भगवद्गीता में कृष्ण ने कहा है, गुण ही गुणों में वर्तते हैं. हम अपनी सात्विक, राजसिक, तामसिक प्रकृति के अनुसार कर्मों को करते हैं. यही गुण हमारे कर्मों का कारण बनते हैं और हम स्वयं को कर्ता मानकर उनके द्वारा प्राप्त सुख-दुःख का भोग करते रहते हैं. यह क्रम जाने कब से चलता आ रहा है. अंतर्मुखी होकर जब साधक इस सत्य को देखता है तो गुणातीत होने की तरफ उसके कदम बढ़ते हैं. जब साक्षी भाव बढ़ने लगता है तो वह गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता. यदि तमस के कारण भीतर प्रमाद है तो वह उसके वश में नहीं होता, मन यदि चंचल है तो यह जानकर कि रजोगुण बढ़ा हुआ है वह ध्यान का प्रयोग करता है. सत्व में स्थित होने पर शांति का भी भोक्ता नहीं बनता बल्कि स्वयं को सदा ही अलिप्त देखता है.
Very good post...
ReplyDeleteWelcome to my blog.....
स्वागत व आभार !
Deleteबहुत उपयोगी सन्देश।
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