Tuesday, December 8, 2020

कर्मण्येवाधिकारस्ते

 फल की कामना को रखकर किया गया कर्म अस्तित्त्व के लिए नहीं होता, जबकि साधक  अस्तित्त्व के साथ अभिन्नता का अनुभव करना चाहता है. यदि उसका स्वार्थ अभी भी शेष है तो साधना का लक्ष्य अभी दूर है. जो किंचित मात्र भी मन को बचाकर रखना चाहता है, वह अहंकार का पोषण ही कर रहा है. उसे दुःख का  भागी होना ही पड़ेगा. दुःख आत्मा से दूर ले जाता है, सहजता ही आनंद है. जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारना तथा किसी मान की चाह या प्राप्ति के लिए कुछ करना या करने की इच्छा रखना सहजता के पद से नीचे उतर जाने जैसा ही है। जो भाव दशा मन में आती है और उतर जाती है वह नश्वर है। आकाश की भांति अनंत और सागर की भांति गहरे स्थायी भाव में टिकना ही साधना है। 


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