दिसम्बर २०१३
हमारा मन ही हमारा शत्रु है और हमारा मन ही हमारा मित्र
है, मन स्थूल है भाव सूक्ष्म है. जब तक भाव शुद्धि नहीं होती मन कभी मित्र कभी
शत्रु बना रहता है. भाव शुद्धि के लिए ध्यान में गहरे उतरना होगा, हमारी चेतना
पवित्र है पर उस पवित्रता का अनुभव हमें ध्यान में ही होता है, जाग्रत अवस्था में
प्रतिक्षण संसार के प्रभाव इन्द्रियों के माध्यम से मन पर पड़ते रहते हैं, हम
उन्हीं में खोये रहते हैं, ऊपर-ऊपर ही जीते हैं. भाव यदि शुद्ध नहीं है तो विपरीत
परिस्थितियां हमें दबोच लेती हैं, मन प्रतिक्रिया करता है, पर जो गहरे एक बार भी
उतरा है उसे जगत की क्षण भंगुरता का भान हो चुका है. वह फंसता नहीं, वह जानता है
कि होकर भी वह इस जगत का नहीं है और नहीं होकर भी यहाँ से गया ही नहीं, वह सदा
मुक्त है. वह भीतर प्रेम से भी परिपूर्ण है और वैराग्य से भी. वह निरंतर उस अखंड
के साथ है वह अपने भीतर के प्रकाश को, सत्य को, अमरता को भी देख चुका है तथा
अंधकार, असत्य तथा मृत्यु के अभाव का भी उसे अनुभव हो चुका है. साधक को इसलिए अपने
मन की भाव दशा के प्रति सजग रहना होता है, मनसा, वाचा, कर्मणा वह तभी सत्य का पालन
कर सकता है जब भाव शक्ति शुद्ध रहे, तब वह सदा जगत का कल्याण ही चाहेगा, वह तब जगत
में उस फूल की तरह रहेगा जो सहज ही अपनी सुवास बिखराता है.