घने अंधकार के बाद ही प्रातः की सुनहरी आभा क्षितिज पर
चमकती है, भीतर जब कसक और कचोट हद से ज्यादा
बढ़ जाती है, और उथल-पुथल इतनी अधिक हो जाती है की पोर-पोर उसकी पीड़ा से कराह उठता
है, आत्मा जब अज्ञान के कुहासे में कहीं खो जाती है. मन पर चोट लगती है और प्राण
भी सिहर उठते हैं, तब इन सारे उपद्रवों के बाद ही शांति का अनुभव एक बार पुनः
हमारे विश्वास को दृढ करता है. यह सारा ड्रामा क्योंकि हमारा ही किया हुआ होता है
तो हमें ही इसका पटाक्षेप करना है. हम जब अपनी अपनी वास्तविकता को भुला बैठते हैं
माया के जाल में फंस जाते हैं तब ही अज्ञान अपनी भुजाओं से हमें जकड़ लेता है, हम
भी यह लीला ही करते हैं एक नाटक, पर कितना वास्तविक लगता है, मुक्ति की आकांक्षा
ही हमें इस बंधन से मुक्त होने को विवश करती है. हम प्रकृति के इस खेल में एक
अनाड़ी खिलाड़ी की तरह उतरते हैं, पर सद्गुरु के वचनों की स्मृति हमें दक्ष होने के
लिए विवश करती है, हमें सदा प्रसन्न रहने, बालवत् रहने तथा सहज रहने का सुझाव देने
वाले सद्गुरु यह पल भर भी नहीं चाहते कि कोई पीड़ा में रहे, वह भी अज्ञान जनित पीड़ा
में, लेकिन हमें पाठ सिखाने के लिए प्रकृति ऐसी घटनाओं को होने देती है, तब हम
सचेत होते हैं, भीतर के विकारों को देख पाते हैं. अपने कर्मों की प्रकृति को
जांचते हैं. हमारे कर्म ही पीड़ा का फल लाते हैं और कर्म ही सुख का. कोई कर्म करते
समय यदि हम सहज नहीं रहते तो परिणाम भी ठीक नहीं होगा, प्रकृति यही सिखाती है.
सब को इस रंगमंच पर अपना अपना रोल निभाना है ! और जितना हलके हो निभाया जाये उतना बढ़िया !!
ReplyDeleteगहरी सोच की रचना !!
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तेरी ज़रूरत है !!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार१६ /७ /१३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है
ReplyDeleteराजेश जी, बहुत बहुत आभार!
Deleteहमें पाठ सिखाने के लिए प्रकृति ऐसी घटनाओं को होने देती है, तब हम सचेत होते हैं,
ReplyDeleteRECENT POST : अपनी पहचान
बहुत सुन्दर विवेचन .कर्म प्रधान सृष्टि है .कर्तम सो भोगतम।मेरे कर्म ही मेरा भाग्य लिखते हैं .
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी व वीरू भाई, स्वागत व आभार!
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुंदर
मुक्ति की आकांक्षा ही हमें इस बंधन से मुक्त होने को विवश करती है.
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