Saturday, December 12, 2020

नित नूतन से जुड़ जाये मन

राम के मन की समता का, सत्याग्रह हेतु बापू की अदम्य शक्ति का, बुद्ध की करुणा का, कृष्ण की मोहनी मुस्कान का, नानक की वाणी का और अनेकानेक सन्तों, महापुरुषों के अपार स्नेह का  स्रोत एक ही तो है. वही एक जिसका बखान वेदों ने गाया है. वह व्यक्त हो सकता है केवल मानवीय मस्तिष्क द्वारा. सन्त कहते हैं, जब कोई अंतर को निष्काम बना लेता है तो  उस स्रोत से जुड़ जाता है. दुनियावी संस्कार जब इच्छा जगाते हैं तो यह संपर्क टूट-टूट जाता है. संस्कार पूर्व कर्म का फल हैं. हम जो भी करते हैं संस्कारों से प्रेरित होकर ही करते हैं. वह सभी अतीत का फल है. मन अतीत है जो भविष्य के स्वप्न दिखाता है पर स्वयं ही उसी फसल को काटकर उसके बीज गिराता चलता है. इस स्थिति में भविष्य कैसे भिन्न होगा अतीत से ? वही-वही मानव नित्य दोहराये जाता है. चेतना नित नई है. वह नए पथ सुझाती है. जब पुराने सभी आग्रह और मान्यताएं झर जाती हैं तब नए कोंपल निकलते हैं. जब पुरानी इमारत ढह जाती है तो ही नए का निर्माण होता है. जब मन अतीत से मुक्त होता है तब वह मन नहीं रहता चैतन्य मात्र रह जाता है. उस क्षण में करुणा का सागर बह जाता है, प्रेम का दीप जल जाता है. सत्य की मशाल जगमगा उठती है. सन्त ऐसे ही बहता है भीतर से जैसे पोली बंसी हवा को बहाती है संगीत बद्ध करके. वह अस्तित्त्व से भर जाता है ऐसे जैसे कोई खाली पात्र भरता जाता है वर्षा के जल से, और अनंत उसे भरता ही चला जाता है.   

 

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