दुःख मांजता है, हमारे जीवन में यदि दुःख न आये तो हम कभी
सचेत ही न हों, हमें जगाने के लिए ही दुःख आते हैं. जीवन एक ही सुर में बहता रहे
ऐसा तो सम्भव नहीं. हम जब स्थायित्व चाहते हैं तभी दुःख का अनुभव करते हैं. यदि
दुखद घटना को भी प्रकृति का परिवर्तन मानकर चलें तो दुःख हम पर हावी नहीं हो
पायेगा. यह जगत वास्तव में दुखरूप तभी तक है जब तक हम इससे बंधे हैं, मैं, मेरा की
रस्सियों से खींचे जाते हैं. ध्यान की गहरी अवस्था में जाकर हम देखते हैं की मन का
स्वभाव है प्रतिक्रिया करना, यदि सुखद अथवा दुखद घटना होने पर मन प्रतिक्रिया करना
छोड़ दे तो हमें उसका अनुभव नहीं होता. मन को समता में रखना ही अध्यात्म है. जैसे बालक
को कोई चिंता नहीं होती, वह हर परिस्थिति में आनन्द में होता है, उसका हंसना व
रोना पल भर का ही होता है, हम दुःख के पलों को उस समय का जीवन मानकर जियें तो वे
हमारे भीतर की शक्ति के सम्मुख छोटे हो जायेंगे. परमात्मा की शक्ति के आगे ये दुःख
बौने हैं., और वह अपार शक्ति हममें से हरेक के भीतर छुपी है. जीवन को जैसा वह
सम्मुख आये स्वीकार करने से ही हम ज्ञान के सच्चे अधिकारी बन सकते हैं.
बिल्कुल सच...बहुत सारगर्भित प्रस्तुति...
ReplyDeleteसही कहा..दुख ही है जिससे हम बहुत कुछ सीखकर संतुलित ढ़ंग से आगे बढ़ पाते हैं...
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।।।
सच, सुंदर सारगर्भित प्रस्तुति ,,,
ReplyDeleteRECENT POST : अपनी पहचान
जीवन को जैसा वह सम्मुख आये स्वीकार करने से ही हम ज्ञान के सच्चे अधिकारी बन सकते हैं
ReplyDeleteसौ टके की एक बात
परमात्मा की शक्ति के आगे ये दुःख बौने हैं., और वह अपार शक्ति हममें से हरेक के भीतर छुपी है.
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ReplyDeleteदुःख कैसा ?दुःख से तो मेरा पुराना खाता चुकता हो रहा है अकाउंट क्लियर हो रहा है .अब सुख ही सुख रहेगा .दुःख कैसा मैं आत्मा सुख स्वरूप हूँ सुख के सागर परमात्मा की संतान हूँ .दुःख आए तो यही चिंतन रहे .सब कुछ ड्रामा के अनुसार हो रहा है .ॐ शान्ति .
बढ़िया पोस्ट निज स्वरूप की याद दिलाती हुई .ड्रामे का आवाहन करती हुई .सुख दुःख सब बना बनाया हुआ ड्रामा है .कर्मों का खाता परछाइयां हैं संग संग चले जीवन के .
कैलाश जी, धीरेन्द्र जी, रमाकांत जी, राहुल जी व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !
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