अक्तूबर २००३
हमारे तन का पोर-पोर, मन का हर अणु परमात्मा के नाम से इस तरह ओत-प्रोत हो जाये कि
जैसे पात्र पूरा भर जाने पर जल छलकने लगता है वैसे ही उसके नाम का अमृत हमारे
अधरों व नेत्रों से स्वतः ही झलकने लगे. हमारा चित्त जब पूर्णतया तृप्त होगा उसके
नाम से भरा होगा तो भीतर के पाप-ताप, अशुभ वासनाएं धुल जाएँगी. उसके नाम में अनंत
शक्ति है, वह ऐसा जहाज है जो हजारों को पार लगाता है. हमारे भीतर-बाहर उसकी ही सत्ता
है. वह हजारों हाथों से हमें सम्भाले है, हमारी बुद्धि को वही तीक्ष्णता देता है, हमारे
प्राणों का वही आधार है. वह ईश्वर अनिर्वचनीय है, वह जब हमारे साथ है तो हमें किसी
बात का भय नहीं, कोई आशा नहीं, कोई चाह नहीं. वह मौन में भी बोलता है. हमारे भीतर
उसी का मौन छाया है जो तृप्ति प्रदान करता है. हम आत्मा के द्वारा ही उसका अनुभव
कर सकते हैं, इसके लिए न तो बल चाहिए न ही बुद्धि, हम जिस कार्य को बिना शरीर, मन,
बुद्धि आदि की सहायता के कर सकते हैं वह है ध्यान. वही हमें प्रभु से मिलाता है.
कार्य करते हुए यदि कर्तापन नहीं रहे तो भी हम शरीर, मन, बुद्धि से परे ही हुए.
ऐसा कार्य भी ध्यान बन जाता है. हमारा जीवन सहज भी है और दुष्कर भी, ईश्वर भी ऐसा
ही ही है अति निकट भी अति दूर भी. इन द्वंद्वों से भी मुक्त होना है, तब एक सहज
शांति का अनुभव होता है, पर हम ही उसे गंवा देते हैं पर कृष्ण हमारा मित्र हमें
बार-बार अपनी ओर ले जाने की चेष्टा करता है.
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 20/11/12 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है
ReplyDeleteराजेश जी आपका स्वागत व बहुत बहुत आभार!
Deleteइमरान, स्वागत व आभार !
ReplyDelete