३१ जनवरी २०१८
कभी-कभी कहने को कुछ नहीं होता, मन शून्य की भांति रिक्त हो जाता
है. एक अनजाना सा रस भीतर प्रकट होता है और उसका स्रोत कहीं नजर नहीं आता. कुछ करना
है यह भान तो रहता है पर कुछ विशेष करने की चाह नहीं होती. एक तृप्ति का अहसास
होता है जो आगे बढ़ने को प्रेरित तो करता है पर कोई दिशा नहीं दिखाता. जीवन
विविधरंगी है, मन की ऐसी अवस्था भी जीवन का एक नया रंग है. जहाँ सब कुछ अपने आप
घटित हो रहा है, इतना विशाल ब्रह्मांड किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा एक व्यवस्थित
ढंग से चल रहा है, वहाँ यह छोटा सा मन भी उसी अनाम ऊर्जा से ही प्रकाशित है. विराट
की उपासना से क्षुद्र की पकड़ अपने आप छूट जाती है, सम्भवतः इसी कारण किसी लक्ष्य
की ऐसे मन को चाह नहीं रहती.
No comments:
Post a Comment