हम विचार से घबराते
हैं, ऐसे विचारों से जो हमें हमारे भीतर की कमियों को उजागर करते हैं. हम उस दर्पण
में देखना नहीं चाहते जो हमें कुरूप दिखलाये तभी कठिन विषयों से भी हम घबराते हैं,
जो हम जानते हैं वह सरल है पर उसी को पढ़ते-गुनते रहना ही तो हमें आगे बढने से
रोकता है. जब कोई हमें अपमानित करता है तब वह हमारा निकष होता है, प्रभु से
प्रार्थना है कि वह उसे हमारे निकट रखे ताकि हम वही न रहते रहें जो हैं बल्कि
बेहतर बनें. स्वयं की प्रगति ही जगत की प्रगति का आधार है, हम भी तो इस जगत का ही
भाग हैं. हम यानि, देह, मन, बुद्धि, आत्मा तो पूर्ण है उसी को लक्ष्य करके आगे
बढ़ना है. उसी की ओर चलना है चलने की शक्ति
भी उसी से लेनी है. आत्मा हमारी निकटतम है हमारी बुद्धि यदि उसका आश्रय ले तो वह
उसे सक्षम बनाती है अन्यथा उद्दंड हो जाती है. आत्मा का आश्रित होने से मन भी फलता
फूलता है, प्रफ्फुलित मन जब जगत के साथ व्यवहार करता है तो कृपणता नहीं दिखाता
समृद्धि फैलाता है. जीवन तब एक शांत जलधारा की तरह आगे बढ़ता जाता है. तटों को
हर-भरा करता हुआ, प्यासों की प्यास बुझाता हुआ, शीतलता प्रदान करता हुआ, जीवन
स्वयं में एक बेशकीमती उपहार है, उपहार को सहेजना भी तो है.
बहुत ही गहन और सुन्दर।
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