संतजन कहते हैं, भाव शून्य क्रिया फलित नहीं होती, हम
क्रिया तो करते हैं पर मन कहीं और है. आहार का ध्यान, तत्वों का शरीर में उचित
मात्रा में होना पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करता है. जिस व्यक्ति में पृथ्वी तत्व
अधिक है, उसमें नकारात्मक भाव बढ़ जाते हैं, अग्नि तत्व अधिक होने से सहन शक्ति कम
होने लगती है. हमारे भीतर मन, शरीर तथा चैतन्य आपस में जुड़े हुए हैं और एक का
प्रभाव दूसरे पर पड़ता ही है, मन यदि स्वच्छ हो तभी चैतन्य को प्रकट होने का अवसर
मिलता है, मन स्वस्थ तभी होगा जब शरीर रोग मुक्त हो, अन्यथा मन उधर ही लगा रहेगा.
साधना में एकाग्रता नहीं होगी. भाव साधना के लिए भी मन की उर्वर भूमि चाहिए, कोई
चिंता या द्वंद्व यदि मन में है तो भाव नहीं जगते. अतः साधक को मनसा, वाचा, कर्मणा
हर क्षण, हर क्षेत्र में सजग रहना होगा.
बहुत सार्थक बात कही ....!!आभार अनीता जी .....!!
ReplyDeleteअच्छी और सच्ची बात
ReplyDeleteबहुत सुंदर
बहुत अच्छी बात..
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन,,,
ReplyDeleteRECENT POST : अभी भी आशा है,
बहुत सुंदर
ReplyDeleteअनुपमा जी, महेंद्र जी, देवेन्द्र जी, धीरेन्द्र जी व दर्शन जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteहमारे भीतर मन, शरीर तथा चैतन्य आपस में जुड़े हुए हैं और एक का प्रभाव दूसरे पर पड़ता ही है, मन यदि स्वच्छ हो तभी चैतन्य को प्रकट होने का अवसर मिलता है....
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