Wednesday, July 31, 2013

वैराग्य जगाता सच्चा प्रेम

दिसम्बर २०१३ 
हमारा मन ही हमारा शत्रु है और हमारा मन ही हमारा मित्र है, मन स्थूल है भाव सूक्ष्म है. जब तक भाव शुद्धि नहीं होती मन कभी मित्र कभी शत्रु बना रहता है. भाव शुद्धि के लिए ध्यान में गहरे उतरना होगा, हमारी चेतना पवित्र है पर उस पवित्रता का अनुभव हमें ध्यान में ही होता है, जाग्रत अवस्था में प्रतिक्षण संसार के प्रभाव इन्द्रियों के माध्यम से मन पर पड़ते रहते हैं, हम उन्हीं में खोये रहते हैं, ऊपर-ऊपर ही जीते हैं. भाव यदि शुद्ध नहीं है तो विपरीत परिस्थितियां हमें दबोच लेती हैं, मन प्रतिक्रिया करता है, पर जो गहरे एक बार भी उतरा है उसे जगत की क्षण भंगुरता का भान हो चुका है. वह फंसता नहीं, वह जानता है कि होकर भी वह इस जगत का नहीं है और नहीं होकर भी यहाँ से गया ही नहीं, वह सदा मुक्त है. वह भीतर प्रेम से भी परिपूर्ण है और वैराग्य से भी. वह निरंतर उस अखंड के साथ है वह अपने भीतर के प्रकाश को, सत्य को, अमरता को भी देख चुका है तथा अंधकार, असत्य तथा मृत्यु के अभाव का भी उसे अनुभव हो चुका है. साधक को इसलिए अपने मन की भाव दशा के प्रति सजग रहना होता है, मनसा, वाचा, कर्मणा वह तभी सत्य का पालन कर सकता है जब भाव शक्ति शुद्ध रहे, तब वह सदा जगत का कल्याण ही चाहेगा, वह तब जगत में उस फूल की तरह रहेगा जो सहज ही अपनी सुवास बिखराता है.


Tuesday, July 30, 2013

एक बार लग गयी लगन तो

करां सजदा ते सिर न उठावां, के दिल विच रब वसदा
किवें सूरत तो नजरां उठावां, के दिल विच रब दिसदा

जब भी यह सुंदर भजन सुनते हैं तो मन प्राण आलोड़ित हो जाते हैं. ईश्वर हमारे भीतर है, फिर भी हम संदेह का शिकार होते हैं, हमारे पुण्य कर्म जब क्षीण होते हैं, तब मन शंकाओं से घिर जाता है. सत्संग हमें पुनः-पुनः अपनी स्मृति कराता है. प्रमाद नीचे ले जाता है, अज्ञान की निद्रा मोह में डाल देती है, पर कृपा हमें उबार लेती है क्योंकि मन में होने वाली कचोट हमें शांत नहीं बैठने देती. एक बार जो उस रास्ते चल पड़े वह उससे विमुख कब तक रह सकता है. परमात्मा हमारे कोटि-कोटि अपराधों को क्षमा कर देते हैं और पुनः अपनी शरण में ले लेते हैं. अपना भूला हुआ पथ हम फिर से पा लेते हैं.


Sunday, July 28, 2013

भाव युक्त हों कर्म हमारे


हमें भाव सहित क्रिया का विकास करना है, जिस समय जो काम करें उसी में मन रहे. इसके लिए मस्तिष्क को आदेश तब देना होगा जब मन शांत है, तब हमारा अवचेतन मन हमारे सुझाव को पकड़ लेगा, तब चेतन व अवचेतन में कोई विरोध नहीं रहेगा. हमारे कार्यों तथा वाणी में कोई विरोध नहीं रहेगा. भावना के साथ की गयी क्रिया ही हमें मुक्त करती है. एकाग्र होकर खाना ही हमारे भोजन को पचाता है. कभी-कभी हम देखते हैं की सारी क्रिया व्यर्थ चली जाती है, क्योंकि अचेतन में अनेकों धारणाएं, पूर्वाग्रह, विचार तथा स्मृतियों का खजाना है वह यदि चेतन के विरुद्ध हो तो क्रिया फलदायक नहीं होती. दोनों मनों का भेद जब मिट जाये, हम जो सोचें वही करें, तो ही हम साधक कहलाने योग्य हैं.


Saturday, July 27, 2013

जग जाये जब प्रीत पुरानी

नवम्बर २००४ 
ईश्वर से यदि हमें प्रेम है तो यह सबसे सहज कार्य है, यह तो होना ही है, इसमें प्रयास करना पड़े तो हम असहज हो जाते हैं. ईश्वर है और हम हैं, और हममें प्रेम ही प्रेम है. जैसे सूरज है, दिन है, प्रकाश है. हमारा होना उतना ही सहज हो जाये जैसे साँस का आना-जाना तो हमें कोई अभाव नहीं रहता निज स्वभाव में रहते हैं, और प्रेम करना उसी तरह हमारा स्वभाव है जैसे कोयल का गाना और फूलों का खुशबू फैलाना. हमारे भीतर से दिव्य संगीत का फूटना भी उतना ही स्वाभाविक है और बंद आँखों को प्रकाश का दर्शन होना भी. स्वभाव में टिकते ही कुछ करना नहीं होता सब कुछ होने लगता है. कर्ता भाव नहीं रहता तो थकान का नाम भी नहीं रहता. अहंकार ही हमें विषाद ग्रस्त करता है, थकाता है दूसरों से पृथक करता है. अहंकार शून्य होते ही हम निर्भार हो जाते हैं फूल की तरह, हवा की तरह, आकाश की तरह. तब कोई प्रतिवाद नहीं, प्रतिरोध नहीं, आक्षेप नहीं, हम तब हम प्रकृति से अभिन्न हो जाते हैं.


Thursday, July 25, 2013

भीतर जाकर ही वह मिलता

पदार्थ से अपदार्थ की ओर तथा पर से परम की ओर हमें जाना है . परम ही ब्रह्म है, वही शिव है. सबसे बड़ी बाधा भीतर की होती है, हमारे पूर्वाग्रह, मान्यताएं, रुचियाँ तथा अपेक्षाएं, नकारात्मक भावनाएं और हमारा स्वार्थ. हम कुछ भी नहीं हैं जिस क्षण यह भाव दृढ हो जाता है, कृपा का अनुभव तत्क्षण होने लगता है. जब कुछ हैं ही नहीं तो कुछ चाहिए भी नहीं, कोई आग्रह भी नहीं. हम इस विशाल सृष्टि के नियंता का अंश हैं, बूंद सागर से अलग तो नहीं, जब हम कुछ नहीं हैं तो इसका अर्थ हुआ हम वही हैं, जब वही हैं तो सब कुछ हमारा पहले से ही है. केवल हम ही नहीं सारे प्राणियों की यही सच्चाई है, तो हममें भेद कहाँ रहा, भेद गया तो सारे द्वंद्व भी मिट गये और सारा का सारा विषाद छू मंतर हो गया. फिर एकमात्र जो शेष रहा वह वही है, अनंत सुख का स्रोत, ज्ञान का स्रोत. दृश्य से हमें द्रष्टा में लौट आना है, द्रष्टा को देखने वाले बनते ही सहजता का अनुभव होता है. हमारा जीवन जब सहज होता है सारा जगत अपना घर लगता है, सारे प्राणी अपने लगते हैं, मन तब सारे द्वन्द्वों से परे होता है. अपने भीतर जिसे जाना आ गया वह बाहर कहीं भी जा सकता है, वह निर्भय हो जाता है.


Wednesday, July 24, 2013

वसुधैव कुटुम्बकम

नवम्बर २०१३ 
हमारे समाज में बहुत विषमता है, कुछ सोने के चम्मच से खाते हैं, कुछ के पास भोजन ही नहीं है. इसका एक कारण सामुदायिकता की चेतना का अभाव भी है. यह चेतना कैसे व्यापक हो इसका हल वेदांत के पास है. वेदांत के अनुसार ब्रह्म एक है, सभी के भीतर मूल संस्कार एक से हैं पर इसका भान नहीं है. जब हमें अपने भीतर आत्मा का भास होने लगता है तो दृष्टिकोण विशाल हो जाता है, जीवन शैली बदलने लगती है, व्यवहार बदलने लगता है, सारा समाज, सारा देश, सारा विश्व हमारा परिवार बनने लगता है. साधकों के लिए यह अत्यंत जरूरी है कि व्यक्तिवादी मनोवृत्ति को बढ़ावा न मिले, सभी के भीतर उसी चेतना को देखने का अभ्यास हो.

   

Tuesday, July 23, 2013

बन जायें मुरली कान्हा की

नवम्बर २००४ 
अध्यात्म के क्षेत्र में हम निरपेक्ष हैं, किन्तु समाज में रहते हुए हमें कितनों की सहायता अपने जीवन में लेनी पडती है. वहीं हमारी साधना की परीक्षा होती है.. जिसने ईश्वर का मार्ग अपनाया है, उसे अपनी ऊर्जा समाज के लिए निस्वार्थ भाव से लगानी होगी, अन्यथा वह उसका करेगा भी क्या. हमारे सन्त जो स्वयं पूर्णकाम हैं लोगों के जीवन में प्रकाश फ़ैलाने का कार्य करते हैं. साधक से यदि कोई ऐसा काम न हो जिससे किसी को चोट पहुंचे तो उसके कर्म भी शुद्ध होते जायेंगे. ईश्वर उसके माध्यम से स्वयं को प्रकट करेंगे. एक ही चेतना भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हो रही है, हमारे भीतर भी वह विद्यमान है, प्रकट होने की राह देख रही है. हमें उसे मार्ग देना है, मिथ्या अभिमान तथा अज्ञान की पर्त को हटाकर उसे जगाना है. आत्मशक्ति का जागरण ही आध्यात्मिकता है.

Monday, July 22, 2013

तन्द्रा त्याग जागरण मांगें

नवम्बर २००४ 
सामंजस्य की साधना करने के लिए शरीर का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है. शरीर का यदि पूरा ज्ञान हो और शरीर के अंगों पर ध्यान किया जाये तो अपने आप ही सामंजस्य की भावना भीतर आने लगती है. शरीर के विभिन्न अंग मिलजुल कर मस्तिष्क की सहायता से काम करते हैं, उसी प्रकार हम समाज में तथा परिवार में रह सकते हैं, सबसे जरूरी है हमारा अपने साथ सम्बन्ध, हमारे मन का आत्मा के साथ सम्बन्ध, फिर हमारा अपने निकटवर्ती जनों के साथ सम्बन्ध. जब हमारे शरीर की शक्ति का बोध हो जाता है तो प्रमाद, जड़ता तथा आलस्य नहीं रहता, भीतर एक स्फूर्ति का उदय होता है, वह स्फूर्ति हमारे सम्बन्धों में झलक उठती है, तब मन हर क्षण नया-नया सा रहता है, सम्बन्धों में बासीपन नहीं आता, कोई दुराग्रह नहीं रहता, मन तब एक अनोखी स्वतन्त्रता का अनुभव करता है, मन की ऐसी स्थिति कितनी अद्भुत है, कहीं कोई उहापोह नहीं, विरोध नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, बिना किसी प्रतिकार, अपेक्षा के द्रष्टा भाव में जीना आ जाता है.

Sunday, July 21, 2013

शुभ संकल्प जगे हर अंतर

नवम्बर २००४ 
यदि हमें अपने परिवेश के प्रति सामंजस्य बनाये रखना है, अपने आस-पास के वातावरण को प्रेम की महक से भरना है, मन को समता में रखना है तो अपने स्वभाव को परखना होगा, उसे बदलने का संकल्प लेना होगा. संकल्प यदि गहरी श्वास के साथ लिया जाये तो अधिक प्रभावशाली हो जाता है. रात को सोने से पूर्व भी यदि कोई संकल्प लेकर सोयें तो वह अंतर में गुंजित होता रहता है. प्रेम, शांति, प्रसन्नता आदि ऐसे उपहार हैं जो बाटंने से ही मिलते हैं. सद्गुरु के प्रति अपार प्रेम का अनुभव जब भीतर होता है तो मन, प्राण व अंतरतम तृप्त हो जाते हैं.

Saturday, July 20, 2013

ध्यान कमल खिलाएं भीतर

नवम्बर २००४ 
ध्यान करने से पूर्व आवश्यक है कि लक्ष्य का निर्धारण कर लिया जाये, चित्त की शुद्धि के लिए या भक्ति की प्राप्ति के लिए. इससे ध्यान की उर्जा केन्द्रित होगी अन्यथा इधर-उधर बिखर जाएगी. ऊर्जा के सही प्रवाह के लिए रास्ते भी बनाने होंगे अन्यथा बिना नालियों वाले खेत की तरह पानी खेत को ही बर्बाद कर देगा. ध्यान के द्वारा हम अपने मन की गहराइयों में छिपे संस्कारों को बदल सकते हैं. भीतर कोई गाँठ न रहे, हृदय खुलता जाये, पारदर्शी हो जाये, ताकि मनके दर्पण में आत्मा का सूरज चमकने लगे, यही ध्यान से होना है. जीवन से व्यर्थ कब विदा होने लगता है, पता ही नहीं चलता. जो चिर है, शुभ है, सुंदर है वही हमारा अभीष्ट हो जाता है.


Friday, July 19, 2013

मूल का हो सिंचन सदा

नवम्बर २००४ 
इस जगत में हम अपने चारों ओर कर्म की प्रधानता ही देखते हैं. सभी किसी न किसी कर्म में रत हैं, कर्म करते-करते जब निवृत्त होते हैं तो भोग की आकांक्षा होती है, पहले सुख-सुविधा के साधन जुटा कर मानव कर्म से छूटता है तो उन साधनों का उपयोग करता है, पुनः साधन जुटाने के लिये और कर्म.., अर्थ और काम इन दोनों में ही सारा जीवन चला जाता है, धर्म और मोक्ष अनछुए ही रह जाते हैं. जैसे अर्थ के बाद कामना की पूर्ति सहज ही होती है, धर्म के मार्ग पर चलें तो मोक्ष सहज प्राप्त होता है. चित्त को धूमिल करने वाला हर कर्म धर्म के विपरीत है, यदि हमारे मन में धर्म के प्रति आस्था होगी तो विकार नहीं जागेंगे और व्यर्थ के कामों में रूचि भी नहीं होगी. जीवन में ध्यान, प्राणायाम, साधना, भक्ति तथा सेवा को यदि प्रश्रय नहीं दिया तो मोक्ष की अनुभूति असम्भव है, बल्कि इस जन्म के दुखों से बचना भी कठिन है. हमें अपने सम्मुख एक ही उच्च उद्देश्य रखना है, निज स्वभाव में बने रहना, न किसी के दबाव में, न अभाव में न प्रभाव में बल्कि सहज स्वभाव में.


   

Thursday, July 18, 2013

सूक्ष्म अति है वर्तमान

नवम्बर २००४ 
नव मास, नव प्रभात, नव उल्लास तथा नव ज्ञान ! एक विचार खत्म हो गया है, दूसरा अभी आया नहीं है, बीच का वह पल.. वही जानने योग्य है. एक श्वास अभी पूरी हुई है, दूसरी लेने के मध्य में जो सूक्ष्म अन्तराल है, वह नित्य है, सत है, आनन्द का क्षण है. वह यदि हमें हर पल स्मरण रहे तो हम निरंतर ईश्वर के सान्निध्य में रहते हैं, और उन विचारों का भी दिनोंदिन परिष्कार होता चला जाता है जिन्हें हम वर्तमान में रहने के कारण प्रश्रय नहीं देते. हमारे अंदर की अनंत सम्भावनाओं को उजागर करने की दिशा में रखा गया कदम ही तो साधना है. सद्गुरु हमें कितने सरल उपाय बताते हैं, सहज, सरल विश्वासी होकर जीना सिखाते हैं.


ध्यान एक साधना उत्तम

अक्तूबर २००४ 
मृत्यु, नींद, ध्यान और प्रेम  सभी में समवाय सम्बन्ध है, ध्यान में हमें काल का भान नहीं रहता, परिवेश का ध्यान नहीं रहता. हमारा छोटा मन जैसे लुप्त हो जाता है, चेतना विस्तार पा जाती है, वह तो पहले से ही विस्तृत है, पर हमारा क्षुद्र अहंकार उसे उसी प्रकार ढके रहता है जैसे सूर्य को बादल का छोटा सा टुकड़ा. सूर्य तो सदा चमकता रहता है चाहे बादल कितने भी घने हों, उसी तरह हमारी चेतना निरंतर एकरस रहती है चाहे तन, मन में कितने ही तूफान आते-जाते रहें. हमें उसी चेतना में स्थिर रहना है. जीते जी मृत्यु का अनुभव ध्यान, नींद और प्रेम तीनों में होता है, जब हमें अपने होने का तो भान रहता है पर हम कौन हैं, क्या है, कहाँ हैं यह भान नहीं रहता. मृत्यु का क्षण भी ऐसा ही होगा. मृत्यु के बाद भी हम तो होंगे, पर कोई आकार नहीं होगा.


Tuesday, July 16, 2013

भावपूर्ण हो पल पल अपना


संतजन कहते हैं, भाव शून्य क्रिया फलित नहीं होती, हम क्रिया तो करते हैं पर मन कहीं और है. आहार का ध्यान, तत्वों का शरीर में उचित मात्रा में होना पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करता है. जिस व्यक्ति में पृथ्वी तत्व अधिक है, उसमें नकारात्मक भाव बढ़ जाते हैं, अग्नि तत्व अधिक होने से सहन शक्ति कम होने लगती है. हमारे भीतर मन, शरीर तथा चैतन्य आपस में जुड़े हुए हैं और एक का प्रभाव दूसरे पर पड़ता ही है, मन यदि स्वच्छ हो तभी चैतन्य को प्रकट होने का अवसर मिलता है, मन स्वस्थ तभी होगा जब शरीर रोग मुक्त हो, अन्यथा मन उधर ही लगा रहेगा. साधना में एकाग्रता नहीं होगी. भाव साधना के लिए भी मन की उर्वर भूमि चाहिए, कोई चिंता या द्वंद्व यदि मन में है तो भाव नहीं जगते. अतः साधक को मनसा, वाचा, कर्मणा हर क्षण, हर क्षेत्र में सजग रहना होगा.


   

Monday, July 15, 2013

तुझ बिन सूना सारा जीवन

अक्तूबर २००४ 
परमात्मा आकाश की नाईं खाली है और सागर की भांति भरा. उसकी ऊर्जा इस ब्रह्मांड के जर्रे-जर्रे में है, सब कुछ उसी ऊर्जा में ओतप्रोत है. वह आनन्द मय है,  ज्ञान मय और प्रेम मय है. हम भी उसके गुणों को धारण करते हैं, ध्यान में जब हम देह के पार होकर शुद्ध चैतन्य का अनुभव करते हैं, तब उसकी उपस्थिति का अनुभव करते हैं. हमें अपनी शाश्वतता का अनुभव होता है. हम भी उसी की भांति ज्योति स्वरूप हैं. वह नित्य है, सदा एकरस है, बल्कि उसका रस बढ़ता ही जाता है. उससे मिले बिना हमारा जीवन अपूर्ण है. कभी-कभी कुछ ऐसा होता है पल भर को हम देहातीत हो जाते हैं और उसकी झलक हमें मिलती है, उसकी याद बनी रहती है, पर संसार में उलझे रहकर वह स्मृति क्षीण हो जाती है. खुद से दूर हम बेबस की नाईं भीतर तपते हैं, फिर सत्संग से पुरानी स्मृति लौट आती है और हम परमात्मा की निकटता से उत्पन्न शीतलता का अनुभव करते हैं.     

Sunday, July 14, 2013

सृष्टि रंगमंच है अद्भुत

घने अंधकार के बाद ही प्रातः की सुनहरी आभा क्षितिज पर चमकती है, भीतर जब कसक और कचोट हद से ज्यादा बढ़ जाती है, और उथल-पुथल इतनी अधिक हो जाती है की पोर-पोर उसकी पीड़ा से कराह उठता है, आत्मा जब अज्ञान के कुहासे में कहीं खो जाती है. मन पर चोट लगती है और प्राण भी सिहर उठते हैं, तब इन सारे उपद्रवों के बाद ही शांति का अनुभव एक बार पुनः हमारे विश्वास को दृढ करता है. यह सारा ड्रामा क्योंकि हमारा ही किया हुआ होता है तो हमें ही इसका पटाक्षेप करना है. हम जब अपनी अपनी वास्तविकता को भुला बैठते हैं माया के जाल में फंस जाते हैं तब ही अज्ञान अपनी भुजाओं से हमें जकड़ लेता है, हम भी यह लीला ही करते हैं एक नाटक, पर कितना वास्तविक लगता है, मुक्ति की आकांक्षा ही हमें इस बंधन से मुक्त होने को विवश करती है. हम प्रकृति के इस खेल में एक अनाड़ी खिलाड़ी की तरह उतरते हैं, पर सद्गुरु के वचनों की स्मृति हमें दक्ष होने के लिए विवश करती है, हमें सदा प्रसन्न रहने, बालवत् रहने तथा सहज रहने का सुझाव देने वाले सद्गुरु यह पल भर भी नहीं चाहते कि कोई पीड़ा में रहे, वह भी अज्ञान जनित पीड़ा में, लेकिन हमें पाठ सिखाने के लिए प्रकृति ऐसी घटनाओं को होने देती है, तब हम सचेत होते हैं, भीतर के विकारों को देख पाते हैं. अपने कर्मों की प्रकृति को जांचते हैं. हमारे कर्म ही पीड़ा का फल लाते हैं और कर्म ही सुख का. कोई कर्म करते समय यदि हम सहज नहीं रहते तो परिणाम भी ठीक नहीं होगा, प्रकृति यही सिखाती है.     

Saturday, July 13, 2013

नानक दुखिया सब संसार


दुःख मांजता है, हमारे जीवन में यदि दुःख न आये तो हम कभी सचेत ही न हों, हमें जगाने के लिए ही दुःख आते हैं. जीवन एक ही सुर में बहता रहे ऐसा तो सम्भव नहीं. हम जब स्थायित्व चाहते हैं तभी दुःख का अनुभव करते हैं. यदि दुखद घटना को भी प्रकृति का परिवर्तन मानकर चलें तो दुःख हम पर हावी नहीं हो पायेगा. यह जगत वास्तव में दुखरूप तभी तक है जब तक हम इससे बंधे हैं, मैं, मेरा की रस्सियों से खींचे जाते हैं. ध्यान की गहरी अवस्था में जाकर हम देखते हैं की मन का स्वभाव है प्रतिक्रिया करना, यदि सुखद अथवा दुखद घटना होने पर मन प्रतिक्रिया करना छोड़ दे तो हमें उसका अनुभव नहीं होता. मन को समता में रखना ही अध्यात्म है. जैसे बालक को कोई चिंता नहीं होती, वह हर परिस्थिति में आनन्द में होता है, उसका हंसना व रोना पल भर का ही होता है, हम दुःख के पलों को उस समय का जीवन मानकर जियें तो वे हमारे भीतर की शक्ति के सम्मुख छोटे हो जायेंगे. परमात्मा की शक्ति के आगे ये दुःख बौने हैं., और वह अपार शक्ति हममें से हरेक के भीतर छुपी है. जीवन को जैसा वह सम्मुख आये स्वीकार करने से ही हम ज्ञान के सच्चे अधिकारी बन सकते हैं. 

Thursday, July 11, 2013

सत्य की आराधना हो !

जीवन 
अक्तूबर २००४ 
जीवन एक अनमोल उपहार है जो ईश्वर ने हमें प्रदत्त किया है, हमारी देह, मन व बुद्धि एक महान उद्देश्य की  प्राप्ति के लिए हमें मिले हैं. जब तक हम सामान्य में ही उलझे रहते हैं अर्थात बुद्धि का प्रयोग केवल देह को बनाये रखने और मन को खुश रखने में ही करते हैं, अपने जीवन का सही मुल्यांकन नहीं कर  पाते. सुख-दुःख के झूले में झूलते-झूलते ही जीवन समाप्त हो जाता है, पर जैसे ही इन साधनों का उपयोग उस महान सत्य की उपलब्धि में लगा देने की इच्छा मात्र ही करते हैं, भीतर से प्रेरणा मिलती है. गुरु का हमारे जीवन में पदार्पण होता है, प्रकृति हमारी सहायक हो जाती है, मन एक अनोखे आनन्द से भर जाता है. सत्य के प्रति निष्ठा ही हमें शांति से भर देती है. सत्य से प्रेम होना ही सद्गुरु के अनुसार साधना का चरम लक्ष्य है, क्योंकि जब उस एक के प्रति हमारे अंतर में प्रेम भर जाता है तो वही प्रेम सृष्टि के कण-कण में नजर आने लगता है, किसी से कोई विरोध नहीं रह जाता, तब सभी के भीतर उस परम सत्ता के दर्शन होते हैं, वह एक ही अनेक होकर प्रकट हो रहा है ऐसा ज्ञान सत्य प्रतीत होता है. भीतर जाकर ही पता चलता है, हमारा मन ही सुख-दुःख का कारण है, मन ही राग-द्वेष जगाता है तथा कर्म संस्कार एकत्र करता है, साक्षी भाव में रहना आ जाये तो मन अमनी भाव में आने लगता है.

Sunday, July 7, 2013

दुनिया रंग रंगीली माधो...

अक्तूबर २००४  
लोभ सूक्ष्म रूप से हम पर आक्रमण करता है, हम सोचते हैं कि निष्काम कर्म कर रहे हैं, अथवा तो सेवा कार्य कर रहे हैं, पर उसके मूल में लोभ ही होता है, सम्मान का लोभ, सुविधा का लोभ, अपनी नजरों में अच्छा बनने का लोभ. साधक को इसके जाल से बचना होगा. लोभ की हल्की सी रेखा मानस को दूषित कर  देती है. अपने मन का चैन गंवा कर यदि कोई कुछ पा भी ले तो व्यर्थ है, यह जगत एक स्वप्न है, इसकी अनुभूति हो जाने के बाद भी वह हमें भरमा लेता है, एक खिलौना दिखाकर जैसे हम बालक को भ्रमित कर देते हैं, उसी तरह. बाहर का सम्मान, लाभ हमारे भीतर के लोभ का ही मूर्त रूप है, वास्तव में बाहर जो भी हमारे साथ साथ घटता है, भीतर का प्रतिफलन ही है. जिस कार्य को किये बिना, जिस वाक्य को सोचे बिना, जिस जिस बात को बोले बिना हमारा काम चलता हो उसे न करना, न सोचना, न बोलना ही अच्छा है. अपने विवेक का आश्रय लेकर हर घटना से कुछ न कुछ सीखते हुए आगे बढ़ना है, ताकि अपना लक्ष्य और निकट आ जाये. वह जो निकट से भी निकटतम है, वही कभी दूर हो जाता है.

Thursday, July 4, 2013

गीत जागरण के गाने हैं

अक्तूबर २००४ 
इस जगत में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियों का सामना हमें करना पड़ जाता है, जिसकी कभी कल्पना भी हमने नहीं की होती, जीवन में कभी-कभी अप्रत्याशित भी घट जाता है, हम बेखबर से राह पर चले जा रहे हैं कि अचानक एक गहरी खाई सम्मुख आ जाती है. यह बेखबरी, यह बेहोशी ही साधना की सबसे बड़ी शत्रु है. एक साधक को पल-पल सचेत रहना है, आने वाले दुखों को भी जो टाल दे वही साधना है. वचन, कर्म तथा विचारों के प्रति निरंतर सजग रहकर ही साधक सदा किसी भी परिस्थिति का सामना समता से कर सकता है, वरना संसार कब उसे घेर लेता है, तृष्णा कब उसे लील जाती है, पता ही नहीं चलता. असावधानी वश कोई ऐसा वचन मुख से निकल जाता है जिस पर बाद में सिवा पछताने के कुछ हाथ नहीं लगता. सूक्ष्म अहंकार, लोभ, तथा इच्छाएं हम पर तभी आक्रमण करती हैं जब हम असावधान होकर जीते हैं. मुक्ति के गीत गाता हमारा मन तब स्वयं को पिंजड़े में बंद पंछी की तरह फड़फड़ाता नजर आता है, पानी बिना मछली की भांति छटपटाता नजर आता है. बंधन उसे पसंद नहीं, जो एक बार मुक्ति का स्वाद चख चुका हो बंधन उसे कैसे भायेगा. जिसने खुले आकाश की उड़न भरी हो वह बंधन में आंसू ही बहा सकता है. मुक्त मन ही भक्ति का अधिकारी है और मुक्त मन ही कृपा का भी अधिकारी है. जब जब हम अचेत होते हैं तब-तब ही बंधन में पड़ जाते हैं, हम भुलावे में न रहें यही प्रार्थना हमें हर क्षण करनी है.  


एक झलक जो पा जाये

अनंत-अनंत सुखों की राशि परमात्मा हमें सहज ही प्राप्त है, पर हम भीतर की ओर मुड़ना नहीं जानते. हमारी दृष्टि जब अन्तर्मुखी होती है, तब परमात्मा अपनी विभिन्न शक्तियों के रूप में प्रकट होने लगता है, क्षण भर को जगत का लोप हो जाता है, शब्द तब साक्षात् सरस्वती के रूप में भीतर प्रकट होते हैं. ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ऐसे ही मन्त्रों का दर्शन किया था, आज भी अनेक सन्त-महात्मा तथा सद्गुरु उस अनंत परमात्मा की झलक अपने भीतर पा लेते हैं, फिर उस आनन्द को बाहर बिखेरते हैं. उस आनन्द में कैसी मोहिनी है कि साधक भी उसकी ओर खिंचे चले जाते हैं, ऐसा लगता है जैसे भीतर कुछ घट रहा हो, कोई सोता जैसे फूट रहा है, एक अनोखी शांति भीतर छा रही है, जैसे पहले कभी नहीं छाई. संसार की किसी भी वस्तु में ऐसी शक्ति नहीं जो ऐसी अद्भुत शांति को भीतर भर दे, परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति ही ऐसा कर सकती है. मन तब भीतर की ओर मुड़ना चाहता है, बार-बार उस स्वाद को लेना चाहता है, पर मन की ही दीवार उसमें बाधा बन जाती है, तब पीड़ा का अनुभव होता है, पीड़ा भी ऐसी कि दिल चीर कर रख दे, पीड़ित मन जब अपने ही आंसुओं से धुलता है तो पल भर के लिए दीवार ढह जाती है और झलक मिलती है, वह कह उठता है, काश ! तू सदा हमारी स्मृति में रहे.

Wednesday, July 3, 2013

गोपी मनहर सुंदर हरिओम

अक्तूबर २००४ 
गोपियों से हमें बहुत कुछ सीखना है, वे विशाल हृदय को रखने वाली हैं, उनके विरह की अग्नि में भीतर के विकार जल सकते हैं. उल्लास से गहन शांति की ओर उनकी प्रेम यात्रा बढ़ती ही जाती है. जब कोई प्रेम में होता है तो भीतर पूर्णता का अहसास रहता है, तब कोई अभाव नहीं सताता. अभाव तभी खलते हैं जब हम भीतर खाली हो जाते है प्रेम व ज्ञान से. जब लोभ, दम्भ, असत्य हमारी आँखों पर पर्दा डाल देते हैं, और यह भी ईश्वर की कृपा ही है, हमें चेताने के लिए वे कोई न कोई व्यवस्था कर देते हैं कि हम उसे पुकार उठते हैं, हमारे पास एकमात्र पूंजी है आत्मा की शक्ति, उसे अनुभव करने के लिए मन को सुपात्र बनाना होगा.


Monday, July 1, 2013

तू अनंत.. अपार.. असीम....

अक्तूबर २००४ 
हमें मानव योनि मिली है यह प्रभु की कृपा है. हमारे जीवन का लक्ष्य मानव देह पाकर स्वयं ही निर्धारित हो जाता है, वह है अनंत का अनुभव. हमारे भीतर आत्मा का सूरज जगमगा रहा है पर उसका प्रकाश हमारे कर्मों के जाल से आच्छादित है. वह प्रकट होना चाहता है, पर प्रारब्ध कर्म, संचित कर्म तथा क्रियमाण कर्मों की लम्बी श्रंखला है जो उसे ढके हुए है, यदि हम नियमित ध्यान करें तो क्रियमाण कर्म घटते चले जायेंगे, सद्गुरु या परमात्मा की शरण में जाते ही वह हमारे संचित कर्मों को काट देते हैं. रह गये प्रारब्ध कर्म, उनका फल तो हमें भोगना ही पड़ेगा पर जीने की कला यदि आती हो तो प्रारब्ध कर्म हमें बांध नहीं सकते. आते-जाते सुखों-दुखों को देखते हुए हम मस्त रहते हैं. हम साक्षी भाव में टिकने लगते हैं तो अनंत स्वयं को छुपा नहीं सकता. हमारे जीवन का उद्देश्य यदि हर पल सामने रहेगा तो एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जायेगा, सारा उद्यम उस एक की प्राप्ति के लिए होगा तो शेष सब अपने आप व्यवस्थित होता चला जायेगा, आनन्द, शांति व प्रेम के फूल खिलने लगेंगे. अनंत अपने पूरे वैभव के साथ हमारे ही भीतर है, और वह प्रकट होना चाहता है, वहाँ कोई विरोध नहीं, कोई द्वैत नहीं, कोई अभाव नहीं.

करते हो तुम कन्हैया ...

अक्तूबर २००४ 
एक साधक को अपने मन में उठने वाली वृत्तियों का भी परिष्कार करना है, क्योंकि मन में वृत्तियाँ तो निरंतर समुद्र की लहरों की तरह उठती रहती हैं, वे अशुभ न हों, शुभ हों, धीरे-धीरे उन शुभ वृत्तियों को भी कम करते जाना होगा, तब मन शुद्ध तत्व में स्थित रहेगा, वर्तमान में रहेगा. भूत की स्मृतियाँ और भावी की कल्पनाएँ हमें ‘अपने’ होने से दूर रखती हैं, स्वयं में कोई वृत्ति नहीं है, यदि है भी तो वह हमारे द्वारा लायी नहीं गयी है, यदि आ भी गयी है तो हम साक्षी मात्र हैं. अनायास ही हम उसके कर्ता नहीं हो गये हैं, कर्ता बनने पर भोक्ता तो बनना ही पड़ेगा. हम अपने आत्मभाव में स्थित रहकर ही प्रज्ञा, बुद्धि व क्षमता का पूर्ण उपयोग कर सकते हैं, सामान्य बुद्धि से यदि हम जगत का निर्णय करेंगे तो दुविधा हमें घेर लेगी. जगत से व्यवहार करते समय यदि हम यह याद रखें कि वास्तव में ‘हम कौन हैं’? तो हम किसी भी परिस्थिति से अछूते निकल जायेंगे.