जब हम जीवन को आदर और सम्मान से देखते हैं, एक पवित्रता का भाव मन में उसके प्रति जगाते हैं तो ही जीवन की विशालता का अनुभव कर पाते हैं। जब हमारे पूर्वजों ने नदियों को पवित्र माना, दूर्वा, तुलसी, बेल, पीपल आदि को पवित्र मानकर उन्हें सम्मान दिया तब इन वस्तुओं ने अपने गुणों से उन्हें लाभान्वित किया। धरती पूज्य है, आकाश आदि पंच तत्व सभी पावन हैं, जब हम यह शब्दों से ही नहीं मानते, हृदय से महसूस करते हैं तब प्रकृति हमारे लिए माँ के समान सुख देने वाली प्रतीत होती है। जिस अंतर को जगत में कुछ भी सम्मान के योग्य नहीं लगता, वह संकीर्ण मनोवृत्ति का शिकार हो जाता है। ऐसा जीवन रसहीन हो जाता है, उत्साह और उमंग के लिए उसे किसी न किसी साधन की आवश्यकता होती है। यदि जीवन में कोई खोज न हो केवल जीवन निर्वाह के सिवा जीवन का क्या अर्थ रह जाता है। जो व्यक्ति जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूर्ण कर चुका है, ऐसे में उसके जीवन में एक खालीपन भर जाता है। संभव है यह प्रकृति द्वारा ही आयोजित किया गया हो, वह हरेक को एक उच्च लक्ष्य की ओर अग्रसर कर रही है। मानव मस्तिष्क को अपनी पूर्णता की ओर ले जा रही है।
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