जून २००३
देह को जन्मने के बाद जो नाम दिया गया है, वह तो बदला जा सकता है लेकिन तन के
भीतर जहाँ से खुद के होने की सत्ता का भान होता है, वह अपरिवर्तनीय है. वही वास्तव
में हम हैं, और वह सभी के भीतर है. सभी के भीतर वही चैतन्य है. उस का अनुभव करने
के लिये ही हम शरण में जाते हैं, उसका अनुभव होने के बाद एक मदहोशी एक सात्विक
मस्ती का अनुभव होता है, शरण में जाने का अर्थ है कोई आग्रह न रखना, अस्तित्त्व ने
जो हमारे लिये तय किया है उसे स्वीकार करना, वैसे भी हम जो चाहते हैं, वह सभी होता
कहाँ है और जो होता है वह भाता नहीं, जो भाता है वह टिकता नहीं फिर जो नहीं भाता
वह भी नहीं टिकेगा तो अप्रिय को देखकर हमें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है. सारे
आग्रह जब छूट जाते हैं तो जीवन सहज हो जाता है, भीतर की गाठें खुलने लगती हैं,
प्रकाश हो जाता है.