नवम्बर २००३
हम साक्षी मात्र हैं,
सुख-दुःख के भोगी नहीं हैं. द्वन्द्वातीत हैं, चिन्मय हैं, अजन्मा, अविनाशी हैं, हम
मुक्त हैं. जगत में यह सामर्थ्य नहीं कि हवा के झोंके को बांध सके, चट्टानों को
बेधकर आती जलधारा को रोक सके. हम चैतन्य हैं, शाश्वत हैं, मृत्यु हमसे घबराती है,
हम कालातीत हैं. काल का हम पर कोई वश नहीं चलता. हमारी शक्ति असीमित है, हम असीम,
अनंत गगन के सम व्याप्त हैं. हमसे ही यह संसार है, यह हमारा खेल स्थल है,
नाट्यशाला है. प्रकृति के गुण अपना-अपना कार्य कर रहे हैं. गुणों के बद्ध होकर जीव
कभी सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक भाव में रहते हैं जो जिस भाव में स्वयं है वह जगत
को उसी भाव देखता है. हम तीनों गुणों से परे हैं. यह दृष्टि सद्गुरु से प्राप्त
होती है और स्वयं ईश्वर इसे दृढ़ता प्रदान करता है. वह हमारे अंतर में रहकर सारे
रहस्यों को स्वयं ही खोलता है. सब कुछ कितना स्पष्ट है. हम कहाँ से आये हैं, क्यों
आए हैं, कहाँ जाना है, क्यों जाना है, हम कौन हैं, किसके हैं, इन सारे प्रश्नों के
उत्तर हमारे भीतर मिलते हैं. सद्गुरु हमें ध्यान सिखाते हैं और अपनी कृपा दृष्टि
बरसाते हैं, उस कृपा में जाने कैसा जादू है कि हमारा भीतर-बाहर एक हो जाता है. हम
रस से भर जाते हैं. आनंद की एक बाढ़ हमारे भीतर प्रवाहित होती है जो सारे भूत को
बहा ले जाती है, हम नवीन हो जाते हैं. सारी दुश्चिंताएँ, सारी कल्पनाएँ जो बद्ध मन
के कारण उत्पन्न हुई थीं, नष्ट हो जाती हैं. हम साधना के पथ पर चलने के अधिकारी बन
जाते हैं. ईश्वर हमारा हाथ थाम कर स्वयं इस पथ पर ले जाता है.
बहुत सुंदर एवं सार्थक वचन ....मन आनंदित हो जाता है आपको पढ़कर अनीता जी ....
ReplyDeleteईश्वर स्वयं हमारा हाथ थम कर स्वयं इस पथ पर ले जाता है.
ReplyDeleteबिल्कुल सच
सदा जी, आभार व स्वागत !
Deleteसुन्दर व ज्ञानमय आलेख........आपको मेरी मेल मिली क्या अनीता जी?
ReplyDeleteइमरान, आपकी मेल मिली, जवाब भी दिया है, आभार व शुभकामनायें !
Deleteसुखद है पढ़ना भी।
ReplyDeleteपढ़ते पढ़ते ही वह सुखसागर अपना हो जाता है..
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