सितम्बर २००३
अनंत-अनंत ब्रह्मांडो का रचियता वह परब्रह्म रसमय है. जिसकी सत्ता से सृष्टि अनंत काल
से चली आ रही है, न जाने कितनी बार कितने रूपों में हम इसके अनोखे खेल देखते आये
हैं, हम प्रथम बार कब इस धरा पर आये थे, कौन जानता है ? शायद जब से यह सृष्टि है
तभी से हम भी यहाँ हैं, और शरीर के न रहने पर भी हमारी सत्ता ऊर्जा के रूप में तो
यहाँ रहेगी ही, तो जैसे वह परम सत्य अनादि है, अनंत है, वैसे ही उसने हमें भी बनाया
है. उसका हमारा सम्बन्ध बहुत पुराना है, वह जानता है पर हम भूले रहते हैं. माया का
आवरण डालकर वह जादूगर हमें भुलावे में डाल देता है. पर कभी-कभी किसी जन्म में संत
कृपा से माया का पर्दा हटता है, और हमें अपने वास्तविक स्वरूप की झलक मिलती है, तब
लगता है जिन वस्तुओं को हम इतना महत्व दे रहे हैं, वे तो बिना नींव की हैं, उनका
कोई आधार ही नहीं है, वे हर पल बदल रही हैं. हमारा शरीर भी निरंतर अनित्य की ओर जा
रहा है, ऐसा हो सकता है कि किसी एक दिन यह जगत हमारी आँखों से लुप्त हो जाये, हम
पुनः एक नए शरीर में डाल दिए जाएँ, उससे पूर्व ही इन रहस्यों को जीना होगा. संत
बताते हैं कि जैसे बादल, चाँद, तारे आदि आकाश में स्थित है पर आकाश उनसे अलिप्त
है, वैसे भी वह परमात्मा हमारे भीतर है और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से परे है.
परमात्मा हमारे भीतर है और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से परे है.
ReplyDeleteसब कहाँ जान पाते हैं ?
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteरमाकांत जी व परमजीत जी आप दोनों का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
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