हम सबने सुना है ‘पहला सुख निरोगी काया’ अर्थात स्वास्थ्य से बड़ा सुख नहीं. यह भी सही है कि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का वास होता है. यदि शरीर में कोई रोग हो तो मन बार-बार उसी का चिंतन करता है, वह एकाग्र नहीं रहता, ऐसे मन से ध्यान करना सम्भव नहीं और ध्यान के बिना ‘स्व’ में स्थिति नहीं हो सकती. वास्तव में जो ‘स्व’ में स्थित है वही स्वस्थ है. स्व में स्थित रहने के लिए मन के पार जाना होगा. मन के पार जाने के लिये मन को शांत रखना होगा अर्थात किसी भी तरह का मानसिक उद्वेग न हो. इसीलिए योग साधना में पहले आसन व प्राणायाम द्वारा तन को सबल बनाया जाता है. नियमित दिनचर्या और उचित आहार-विहार से ही वह सम्भव है. जीवन में जो भी कष्ट आते हैं वे सीख देकर हमें आगे ले जाने लिए होते हैं. सुख और दुःख हमारे कर्मों के फलस्वरूप हमें मिलते हैं, पर सुखी या दुखी होना हम पर निर्भर करता है. सुख को देखकर यदि कृतज्ञता का भाव भीतर जगा और दुःख को देखकर समता को बढ़ाना सीखा तब भी ‘स्व’ में स्थिति होने लगती है.
पर सुखी या दुखी होना हम पर निर्भर करता है. सुख को देखकर यदि कृतज्ञता का भाव भीतर जगा और दुःख को देखकर समता को बढ़ाना सीखा तब भी ‘स्व’ में स्थिति होने लगती है.
ReplyDeleteसुन्दर व प्रेरक रचना।
स्वागत व आभार सधु जी !
Deleteस्वागत व आभार !
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