अक्तूबर २००४
लोभ सूक्ष्म रूप से हम पर आक्रमण करता है, हम सोचते हैं कि निष्काम कर्म कर रहे हैं, अथवा तो सेवा कार्य कर रहे हैं, पर उसके मूल में लोभ ही होता है, सम्मान का लोभ, सुविधा का लोभ, अपनी नजरों में अच्छा बनने का लोभ. साधक को इसके जाल से बचना होगा. लोभ की हल्की सी रेखा मानस को दूषित कर देती है. अपने मन का चैन गंवा कर यदि कोई कुछ पा भी ले तो व्यर्थ है, यह जगत एक स्वप्न है, इसकी अनुभूति हो जाने के बाद भी वह हमें भरमा लेता है, एक खिलौना दिखाकर जैसे हम बालक को भ्रमित कर देते हैं, उसी तरह. बाहर का सम्मान, लाभ हमारे भीतर के लोभ का ही मूर्त रूप है, वास्तव में बाहर जो भी हमारे साथ साथ घटता है, भीतर का प्रतिफलन ही है. जिस कार्य को किये बिना, जिस वाक्य को सोचे बिना, जिस जिस बात को बोले बिना हमारा काम चलता हो उसे न करना, न सोचना, न बोलना ही अच्छा है. अपने विवेक का आश्रय लेकर हर घटना से कुछ न कुछ सीखते हुए आगे बढ़ना है, ताकि अपना लक्ष्य और निकट आ जाये. वह जो निकट से भी निकटतम है, वही कभी दूर हो जाता है.
बहुत सुंदर सीख देती प्रस्तुति ....
ReplyDeleteRECENT POST: गुजारिश,
जिस कार्य को किये बिना, जिस वाक्य को सोचे बिना, जिस जिस बात को बोले बिना हमारा काम चलता हो उसे न करना, न सोचना, न बोलना ही अच्छा है....
ReplyDeleteसार्थक संदेश देती सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteबहुत बढिया
राहुल जी, महेंद्र जी व धीरेन्द्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !
Deleteआपका कहना सही है पर मन इन सांसारिक बातों से परे रह पाए तब न ...
ReplyDeleteसुविचार है ...
दिगम्बर जी, मन को यदि भीतर के रस का पता चल जाये तो अपने आप ही सब होने लगता है..
Deleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ८ /७ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।
ReplyDeleteराजेश जी, आभार!
Deleteबहुत काम की बातें बताई आपने. संयम से बडी कोई चीज नहीं. लिखते रहिये
ReplyDeleteसार्थक सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteमोहिन्दर जी व रमाकांत जी, स्वागत व आभार !
Deleteबड़ी गहरी व महीन बात बड़े ही सरल शब्दों में बयाँ हो गयी है।
ReplyDeleteपर क्या लोभ और लालच एक ही शब्द के पर्याय है ?
rohitasghorela@gmail.com
रोहितास जी, लोभ और लालच दोनों का अर्थ एक ही है.
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ReplyDeleteजिस कार्य को किये बिना, जिस वाक्य को सोचे बिना, जिस जिस बात को बोले बिना हमारा काम चलता हो उसे न करना, न सोचना, न बोलना ही अच्छा है. अपने विवेक का आश्रय लेकर हर घटना से कुछ न कुछ सीखते हुए आगे बढ़ना है, ताकि अपना लक्ष्य और निकट आ जाये. वह जो निकट से भी निकटतम है, वही कभी दूर हो जाता है.
सुन्दर
सुन्दर से भी अति सुन्दर अनुकरणीय अंश है यह .
ॐ शान्ति ॐ शान्ति
आभार वीरू भाई
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