हमें भाव सहित क्रिया का विकास करना है, जिस समय जो काम
करें उसी में मन रहे. इसके लिए मस्तिष्क को आदेश तब देना होगा जब मन शांत है, तब
हमारा अवचेतन मन हमारे सुझाव को पकड़ लेगा, तब चेतन व अवचेतन में कोई विरोध नहीं
रहेगा. हमारे कार्यों तथा वाणी में कोई विरोध नहीं रहेगा. भावना के साथ की गयी
क्रिया ही हमें मुक्त करती है. एकाग्र होकर खाना ही हमारे भोजन को पचाता है.
कभी-कभी हम देखते हैं की सारी क्रिया व्यर्थ चली जाती है, क्योंकि अचेतन में
अनेकों धारणाएं, पूर्वाग्रह, विचार तथा स्मृतियों का खजाना है वह यदि चेतन के
विरुद्ध हो तो क्रिया फलदायक नहीं होती. दोनों मनों का भेद जब मिट जाये, हम जो
सोचें वही करें, तो ही हम साधक कहलाने योग्य हैं.
बिल्कुल सही
ReplyDeleteबढिया
सही है।
ReplyDeleteबहुत खूब, सुंदर प्रेरक अभिव्यक्ति,,,
ReplyDeleteRECENT POST: तेरी याद आ गई ...
दोनों मनों का भेद जब मिट जाये, हम जो सोचें वही करें, तो ही हम साधक कहलाने योग्य हैं...
ReplyDeleteexactly
बहुत सुन्दर !अवचेतन के पास बुद्धि नहीं है वह चेतन मन के विचार को ही आदेश मानता है इसलिए भाव पूर्ण कर्म करो।
ReplyDeleteसार्थक लेख आभार।।
ReplyDeleteनये लेख : ब्लॉग से कमाई का एक बढ़िया साधन : AdsOpedia
ग्राहम बेल की आवाज़ और कुदरत के कानून से इंसाफ।
महेंद्र जी, देवेन्द्र जी, वीरू भाई, राहुल जी, हर्षवर्धन जी, धीरेंद्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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