अगस्त २००३
सुना है एक बार ब्रह्मा जी ने मानव को दो थैले दिए और कहा कि अपनी कमियाँ तो सामने
वाले थैले में रखना और अन्यों के दोष पीछे वाले में, किन्तु मानव इसे भूल गया. हम
अपने दोषों को तो नजरंदाज कर जाते हैं और अन्यों में देखने लगते हैं. धीरे-धीरे वही
दोष हमारे भीतर आने लगते हैं, और जो हमारे भीतर है वही बाहर भी दीखता है, एक दुष्चक्र
आरम्भ हो जाता है. तब मन नीचे गिर जाता है और उसे ऊपर उठाने में ऊर्जा लगती है,
ऐसी ऊर्जा जो साधना से ही भीतर जगती है. मन यदि शांत है, प्रसन्न है, स्थिर है तो सारी
सृष्टि प्रसन्न दिखती है. सत्य वही है जो नित्य है, यह जगत पल-पल बदल रहा है, इसे
जैसा है वैसा ही स्वीकारना होगा, असत्य में सुधार करें तो भी वह असत्य ही रहेगा,
सुधार की गुंजाइश तो सत्य में ही हो सकती है, अर्थात यदि हमारा वास्तविक रूप अभी
स्पष्ट नहीं दीख रहा तो उस पर से मैल झाड़नी है, पाना उसी को चाहिए जिसे पाकर खोना
नहीं पड़ता. यदि खोना ही पड़े तो एक मिले या दस कोई अंतर नहीं पड़ता.
बहुत सुंदर शिक्षा ....
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी ....
आभार अनीता जी ...
हम अपने दोषों को तो नजरंदाज कर जाते हैं और वही दोष हमारे भीतर आने लगते हैं,,,,,,
ReplyDeleteRECECNT POST: हम देख न सके,,,
पाना उसी को चाहिए जिसे पाकर खोना नहीं पड़ता. यदि खोना ही पड़े तो एक मिले या दस कोई अंतर नहीं पड़ता.
ReplyDeleteशाश्वत सत्य .
अनुपमाजी, धीरेन्द्र जी व रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व हार्दिक आभार !
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