अक्तूबर २००४
एक साधक को अपने मन में उठने वाली वृत्तियों का भी परिष्कार
करना है, क्योंकि मन में वृत्तियाँ तो निरंतर समुद्र की लहरों की तरह उठती रहती
हैं, वे अशुभ न हों, शुभ हों, धीरे-धीरे उन शुभ वृत्तियों को भी कम करते जाना
होगा, तब मन शुद्ध तत्व में स्थित रहेगा, वर्तमान में रहेगा. भूत की स्मृतियाँ और
भावी की कल्पनाएँ हमें ‘अपने’ होने से दूर रखती हैं, स्वयं में कोई वृत्ति नहीं
है, यदि है भी तो वह हमारे द्वारा लायी नहीं गयी है, यदि आ भी गयी है तो हम साक्षी
मात्र हैं. अनायास ही हम उसके कर्ता नहीं हो गये हैं, कर्ता बनने पर भोक्ता तो
बनना ही पड़ेगा. हम अपने आत्मभाव में स्थित रहकर ही प्रज्ञा, बुद्धि व क्षमता का
पूर्ण उपयोग कर सकते हैं, सामान्य बुद्धि से यदि हम जगत का निर्णय करेंगे तो
दुविधा हमें घेर लेगी. जगत से व्यवहार करते समय यदि हम यह याद रखें कि वास्तव में ‘हम
कौन हैं’? तो हम किसी भी परिस्थिति से अछूते निकल जायेंगे.
सुंदर एवं सार्थक बात ...!!
ReplyDeleteशुभकामनायें अनीता जी ।
ReplyDeleteसुन्दर सात्विक कल्याणकारी महा वाक्य लिखें हैं आपने .ॐ शान्ति .याद रहे मैं आत्मा हूँ शांत स्वरूप ,आनंद स्वरूप .देह से अलग ,निरभिमानी ....
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार८ /१ /१३ को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है।
ReplyDeleteजगत से व्यवहार करते समय यदि हम यह याद रखें कि वास्तव में ‘हम कौन हैं’? तो हम किसी भी परिस्थिति से अछूते निकल जायेंगे.....
ReplyDeleteअनुपमा जी, राजेश जी, राहुल जी व वीरू भाई, आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeletesarthak abhivaykti....
ReplyDeleteसुंदर एवं सार्थक..
ReplyDeleteसार्थक
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