हमारे कर्म बांधने वाले न हों, इसके लिए आवश्यक है कि हम उनसे न फल की आशा रखें और न ही उनका कोई संस्कार मन पर पड़ने दें। दो ही तरह से कर्म बंधनकारी है यदि वह भविष्य में कोई फल दे या बाध्य होकर हमें पुन: उस कर्म को करना पड़े। उदाहरण के लिए यदि हमने किसी अखाद्य पदार्थ का सेवन किया तो उसका परिणाम रोग के रूप में मिलेगा तथा उसकी छाप मन पर पड़ जाएगी तथा भविष्य में हम पुन: उसे ग्रहण करने के लिए लालायित होंगे। यदि हमारी आदतें आज दुख का कारण हैं तो हमने ही उन्हें करते समय सुख की कामना की थी और इससे उनका संस्कार गहरा हो गया था। वास्तव में बांधती है सुख की कामना। यदि कोई चीनी का कण कहे, मुझे मीठा खाना है, तो कोई क्या कहेगा ? यदि कोयल कहे, मुझे पंचम राग सीखना है तो ? यदि फूल कहे मुझे खिलना है तो ? जो मिठास है वही तो चीनी है, जो पंचम सुर में गा सकती है वही तो कोयल है। पर हम सुख स्वरूप हैं इसे भुलाकर हमें सुख चाहिए का राग अलापते हैं। आत्मा स्वयं प्रेम स्वरूप है और इसके उसके दो मीठे बोलों की कामना करती रहती है। यदि कोई न दे तो हम अपमानित महसूस करते हैं। यह अपमानित महसूस करना ही कर्म का बंधन है जो हमने किसी से मीठे बोल बोलते समय अपने हृदय पर बांधा था। जबकि हृदय में प्रेम का सागर भरा है, पर उस बंधन के कारण वह गहराई में ही रह जाता है और हम जीवन के उत्सव में शामिल होने से वंचित ही रह जाते हैं।
बहुत सुन्दर और उपयोगी
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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