नवम्बर २००४
इस जगत में हम अपने चारों ओर कर्म की प्रधानता ही देखते
हैं. सभी किसी न किसी कर्म में रत हैं, कर्म करते-करते जब निवृत्त होते हैं तो भोग
की आकांक्षा होती है, पहले सुख-सुविधा के साधन जुटा कर मानव कर्म से छूटता है तो
उन साधनों का उपयोग करता है, पुनः साधन जुटाने के लिये और कर्म.., अर्थ और काम इन
दोनों में ही सारा जीवन चला जाता है, धर्म और मोक्ष अनछुए ही रह जाते हैं. जैसे
अर्थ के बाद कामना की पूर्ति सहज ही होती है, धर्म के मार्ग पर चलें तो मोक्ष सहज
प्राप्त होता है. चित्त को धूमिल करने वाला हर कर्म धर्म के विपरीत है, यदि हमारे
मन में धर्म के प्रति आस्था होगी तो विकार नहीं जागेंगे और व्यर्थ के कामों में
रूचि भी नहीं होगी. जीवन में ध्यान, प्राणायाम, साधना, भक्ति तथा सेवा को यदि
प्रश्रय नहीं दिया तो मोक्ष की अनुभूति असम्भव है, बल्कि इस जन्म के दुखों से बचना
भी कठिन है. हमें अपने सम्मुख एक ही उच्च उद्देश्य रखना है, निज स्वभाव में बने रहना,
न किसी के दबाव में, न अभाव में न प्रभाव में बल्कि सहज स्वभाव में.
हमें अपने सम्मुख एक ही उच्च उद्देश्य रखना है, निज स्वभाव में बने रहना, न किसी के दबाव में, न अभाव में न प्रभाव में बल्कि सहज स्वभाव में......
ReplyDeleteकितनी सहज बात... कितना सहज ज्ञान ................
नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (21 -07-2013) के चर्चा मंच -1313 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete