ज्यादा महत्व पथ्य-अपथ्य को दिया जाता है. इसके अनुसार पहले रोग उत्पन्न करने वाले कारणों का त्याग करना चाहिए.यह बताता है कि रोग से कैसे बचा जाए और यदि रोग किसी कारण से हो भी जाये तो उसे पूरी तरह से कैसे दूर किया जाये. इस पद्धति व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है जिससे उस पर रोग का आक्रमण ही न हो. अस्वस्थ होने पर रोग के मूल कारण को पहचान कर पहले उस कारण को  दूर किया जाता है, केवल रोग के लक्षणों को दूर करके रोगी को आराम नहीं पहुंचाया जाता. आज जरूरत है कि हम आयुर्वेद से अधिक से अधिक परिचित हों और घर-घर में मिलने वाली इन औषधियों के प्रयोग से स्वयं को सबल बनाएं. 


Wednesday, February 3, 2021

स्व में टिकना सीख गया जो

 हम सबने सुना है ‘पहला सुख निरोगी काया’ अर्थात स्वास्थ्य से बड़ा सुख नहीं. यह भी सही है कि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का वास होता है. यदि शरीर में कोई रोग हो तो मन बार-बार उसी का चिंतन करता है, वह एकाग्र नहीं रहता, ऐसे मन से ध्यान करना सम्भव नहीं और ध्यान के बिना ‘स्व’ में स्थिति नहीं हो सकती. वास्तव में जो ‘स्व’ में  स्थित है वही स्वस्थ है. स्व में स्थित रहने के लिए मन के पार जाना होगा. मन के पार जाने के लिये  मन को शांत रखना होगा अर्थात किसी भी तरह का मानसिक उद्वेग न हो. इसीलिए योग साधना में पहले आसन व प्राणायाम द्वारा तन को सबल बनाया जाता है. नियमित दिनचर्या और उचित आहार-विहार से ही वह सम्भव है. जीवन में जो भी कष्ट आते हैं वे सीख देकर हमें आगे ले जाने लिए होते हैं. सुख और दुःख हमारे कर्मों के फलस्वरूप हमें मिलते हैं, पर सुखी या दुखी होना हम पर निर्भर करता है. सुख को देखकर यदि कृतज्ञता का भाव भीतर जगा और दुःख को देखकर समता को बढ़ाना सीखा तब भी  ‘स्व’ में स्थिति होने लगती है.